गंगाजल के ब्रह्म द्रव्य का रहस्य 


(डे लाइफ डेस्क)



इसमें किंचित मात्र भी संदेह नहीं है और यह सदियों से रहस्य भी बना हुआ है कि आखिर गंगाजल स्वयं अपने  आप में विशेष क्यों है ?  यह एक ऐसा गूढ़ विषय है जिस इस पर दुनिया के कई वैज्ञानिकों व संगठनों ने अपने -अपने तरीके और  ढंग से अनुसंधान भी किये हैं । इसमें विश्व के बहुतेरे देशों के  वैज्ञानिक संगठन भी शामिल रहे हैं। इस सच्चाई को झुठलाना नहीं जा सकता। इन्हीं में संयुक्त राष्ट्र अमेरिका का "नेशनल साइंस फाउंडेशन " भी शामिल है। इसने विशेषतः गंगाजल के नहीं  सड़ने  के कारणों , उसके विज्ञान एवं धर्म के आंतरिक संबंधों को लेकर किये अनुसंधान पर सन 2004  से लेकर 2007 के बीच लगभग सात लाख अमेरिकी डॉलर खर्च किये हैं। उल्लेखनीय है कि इस पर न केवल टेलीविजन रिपोर्टें ही तैयार की गयीं, बल्कि पुस्तक भी लिखी जा चुकी हैं। इस संदर्भ में जूलियन  क्रेन डॉल  होलिक्स की पुस्तक जो "गंगा" नामक शीर्षक से अंग्रेजी में प्रकाशित है, वह पठनीय है।


यहां इस बात का उल्लेख करना बेहद जरूरी है कि इस संदर्भ में भारत सरकार के सीएसआईआर अंतर्गत नागपुर स्थित "नेशनल एनवायरमेंटल इंजीनियरिंग रिसर्च इंस्टिट्यूट "अर्थात "नीरी" ने भी बहुत काम किया है और कई अनुसंधान भी किए हैं। यही नहीं भारत सरकार के गंगा से संबंधित मंत्रालय  द्वारा सन 2015  में 16 नवंबर को सुश्री उमा भारती की अध्यक्षता में नई दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में देश के जाने माने 150 से अधिक वैज्ञानिकों के अलावा वैज्ञानिक संस्थाओं के प्रतिनिधियों की बैठक भी हुई थी । इसके उपरांत "नेशनल एनवायरमेंटल इंजीनियरिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट" के वैज्ञानिक डॉ कृष्णा खैरनार की अध्यक्षता में वैज्ञानिकों की एक कमेटी गठित की गई थी। उस कमेटी में सिविल इंजीनियर, माइक्रोबायोलॉजिस्ट, बोटैनिस्ट, वायरोलॉजिस्ट, बायोटेक्नोलॉजिस्ट इत्यादि विशेषज्ञ शामिल किए गए थे। इस कार्य हेतु एनडीटीवी , हिंदुस्तान टाइम्स तथा विभिन्न हिंदी व अंग्रेज़ी के अखबारों की रिपोर्टिंग के अनुसार भारत सरकार द्वारा 150 करोड़ रुपए की राशि उपलब्ध करायी गयी है। इस साइंटिफिक कमेटी का उद्देश्य गंगा के "ब्रह्म द्रव्य" के रहस्य  का खुलासा करना था।


इस संयुक्त अभियान के महती कार्य के क्रियान्वयन में लगभग 1 वर्ष के दौरान  जिन  नामचीन संगठनों ने भाग लिया, उनका उल्लेख करना यहां अनिवार्य होगा। इसमें नई दिल्ली स्थित  अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के साथ इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च ,आईआईटी कानपुर एवं आईआईटी रुड़की, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय ,नेशनल बोटैनिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट लखनऊ, सीएसआईआर से  संबंधित चंडीगढ़ स्थित प्रख्यात संस्थान इंस्टीट्यूट ऑफ माइक्रोबायोलॉजी टेक्नोलॉजी चंडीगढ़ के साथ नागपुर स्थित नीरी के वैज्ञानिकों,अनुसंधान कर्ताओं की सहभागिता विशेष रूप से उल्लेखनीय रही है। इसका उद्देश्य दुनिया की अन्य नदियों की अपेक्षा भारत की मोक्षदायिनी पुण्यसलिला राष्ट्रीय नदी गंगा के जल में  विशेष गुणों का पाया जाना प्रमुख था। यहां इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि इस संदर्भ में विगत 100 वर्षों के दौरान कई अनुसंधान दुनिया भर के वैज्ञानिकों ने किये हैं। उनके अन्वेषण का सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि गंगा के जल में गंगा नदी के प्रवाह क्षेत्र में हिमालय की जड़ी बूटियों - वनस्पतियों के स्पर्श के कारण वह विशेष गुण विद्यमान रहता है जो विषाणुओं का खात्मा कर जल के शुद्धीकरण में अहम भूमिका का निर्वहन करता है। कुछ वैज्ञानिकों ने भी गंगा के प्रवाह क्षेत्र अर्थात रिवर बेड में भी उन गुणों के पाये जाने का उल्लेख किया है। 


