भारतीय धर्म दर्शन 


(डे लाइफ)


इस देश में धर्म और दर्षन की एक प्राचीन परम्परा रही है। यहां की संस्कृति धार्मिक संस्कृति है। यहां का कण-कण धर्म से अनुप्राणित है। वेद धार्मिक आस्था के आधार है। यहां का आचार-विचार धर्ममूलक है। यह संस्कृति हमें मानवता का संदेश देती है। धर्म वस्तुतः आस्था का विषय है। धर्म की भी अनेक परिभाषाऐ की गई है। आत्म शुद्धि साधनं धर्म इस परिभाषा के अनुसार धर्म वह तत्व है। जिससे आत्मा शुद्ध होती है। आत्मा मूल रूप से ज्ञानस्वरूप है। वस्तु का स्वभाव ही धर्म कहलाता है। जो इतर चीजें होती हैै वह अधर्म है। जैसे पानी का गुण है शीतलता, अग्नि का धर्म है उष्णता। जब उनके गुण को विकृत किया जाता है तो उनका स्वरूप बदल जाता है। जब वह अपने स्वरूप में रहता है तो वह तत्व धर्म तत्व कहलाता है।


धर्म व्यक्ति को व्यक्ति से जोड़ता है। एक उदाहरण के द्वारा इसको समझा जा सकता है। धर्म को सम्प्रदाय की जंजीर से बांध दिया जाता है तो धर्म विकृत हो जाता है। भारत में अनेक धर्म है। जैन, बौद्ध, सिक्ख, ईस्लाम, पारसी और हिन्दू धर्म। ये सब सम्प्रदाय है। सबकी अपनी-अपनी पूजा पद्धति और उपासना पद्धति है और उस पूजा पद्धति के अनुसार धर्म को संकीर्ण कर दिया जाता है। धर्म मानव को मानव से जोड़ता है। धार्मिक क्रियाकलाप के आधार पर मानव अपने आस्था को प्रकट करता है। सुख-दुःख, मोक्ष इत्यादि तत्वों को प्राप्त करता है। श्रीमद् भगवद्गीता जो कि हिन्दू धर्म का एक प्रसिद्ध ग्रंथ है इसमें आत्मा की अजरता अमरता का बड़ा दार्षनिक विवेचन किया गया है। इसमें बताया गया है कि शरीर नश्वर है और आत्मा अजर-अमर। जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर नये वस्त्रों को धारण करता है वैसे ही आत्मा पुराने शरीर को त्यागकर नये शरीर को धारण करता है। शरीर पंचभूतात्मक है। आत्मा इससे परे है। शुद्ध आत्मा ज्ञान दर्षन और चारित्र से युक्त हैै। आत्मा अरूपी है किन्तु जब यह शरीर को धारण करती है तो यह रूपी कहलाने लगती है। 



धर्म के पश्चात् दर्शन भारतीय संस्कृति का एक महत्वपूर्ण विषय है। दर्षन का साधारण अर्थ होता है- देखना, श्रद्धा करना। हम जो देखते है वही सब कुछ नहीं है। हम केवल स्थूल चीजों को देखते है, लौकिक जगत को देखते है और इसी को सब कुछ मान लेते हैै। इससे परे पारमार्थिक या आध्यात्मिक जगत है। यही वास्तविक तत्व है। हमारे देश के ऋषियो, महर्षियों ने लौकिक जगत को छोड़कर आध्यात्मिक जगत के रहस्य को जानने का प्रयास किया उनका चिन्तन बहुत ही सूक्ष्म रहा है। आत्मा, जीव, जगत, ईश्वर, ब्रह्म आदि उनके चिन्तन के विषय रहे है। यह जीव क्या है कहा से आता हैै जगत का स्वरूप क्या है, ईश्वर और ब्रह्मतत्व क्या है, मोक्ष का स्वरूप क्या है इत्यादि गंभीर विषयों पर भारतीय दर्शन में चिंतन और मनन हुआ है।


भारतीय संस्कृति अहिंसा प्रधान संस्कृति रही है। मन, वचन और काया से किसी को कष्ट न देना इसके मूल में है। आत्मनः प्रतिकूलानि परेशां न समाचरेत् अर्थात् जो हमारे प्रतिकूल है उसे दूसरे के साथ भी नहीं करना चाहिए। इस दर्शन में पंचमहाव्रतों का केन्द्रीय स्थान है। अहिंसा, सत्य, अचैर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह भारतीय दर्शन के मूल मंत्र है। अहिंसा परमो धर्मः अर्थात् अहिंसा ही सर्वाेत्कृष्ट धर्म है। किसी भी प्राणी का प्राणवियोजन न करना अहिंसा है। सत्य, मन, वचन और काया से समान व्यवहार करना सत्य है। अचैर्य किसी भी वस्तु को बिना दिये ग्रहण न करना अचैर्य है। ब्रह्मचर्य एक महत्वपूर्ण व्रत है।


उपस्थेन्द्रिय विषयक संयम ब्रह्मचर्य कहलाता है। अपरिग्रह शोषण मुक्त समाज के लिए आवश्यक है। आधुनिक युग में लोग आवश्यकता से अधिक संग्रह कर रहे है। जिसके कारण अनेक समस्याएं पैदा हो रही है। मनुष्य स्वार्थी होता चला जा रहा है। अगर हमें एक मकान की आवश्यकता है तो एक मकान ही बनाये जिससे दुसरों का अहित न हो, किन्तु आज देखा यह जा रहा है कि लोग बड़े-बड़े शहरों में अनेक मकान बनाकरके परिग्रह को बढ़ावा दे रहे है। लखपती-करोड़पति बनना चाहता है और करोड़पति अरबपति बनना चाहता है जिससे संग्रह को बढ़ावा मिल रहा है। इस पद्धति पर जब तक रोक नहीं लगेगी तब तक संकट के बादल मंडराते रहेंगे। इच्छा तो आकाश के समान अनन्त होती है। उसकी पूर्ति कभी नहीं की जा सकती। मृगतृष्णा के समान अंत में परिग्रह मानव को नष्ट ही कर देगा। स्वार्थ, परार्थ और परमार्थ की दृष्टि से हमें चिन्तन करना चाहिए। स्वार्थ से मतलब सब कुछ मेरे लिए है मेरे परिवार के लिए है। यह भावना उचित नहीं है।


हमारी संस्कृति यह सिखाती है कि स्वंय जीयों और दूसरों को भी जीवित रहने दो। तभी चिंतन धारा आगे बढ़ सकती है। स्वार्थ से परे परार्थ की भावना है। परार्थ से तात्पर्य है कि सभी वस्तुओें का उपभोग मिल जुलकरके करें। इसमें सामाजिकता की भावना प्रबल रहती है। इससे भी परे परमार्थ की चेतना है। परमार्थ की चेतना जागृत हो जाने पर सब कुछ हेय प्रतीत होने लगता है। परमार्थ की भावना मोक्ष की भावना है। मानव के जीवन का अंतिम लक्ष्य मोक्ष है। अपने स्वरूप में स्थित हो जाना ही मोक्ष कहलाता है। दूसरे शब्दों में आत्मा का परमात्मा में विलय मोक्ष है। जीवन का अंतिम उद्देश्य मोक्ष है। मोक्ष के स्थित में कामनाओं का त्याग हो जाता है और आत्मा राग-द्वेष मुक्त हो जाती है। इस स्थित में सच्चिदानन्द ब्रह्म की अनुभूति होती हैै (लेखक के अपने विचार हैं) 



प्रोफेसर (डॉ.) सोहन राज तातेड़ 
पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्विद्यालय, राजस्थान