आज दुनिया के ग्लेशियरों के अस्तित्व पर संकट मंडरा रहा है। वैज्ञानिकों का मानना है कि जलवायु परिवर्तन से असमय सूखा और बारिश के साथ समुद्र के जलस्तर में तेजी से बढ़ोतरी हो रही है। बीते साठ साल से भी कम समय के दौरान समुद्र का जलस्तर बढ़ चुका है। उनकी सर्वसम्मत राय है कि समुद्र के जलस्तर के बढ़ने की अगर यही रफ्तार रही तो वर्ष 2100 तक ग्लेशियरों के सभी पहाड पिघल जायेंगे। तात्पर्य यह कि तब तक सभी ग्लेशियर समाप्त हो जायेंगे। तब ग्लेशियरों का नाम केवल किताबों में ही रह जायेगा। उस दशा में होने वाली तबाही की भयावहता की आशंका से ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं। वैज्ञानिकों ने इस बार उपग्रह की सहायता से ग्लेशियरों के पिघलने और उसके असर को जानने की कोशिश की है। इस शोध में यह स्पष्ट हो गया है कि ग्लेशियरों के पिघलने का जो अनुमान इससे पहले लगाया गया था, हालात उससे भी ज्यादा खराब हैं। ग्लेशियर पहले के अनुमान से भी ज्यादा तेजी से पिघल रहे हैं। असलियत में समूची दुनिया में अभी तक ग्लेश्यिरों के बारे में बहुत कम ही अध्ययन हुए हैं। उनके आंकड़े भी ज्यादा उपलब्ध नहीं हैं लेकिन जो भी अध्ययन और शोध हुए हैं उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया है कि इसके पीछे ग्लोबल वार्मिंग की बहुत बड़ी भूमिका है। साथ ही यह भी कि ग्लोबल वार्मिंग के खतरे कितने भयावह हो सकते हैं। यदि समय रहते इस चुनौती का मुकाबला करने में असमर्थ रहे तो इसका दुष्परिणाम मानव सभ्यता के विनाश के रूप में सामने आयेगा।
ग्लेशियर जलापूर्ति के सबसे बड़े सेविंग एकाउन्ट हैं। नदियों को सदानीरा बनाने में इनकी अहम् भूमिका है। नदियां करोड़ों-करोड़ लोगों की जीवनदायिनी हैं। उनके जीवन का आधार हैं। यदि का अस्तित्व खतरे में पड़ा तो निश्चित है कि मानव जीवन, कृषि उत्पादन पर तो विपरीत प्रभाव पड़ेगा ही, या यूं कहें कि मानव जीवन दूभर हो जायेगा, पेयजल संकट भयंकर रूप ले लेगा, कृषि उत्पादन समाप्त प्रायः हो जायेगा और बाढ़ तथा जानलेवा बीमारियां जैसी समस्याएं सुरसा के मुंह की तरह बढ़ जायेंगीं। गौरतलब यह है कि ग्लेशियरों की यह प्राचीन बर्फ हमारी धरती का सबसे मुलायम कहें या नाजुक हिस्सा है। ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने का सीधा सा अर्थ है कि यहां पर हर साल जमा होने वाली और पिघलने वाली बर्फ का अंतर कितना है। सर्दी में इसकी तह मोटी हो जाती है और गर्मी में इसकी निचली सतह पिघलती है। यह कितनी बनी और कितनी पिघली, इस पर ही इसका पूरा जीवन निर्भर होता है। समूची दुनिया में ये ग्लेशियर ही ग्लोबल वार्मिंग के बैरोमीटर माने जाते हैं। असलियत में ग्लोबल वार्मिंग के स्तर को दुनिया को जानकारी देने में यही तो अहम् भूमिका निबाहते हैं।
इसमें संदेह नहीं है कि ग्लोबल वार्मिंग के असर से हिमालय भी अछूता नहीं रहा है। पूरी दुनिया के साथ-साथ हिमालय भी गरम हुआ है। कुछ समय पहले कहा गया था कि तापमान में बढ़ोतरी की रफ्तार यदि इसी तरह जारी रही तो हिमालय के ग्लेशियर 2035 तक समाप्त हो जायेंगे। बहरहाल यह सच है कि ग्लोबल वार्मिंग के चलते हालात अब दि-ब-दिन और खराब होते जा रहे हैं। ग्लोबल वार्मिंग के चलते उच्च हिमालयी इलाके में जहां पर एक समय केवल बर्फ गिरा करती थी, अब वहां वारिश हो रही है। यह स्थिति भयावह खतरे का संकेत है। अध्ययन प्रमाण हैं कि हिमालय के तापमान में पिछले तकरीब 30 सालों में औसतन 2 से 2.5 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि; हुयी है। यह विडम्बना ही है कि यह आंकड़ा पहले के बीते सौ सालों में हुयी तापमान बढ़ोतरी से कहीं ज्यादा है। इससे यह साफ है कि जिस तरह ग्लेश्यिर पिघलेंगे, आने वाले सालों में बाढ़ की विभीषिका भयावह होगी और फिर धीरे-धीरे नदियों के सूखने का सिलसिला शुरू हो जायेगा। हमारे यहां हिमालय के तकरीब 15000 मील लम्बे इलाके में छोटे-बड़े