कुछ वैज्ञानिकों का इस बारे में मानना है कि गंगाजल में  bacteriophage का पाया जाना इसका अहम कारण है। इस बारे में अमेरिका, ग्रेट ब्रिटेन तथा अन्य कई  देशों के  वैज्ञानिकों का कथन है कि यह वैक्टीरियाफाज विश्व की सभी नदियों में कमोबेश मिलते हैं और  हाल के वर्षों में यह मात्र सृजित शब्द  है। 
विडम्बना यह कि उपरोक्त विषय  पर समिति द्वारा लगभग दो करोड़ रुपए खर्च करने के बाद सिर्फ यही जाना जा सका है या यों कहें कि प्रवाह क्षेत्र में आने वाले कौन-कौन से औषधीय वृक्ष और पौधे हैं ,जिनके औषधीय गुणों के कारण ही गंगाजल में  विषाणु की नष्ट करने की यह विलक्षण क्षमता है। यहां यह उल्लेख करना महत्वपूर्ण और आवश्यक भी है कि हिमालय से लगभग 300 नदियां निकलती हैं और संपूर्ण क्षेत्र औषधीय वृक्षों एवं वनस्पति से सम्पन्न या यों कहें कि भरा पड़ा है तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। यह कटु सत्य है। इसे झुठलाना नहीं जा सकता। 


यह भी कि गंगा से 50 किलोमीटर की दूरी पर यमुना नदी का उद्गम है ,लेकिन गंगा के जल में जो विशेषता है, वह यमुना नदी के जल प्रवाह में नहीं है। गौरतलब है कि सीएसआईआर - नीरी द्वारा भारत सरकार को हाल ही में  सौपे गए गए 300 पृष्ठों की रिपोर्ट में सर्वप्रथम जिस वैज्ञानिक का उल्लेख मिलता है, वह हैं आईआईटी रुड़की के हाइड्रोलॉजी विभाग के डॉ . देवेंद्र स्वरूप भार्गव। उनका मानना है कि गंगा नदी में विश्व की अन्य नदियों की अपेक्षा 25%  ऑक्सीजन की अधिकता है जो गंगाजल के विषाणु को अल्प समय में ही नष्ट कर देती है। यही मत पटना विश्वविद्यालय से संबद्ध संस्थान के वैज्ञानिक डॉक्टर एस .एन. सिन्हा द्वारा 2018 में किए गए अनुसंधान में भी परिलक्षित होता है। लेकिन यह 25% अतिरिक्त ऑक्सीजन गंगा नदी को ही क्यों प्राप्त होता है ,डॉ भार्गव के अनुसार विज्ञान का यही सबसे बड़ा रहस्य  है। 


