संस्कृृति का शाब्दिक अर्थ-सम अथवा भली प्रकार किया जानेे वाला व्यवहार अथवा क्रिया है। यह परिष्कृत अथवा परिमार्जित करने के भाव का सूचक है। संस्कृति शब्द का एक अन्य अर्थ संस्कार से भी जोड़ा जाता है। संस्कृति मानव के आदि काल से लेकर आज तक की वह संचित निधि है जो उत्पादक तथा परिष्कार द्वारा निरन्तर प्रगति करती हुई एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को उत्तराधिकार स्वरूप प्राप्त होती चली आई हैं तथा भविष्य में भी उसकी यही गति रहेगी। संस्कृति सम्बन्धी अनेक अवधारणाओं पर विचार करते हुए यदि एक सन्तुलित दृष्टिकोण अपनाया जाये तो संस्कृति मानव की दशा तथा दिशा का बोध कराती है। इसमें मानव जीवन के समस्त गुण निहित हैं।
संस्कृति के गुणों के वशीभूत होकर ही मनुष्य उन क्रियाओं को करता है जो उसे ज्ञान-विज्ञान, समाज, धर्म, साहित्य, कला, दर्षन और चिन्तन की ओर अग्रसर करती हैं। मानव की समस्त क्रियाओं, व्यवहारों, उत्पादन, परिष्कार एवं उन्नति का मिला जुला रूप ही संस्कृति हैं। संस्कृति द्वारा सत्यं, शिवं, सुन्दरम् के लिए मन मस्तिष्क में आकर्षण उत्पन्न होता है और उसकी अभिव्यक्ति होती हैं। असल में संस्कृति जीवन का एक तरीेका है और यह तरीका सदियों से जमा होकर उस समाज में छाया रहता है जिसमें हम जन्म लेते है। अपने जीवन में हम जो संस्कार जमा करते है वह भी हमारी संस्कृति का अंश बन जाता है और मरने के बाद हम अन्य वस्तुओं के साथ-साथ अपनी संस्कृति की विरासत भी अपनी भावी पीढ़ीयों के लिए छोड़ जाते हैं। यही नहीं, अपितु संस्कृति हमारा पीछा जन्म जन्मान्तरों तक करती हैं। अपने यहाॅ एक साधारण कहावत है, जिसका जैसा संस्कार होता है उसका वैसा ही पुनर्जन्म भी होता है। संस्कार या संस्कृति असल में शरीर का नहीं आत्मा का गुण है।
संस्कृति मानव के भूत, वर्ततान तथा भावी जीवन की सर्वांगपूर्ण अवस्था है। यह जीवित रहने का ढंग है। यदि विवेचनात्मक दृष्टि से निरीक्षण किया जाये तो हमें इस परिणाम की प्राप्ति होगी कि जन्म से लेकर मृत्यु तक तथा उसके भी उपरान्त जन्म-जन्मान्तर तक संस्कृति समस्त मानव चेतना को व्याप्त किये हुए हैं। व्यक्ति के आचरण,चिन्तन, क्रियाशीलता, ज्ञान, आध्यात्म एवं कल्पना में संस्कृति का ही रूप स्थिर है। जीवन का कोई भी अंग संस्कृति की परिधि के बाहर नहीं हैं। सभ्यता का सम्बन्ध उपयोगिता से होता है। मनुष्य केवल उन्ही कार्यों को करता है जो उसके लिये उपयोगी होते हैं।
जंगलीपन अथवा बर्बरता की स्थिति से उभर कर जब मनुष्य ने अपनी सुरक्षा, सुविधा तथा सामाजीकरण की ओर प्रथम चरण उठाये तभी से उसे ’सभ्य’ की संज्ञा से विभूषित किया जाने लगा। दूसरे शब्दों में हम कहते हैं कि जब मनुष्य ने अन्दर की स्थिति को त्याग कर अपनी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सफल प्रयोग करने प्रारम्भ किये तभी वह सभ्यता की स्थिति में आ गया। इस प्रकार सभ्यता बर्बरता के विरुद्ध जीवित रहने की दशा है। सभ्यता जीवित रहने की दशा है तो संस्कृति इस दशा को दिशा बोध कराती है। संस्कृति का सम्बन्ध उपयोगिता से न होकर, उपयोगिता से प्राप्त मूल्यों से है।
इस प्रकार संस्कृति का अर्थ सभ्यता का भीतर से प्रकाशित हो उठना है। जब मनुष्य लक्ष्य की ओर अग्रसर होता है तो सभ्यता का जन्म होता है और जब मनुष्य को लक्ष्य की प्राप्ति हो जाती हैं तो उसके क्रियाकलाप, विचार एवं कल्पना आदि परिष्कृत हो जाते हैं-यह परिष्कार ही संस्कृति है। सभ्यता तथा संस्कृति का सम्बन्ध इतना घनिष्ठ है कि उन्हें एक दूसरे से अलग करना असंभव सा है। जब सभ्यता ने अपने लक्ष्यों की प्राप्ति कि तो कतिपय परिणाम सामने आये- ये परिणाम ही संस्कृति के तत्व हैं। इस प्रकार व्यक्ति, समाज, सभ्यता तथा संस्कृति मानव जाति की प्रगति के बढ़ते हुए चरण हैं।
अतः सभ्यता तथा संस्कृति का सम्बन्ध क्रमिक है। मनुष्य की सर्वप्रथम आवश्यकता स्वयं उसके अस्तिव को बनाये रखना है। इसके लिये मनुष्य ने विभिन्न उपयोगी कार्य किये- जैसे अन्नोत्पादन, जीवन की सुरक्षा हेतु प्रबन्ध, दैनिक जीवन के उपकरणों का निर्माण आदि। जब उसका अपना जीवन सुरक्षित एवं निश्चिन्त हो गया तो उसका ध्यान अपने मानसिक जगत की ओर गया तथा उसके संस्कृति के गुणों का विकास किया। इस प्रकार सभ्यता तथा संस्कृति बिलकुल एकाकार हो गई।
सभ्यता तथा संस्कृति की आदि गाथा में पहले तो मनुष्य सभ्य हुआ और फिर उसने सांस्कृतिक गुणों का विकास किया परन्तु कुछ ही समय पश्चात सभ्यता संस्कृति की अनुगामिनी हो गई। अब संस्कृति ने सभ्यता को विकसित होने की क्षमता प्रदान करना शुरू किया और आज हम यह निश्चित रूप से कह सकते हैं कि संस्कृति के अभाव में सभ्यता का अपना अस्तित्व नहीं हो सकता। भारतीय संस्कृति वसुधैव कुटुम्बकम् की रही है। यह संस्कृति हमें यह शिक्षा देती है कि हम साथ मिलकर रहे, सबका सम्मान करें और देशहित में चिंतन करें। यह संस्कृति सहिष्णुता की संस्कृति है।
भारतीय संस्कृति में परिवार की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। छोटा बच्चा जब पैदा होता है तो धीरे-धीरे वह परिवार से शिक्षा लेता है। परिवार में सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका माता की होती है। माता ही बच्चों को संस्कारित बनाती है। बच्चा धीरे-धीरे परिवार समाज और अपने परिवेश से जैसा सीखता है वैसे ही उसका संस्कार निर्मित होता जाता है। इस प्रकार धीरे-धीरे वह एक सच्चा नागरिक बन जाता है। संस्कार और संस्कृति का घनिष्ठ संबंध है। दोनों एक दूसरे के पूरक है। (लेखक के अपने विचार है)
प्रोफेसर (डॉ.) सोहन राज तातेड़
पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्विद्यालय, राजस्थान