ऐसे हजारों ग्लेशियर हैं जो दक्षिण एशिया की जलापूर्ति में अहम् भूमिका निबाहते हैं। नदियों के प्रवाह के आंकड़ों के मामले में हमारे यहां दावे भले कितने भी किये जाते रहें, असलियत में बहुत ही कम जानकारी उपलब्ध है। इसके चलते यह जान लेना कि ग्लेश्यिरों के पिघलने से नदियों पर कितना दुष्प्रभाव पड़ेगा, बहुत मुश्किल है। उस दशा में सही-सही खतरे का आंकलन कर पाना आसान नहीं है। देखा जाये तो सन् 1850 के आसपास औद्योगिक क्रांति से पहले की तुलना में धरती एक डिग्री गर्म हुई है। वैज्ञानिकों की मानें तो उनको इस बात का भय सता रहा है कि उनके द्वारा निर्धारित तापमान में बढ़ोतरी की 2 डिग्री की सीमा को 2100 तक बचा पाना संभव नहीं है। यदि ऐसा होता है तो एशिया में तो ग्लेशियरों का अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा।
विश्व की सर्वोच्च पर्वत चोटी माउंट एवरेस्ट ग्लोबल वार्मिंग के चलते पिछले पचास सालों से लगातार गर्म हो रही है। इसका दुष्परिणाम है कि दुनिया की 8844 मीटर उंची चोटी के आसपास के हिमखंड दिन-ब-दिन पिघलते जा रहे हैं। हिमालय पर्वत श्रंखला में कुल 9600 ग्लेशियर हैं। इनमें से 75 फीसदी के पिघलने की गति तेजी से जारी है। इनमें से ज्यादातर तो झील और झरने के रूप में तब्दील हो चुके हैं। जो शेष बचे हैं, उसमें तेजी से बढ़ोतरी हो रही है। यदि इस पर अंकुश नहीं लगा तो आने वाले समय में हिमालय की यह पर्वत श्रंखला पूरी तरह बर्फ विहीन हो जायेगी। ग्लोबल वार्मिंग के कारण जिस तेजी से मौसम का मिजाज बदल रहा है, उसी तेजी से हिम रेखा पीछे की ओर खिसकती जा रही है। शोध प्रमाण हैं कि हिमरेखा तकरीब 50 मीटर पीछे खिसकी है। नतीजतन यहां बर्फ के इलाके में दिनोंदिन कमी आ रही है। इससे जैवविविधता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। संयुक्त राष्ट्र् की पर्यावरण रिपोर्ट इसकी पुष्टि कर चुकी है। दुनिया के वैज्ञानिकों के शोध-अध्ययन प्रमाण हैं कि समूची दुनिया में वह चाहे आर्कटिक हो, आइसलैंड हो, हिमालय हो, तिब्बत हो, चीन हो, भूटान हो, नेपाल हो, या फिर कहीं और, हरेक जगह ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार तेजी से बढ़ती जा रही है। नेपाल स्थित इंटरनेशनल सेंटर फाॅर इंटिग्रेटेड माउंटेन डवलॅपमेंट के अनुसार 2050 तक ऐसे समूचे हिमनद पिघल जायेंगे। इससे इस इलाके में बाढ़, फिर अकाल का खतरा बढ़ जायेगा। गौरतलब है कि हिमालय से निकलने वाली नदियों पर कुल मानवता का लगभग पांचवां हिस्सा निर्भर है। जाहिर है जलसंकट और गहरायेगा, कृत्रिम झीले बनेंगी, तापमान तेजी से बढ़ेगा, बिजली परियोजनाओं पर संकट मंडरायेगा और खेती पर खतरा बढ़ जायेगा।
इस बारे में वाडिया हिमालय भू-विज्ञान संस्थान के शोध की मानें तो यह ग्लोबल वार्मिंग का ही नतीजा है कि हिमालयी क्षेत्र में जहां एक दशक पहले तक चार हजार मीटर की उंचाई तक बारह महीने बर्फ गिरती थी, अब वहां कुछ महीने ही बर्फ गिरती है। जबकि बाकी महीनों में बारिश भी होने लगी है। इससे हिमालय में एक नया बारिश वाला इलाका विकसित हुआ है। अब इस इलाके में बारिश होने वाला इलाका 4000 से 4500 मीटर तक बढ़ गया है। असलियत में हिमालय का उच्च पहाड़ी क्षेत्र 3500 से लेकर 4000 मीटर हाई एल्टीट्यूड में आता है। तापमान में बढ़ोतरी से उपजी गर्म हवायें जैव विविधता के लिए गंभीर खतरा बन रही हैं। ये जैव विविधता के विनाश का कारण हैं। जाहिर है कि यह शोध ग्लोबल वार्मिंग के गंभीर दुष्परिणामों का संकेत कर रहा है कि अब समय आ गया है कि अब कुछ किये बिना इस समस्या से छुटकारा संभव नहीं है। इसलिए तापमान में वृद्धि को रोकना समय की सबसे बड़ी मांग है। यह समूची दुनिया के लिए सबसे बड़ी गंभीर चुनौती है। (लेख में लेखक के अपने विचार है)
ज्ञानेन्द्र रावत
वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद्
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