इस संदर्भ में सामान्य विचार यह है कि गंगा नदी बहुत ही उच्च क्षेत्र से निम्न क्षेत्र में प्रवाहित होती है , यही अतिरिक्त ऑक्सीजन का कारण है। इस दृष्टि से तो और भी कई नदियां हिमालय के उच्चतम शिखरों से प्रवाहित होती हैं। उनमें भी वही गुण होना चाहिए था। लेकिन  यह विरोधाभासी प्रतीत होता है । इस संदर्भ में स्वयं " नीरी" के वैज्ञानिकों की ओर से विरोधाभासी बयान आते रहे हैं। इस संदर्भ में अक्टूबर 2014 में प्रधानमंत्री भारत सरकार को राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन केंद्र के एक वरिष्ठ प्रोफेसर ने जो भारत में सुनामी साइक्लोन तथा लैंडस्लाइड के विशेषज्ञ ही नहीं हैं बल्कि उन्होंने गंगा यमुना जल के शुद्धिकरण के विज्ञान पर भी कार्य किया है ,एक अनुसंधान पत्र के हवाले से प्रधानमंत्री जी को एक राष्ट्रीय परामर्श समिति गठित करने हेतु पत्र लिखा था। बाद में योग गुरु बाबा रामदेव के सहयोगी आचार्य बालकृष्ण जी के परामर्श पर वह अनुसंधान पत्र  नीरी को सौंप दिया गया था। इस रिसर्च के आधार पर दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में ही उस विशेष बैठक का आयोजन किया गया था लेकिन जिसका पत्र में उल्लेख था, विडम्बना देखिए उस बैठक में उसे ही नहीं बुलाया गया था। 


गंगाजल के प्रवाह तंत्र में ऑक्सीजन का पाया जाना दुनिया की अन्य नदियों की अपेक्षा एक रहस्य बना रहा है लेकिन अभी इस संदर्भ में एक पुस्तक भी आई है जो इस रहस्य से वाकई में पर्दा उठाती हुयी प्रतीत होती है। वह यह कि हिमालय क्षेत्र के कुछ विशेष क्षेत्रों में बहुत ही शक्तिशाली  आकाशीय विद्युत पैदा होती है ,जो क्लाउड को  ionize करता है और ऑक्सीजन को ओजोन में परिवर्तित करता है। आयन मंडल के ऊपर माइनस -183 डिग्री सेल्सियस ऑक्सीजन, लिक्विड ऑक्सीजन में बदल जाता है तथा  - 361. 82 डिग्री सेल्सियस  पर ऑक्सीजन ठोस ऑक्सीजन में बदलती है। कालांतर में यह "ग्राउपेल "के रूप में हिमालय क्षेत्र पर वापस लौटता है और सूर्य की रोशनी पाकर वह पिघल कर गंगाजल के प्रवाह तंत्र में शामिल हो जाता है।यह खोज प्रख्यात पर्यावरणविद एवं विज्ञान वेता प्रभु नारायण ने  2012 में पूरी कर ली थी ।अब वह अनुसंधान पुस्तक के रूप में सामने आया है जिसमें आश्चर्यजनक  वैज्ञानिक कारणों का उल्लेख मिलता है।  यह एहसास कराता है कि गंगाजल में विषाणु को नष्ट करने की वह क्षमता जड़ी बूटियों में निहित ना होकर आकाश की सीमाओं में बंधी है। अहम यह है कि पुस्तक पठनीय तो है ही, चर्चा का विषय भी है।


यह जान लेना जरूरी है कि सन दो हजार अट्ठारह में  यूरोपियन स्पेस एजेंसी  ने भी  गंगा क्षेत्र के ऊपरी आकाश पर  245 शक्तिशाली नीले रंग की आकाशीय बिजली की मौजूदगी को रिकॉर्ड किया है। इसकी जानकारी उन्होंने सन 2013 के अप्रैल महीने में भारत सरकार को दे दी थी। महत्वपूर्ण यह है की डॉ कृष्णा खैरनार से लेकर डॉ देवेंद्र स्वरूप भार्गव आदि सभी लोगों ने विज्ञान वेता प्रभु नारायण  से व्यक्तिगत तौर पर संपर्क करने की कोशिश  की है और इस संदर्भ में डॉक्टर डी एस भार्गव की 2013 में उनसे भेंट भी हो चुकी है। उस समय जब डॉक्टर कृष्णा खैरनार  2016  के शुरूआती महीनों में नयी दिल्ली स्थित सीएसआईआर के रफी मार्ग स्थित गैस्ट हाउस में ठहरे थे। उस समय प्रभु नारायण जी ने उन रहस्यों को उद्घाटित करना उचित नहीं समझा था जिनका अब खुलासा किया है। इससे गंगा जल के बारे में अबतक के बहुतेरे अबूझ रहस्यों से पर्दा ही नहीं उठता, जन सामान्य की जिज्ञासाओं की भी पूर्ति होती है।  (लेखक के अपने विचार है)



ज्ञानेन्द्र रावत
वरिष्ठ पत्रकार, लेखक एवं पर्यावरणविद 
गाजियाबाद (उत्तर प्रदेश)