जैसे पीनेवालों को पीने का बहाना चाहिए वैसे ही जुआ खेलनेवालों और शर्त लगानेवालों के लिए भी बहानों की कमी नहीं है। बरसात होगी या नहीं, कौनसी टीम जीतेगी, इस मैच में कितने छक्के लगेंगे, सचिन की सेंचुरी बनेगी या नहीं आदि-आदि। ये तो बड़े मोटे सट्टे हैं । दो आदमी यदि हों तो वे कहीं भी सट्टा खेल सकते हैं और कुछ नहीं तो यही कि चलो जूती उछालते हैं। सीधी पड़े तो यह भाव और उलटी पड़े तो यह लोग तो यहाँ तक सट्टा खेलते हैं कि यह जो मक्खी उड़ रही है, जब यह बैठेगी तो कहाँ बैठेगी या बिना कहीं बैठे ही चली जायेगी ? ऐसों पर कौन प्रतिबन्ध लगा सकता है। जहाँ मनुष्य के मन में उत्सुकता, अनिश्चितता, उतावली है, अनुमान है, विकल्प है वहाँ सब जगह सट्टे की संभावनाएँ बनती हैं।
इसी तरह खेल भी मनुष्य की मूल प्रवृत्ति है। जिनके खून में जोश है वे ताकतवाले खेल खेलते हैं। कुछ आलसी लोग ताश, चौपड़, चर-भर जैसे खेल खेलते हैं। कुछ लोग तो इतने खेल प्रेमी होते हैं कि अकेले ही दो खिलाड़ियों के पत्ते बाँट देते है और फिर ख़ुद ही बारी-बारी से रोल बदल-बदल कर खेलते रहते हैं।
कल शाम जब घूम कर हम और तोताराम लौट रहे थे, रास्ते में एक मकान दिखाई दिया जिस पर लिखा था पार्टी कार्यालय। पार्टी का नाम कुछ धुंधला पड़ गया था इसलिए समझ में नहीं आया। मकान की खिड़की में से अन्दर नज़र गई तो देखा कि लोग एक गोल घेरे में बैठे हैं, सबके चहरे लटके हुए हैं । मातम का सा माहौल है । उनके पास एक डिब्बा है जिसे वे एक दूसरे को पकड़ा रहे हैं । संगीत बज रहा है। जैसे ही संगीत रुका तो डिब्बा नीचे गिर पड़ा। लोग एक दूसरे पर डिब्बा गिराने का दोष लगाने लगे। अंत में फाउल मानकर फिर खेल शुरू हुआ। संगीत बजने लगा। संगीत रुका। डिब्बा किसी के हाथ में नहीं । फिर नीचे गिर पड़ा। फिर फाउल। यही तमाशा चलता रहा।
अंत में तोताराम से रहा नहीं गया और वह दरवाज़ा खोल कर अन्दर चला गया और ऊँची आवाज़ में कहने लगा - यह क्या तमाशा है ? खेलते हो तो ढंग से खेलो। जानबूझ कर पार्सल गिरा रहे हो। अरे, जिसके पास भी पार्सल रुकता है, खोलो और उसके अनुसार करो।
पर किसी ने नहीं सुनी। बार बार पार्सल ही गिरता रहा। अंत में तोताराम को गुस्सा आगया। उसने लपक कर पार्सल ख़ुद ले लिया। सब लोगों ने राहत की साँस ली और भाग कर तोताराम को घेर लिया। जल्दी से पार्सल खोला तभी एक ठीकरा तोताराम के सिर पर आकर गिरा। सिर पर बड़ा सा गूमड़ उभर आया।
पार्सल में लिखा था- जिसके पास भी यह पार्सल रुकेगा उसी के सिर पर हार का ठीकरा फोड़ा जाएगा।
तोताराम फटे में टाँग फंसाने की अपनी आदत के कारण चोट खा बैठा।
थोड़ा आगे चले होंगे कि फिर एक कार्यालय दिखाई दिया पर वहाँ मायूसी का माहौल नही था । सबके चेहरों पर जीत की खुशी चमक रही थी। तोताराम अपने गूमड़ को भूल कर फिर अन्दर झाँकने लगा पर हमने रोक लिया। कहा- न तो दरवाजे के अन्दर चलेंगे और न ही बीच में टाँग फँसायेंगे, दूर से ही समझने की कोशिश करेंगे। अन्दर झाँक कर देखा तो यहाँ भी वही पासिंग द पार्सल वाला खेल चल रहा था। उसी तरह लोग जान बूझकर पार्सल गिरा रहे थे।
तभी अन्दर से एक पत्रकार टाइप आदमी निकला। हमने पूछा - भाई साहब , क्या यहाँ भी हार के कारणों का ठीकरा फोड़ने का चक्कर है ? उसने कहा- नहीं, यहाँ तो ये लोग यह नहीं समझ पा रहे हैं कि जीत तो गए पर जीते किस कारण से ? (लेखन १५-६-२००९ का) (लेखक के अपने विचार हैं)
पता : रमेश जोशी (वरिष्ठ व्यंग्यकार, संपादक 'विश्वा' अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति, अमरीका)
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