स्मृति-शेष : अभिनेता इरफ़ान खान
(जन्म : 7 जनवरी 1967, निधन : 29 अप्रैल 2020)
जब अपन ने महेश भट्ट द्वारा बनाई गई फ़िल्म रोग देखी तो उसमें स्वर्गीय इरफ़ान खान का अभिनय देखकर ही उनकी हरेक मूवी बार - बार देखने का रोग पाल बैठे थे । ज्यादा फिल्में तो देखने में आती नहीं अब, लेकिन हाँ थोड़े से अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि इरफान ने अपनी नई अभिनय शैली खुद विकसित और परिभाषित की थी। यूँ तो लंबे ऊँचे कद के अलावा उनकी दो बड़ी गहरी आँखे ही अदाकारी का केसर बिखेर देती थी, लेकिन उनकी डायलॉग डिलीवरी एक फिलॉसफर की तरह थी। वे एक खामोश नदी की तरह अदाकारी करते चलते थे, जो बहती जाती थी, मगर उसके कलरव में एक छिपी हुई खामोशी होती थी।
मूल रूप से जयपुर निवासी इस एक्टर के स्टेयरिंग पर बैठने की अदा को देखकर ही इन पर कोई फिदा हो सकता था। इसका मतलब यह नहीं कि उन्हें पर्दे पर इश्क करना नहीं आता था। रोग फ़िल्म में तो उन्होंने एक मॉडल से आँखे दो-चार की थी और उसी के लिए पुलिस ऑफिसर रहते पिस्टल से गोलियाँ बिछा दी थी, वो भी ऑन डयूटी। आज दिल का आलम यह है कि कोविड- 19 का सन्नाटा और गहरा तथा डरावना हो गया है।
रमज़ान के इस पाक महीने में उम्मीद की जा रही थी कि हौंसलों के परिंदों से करीब ढाई साल से कैन्सर से बाहर आने की उम्मीद की उड़ान भर रहे इरफ़ान मौत को एक बार फिर धोखा दे आएँगे, लेकिन लगता है कि जब उन्होंने अंतिम सांस ली होगी तब भी एक खास अभिनय करते आखिरी सांस ली होगी। पिछले मार्च माह में ही उनकी बहुप्रतीक्षित मूवी अंग्रेजी मीडियम आई थी, जिसमें पैसे कौड़ी से मजबूर एक छात्रा के दर्द के मार्मिक दृश्य फिल्माए गए थे। वैसे दृश्य उनकी सादगी, उनकी शांति में छिपी एक बेचैनी उसके बावजूद अपने आप पर पूरा भरोसा माशाल्लाह, सुभानअल्लाह वाह वाह । जब वे लंदन में एक साल कैंसर का उपचार करवाने के बाद बॉलीवुड लौटे थे, तो फिल्मकारों से डरते - डरते मिले थे। उन्होंने ही स्पष्ट कर दिया था कि वो अदाकारी भूल चुके हैं, मगर उक्त फिल्मकारों में से एक होमी अदाजरिया ने पूरी रिस्क ली और अंग्रेजी मीडियम रिलीज हुई। इसे रि-रिलीज करने का इरादा जताया गया था, क्योंकि कोरोना के चलते इसका पहली बार का कलेक्शन आशा के विपरीत रहा।
साभार : पत्रिका
इरफ़ान की माँ सईदा बेग़म उन्हें कभी अपने से दूर नहीं रखना चाहती थीं, मगर इरफ़ान अपनी तलाश में बॉलीवुड की गुफाओं में आ गए थे, जहाँ सफलता की रोशनियाँ उनका रास्ता हरदम बुहारती रही। लेकिन कितनी दुःखद बात हुई कि उनकी अम्मी का निधन हाल में ही हुआ और कोरोना के कारण वे उनके जनाज़े में भी शामिल न होकर वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग पर माँ को विदा देते रहे। जब इरफ़ान अजीब से कैन्सर के इलाज के लिए लंदन गए थे, तो लगभग हर वर्ग का फिल्मी दर्शक बावला हो गया था कि, यह कैसा कैन्सर । फिर लोगों को उनकी अलग - अलग बीमार तस्वीरों ने अंदर से तोड़ना शुरू कर दिया, मगर इरफ़ान को सबका ख्याल था, इसलिए फिर जुड़कर सलामत रूप में अपने वतन आ गए।
अंग्रेजी में एक शब्द होता है इन्टीट्यूशन। इसे अंतराभास कहा जाता है। चूँकि इरफ़ान जमीनी रूप से फिलॉसफर थे, इसलिए इरफ़ान ने कभी कहा था कि अब में सरेंडर कर रहा हूँ। मतलब ये है कि वे कैंसर से जंग हरने लगे थे और उनको अपनी थकान से आराम खुदा के पास ही मिलने वाला था । अभिनय में सफलता के नुस्खे है तो कई मगर जो अभिनेता-अभिनेत्री नाटकों से फिल्मों में आता है, उसकी बात ही कुछ अलग होती हैं। इरफ़ान भी नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा से प्रशिक्षित- दिक्षित थे। उनकी पत्नी सुपापा भी उन्हें वही मिली थी। कहा जाता है कि जब हमारा कोई सगा हमसे जुदा होता है तो कुछ - कुछ हमें भी अपने साथ ले जाता है। कहने में कोई हर्ज नहीं होना चाहिए कि इरफ़ान बॉलीवुड और दर्शकों से काफी कुछ ले गए।
यदि ऐसा होता तो महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री और पूर्व केंद्रीय मंत्री स्व. विलासराव देशमुख के सुपुत्र रितेश देशमुख यह कहने को मजबूर हो जाते कि आज खुदा का तो बड़ा जफ़ा हो गया,मगर हम लोगों का बहुत बड़ा घाटा हो गया। इरफ़ान के अभिनय कौशल को देखकर ही हॉलीवुड में भारतीय अभिनेताओं की पहचान की सेहत और दुरुस्त हुई थी। उनकी स्टडी में किताबों का जखीरा वैसा ही लगा हुआ था, जैसाकि सैफ़ अली खान, अनिल अंबानी वगैरह के यहाँ लगा रहता है।
सन 1967 में जन्में इरफ़ान की मकबूल भी बड़ी मोहब्बतों से देखी गई। यह फ़िल्म विशाल भारद्वाज ने शेक्सपीयर के मशहूर नाटक मैकवैथ के आधार पर बनाई थी। इस फ़िल्म में ओमपुरी, पंकज कपूर, नसरुद्दीन शाह, पीयूष मिश्र तथा तब्बू जैसे कलाकारों के साथ इरफ़ान ने ऐसा अभिनय किया था, दर्शक उक्त सारे अदाकारों को भूल गए, लेकिन उन्हें इरफ़ान का अभिनय आज भी तरोताजा लगता है। गौर करें कि किसी भी अमर साहित्यिक कृति पर फ़िल्म बनाना जितना रोमांचक होता है, उतना ही रिस्की तथा चैलेंजिंग भी, मगर भारद्वाज के विश्वास की इरफ़ान ने पूरी लाज रखी। फिर लंच बॉक्स, पानसिंह तोमर जैसी फ़िल्म इरफ़ान ने दी। डाकू के रोल में आए इरफ़ान को मानसिंह तोमर मूवी के लिए नेशनल अवार्ड मिला था। जिस तरह की डायलॉग डिलेविरी इरफ़ान की थी, उसमें उनका खुद का एक संवाद बड़ा मकबूल हुआ था - हमारी तो गालियों पर भी तालियां बजती हैं। इरफ़ान ने टीवी के जरिये बॉलीवुड में प्रवेश लिया था।
उन्होंने चाणक्य भारत एक खोज जय हनुमान जैसे हीट सीरियल दिए तो मीरा नायर द्वारा सबसे पहला दिया गया चांस फिल्म सलाम बॉम्बे में छोटे से रोल को भी उन्होंने बड़ा बना दिया था। उन्होंने कुल 30 फिल्में की। राजेश खन्ना का यह संवाद याद दिला दिया कि ज़िन्दगी लम्बी नहीं, चौड़ी होनी चाहिए। उन्होंने हॉलीवुड से रुपये की अपेक्षा ज्यादा डॉलर कमाए। इरफ़ान को एक फिल्म की शूटिंग के दौरान जिसका नाम हैदर था। उसमें उपद्रवी उनकी एक मुस्कराहट के कायल हो गए। फिल्म पीकू में उन्होंने अमिताभ को टक्कर दी थी और अमिताभ को मानना पड़ा था की भाई अभिनेता तो कमाल का है। यूँ तो उनके जाने से उनका हर फैन उदास है, लेकिन उन्हें चाहने वाला युवा वर्ग अंदर बाहर से बार-बार चीख रहा है। उ
नकी हीट फिल्में थी हासिल, दे नेम सेक वगैरा। उन्हें कई पुरुस्कार मिले। इरफ़ान ने साबित कर दिया वे कमर्शिल और सामानांतर फिल्मों के बेताज बादशाह हैं। उनके बारे में उनके साथी ही कहते हैं कि वे चलते फिरते नाटक थे, अदाकारी और फन के मायने बदलने वाले थे। इसलिए पंकज त्रिपाठी, मनोज वाजपेयी, नवाजुद्दीन सिद्दीकी जैसे अदाकारों ने यह तक कह दिया कि खुद को गढ़ने वाला और अभिनय को नई तबो आब देने वाला ऐसा अदाकार कुछ दशकों में तो नहीं होगा। हो सके तो उनकी तानसिंह तोमर या मकबूल फिल्म जरूर देखें। ऐसा करने से आपकी श्रद्धंजलियाँ ज्यादा पुर असर हो जाएगी। (लेखक के अपने विचार एवं अध्ययन है)
"तुम ये कैसे जुदा हो गए, हर तरह हर जगह हो गए"
नवीन जैन (इंदौर)