जैन दर्शन के सिद्धांत



विश्व में अनेक दर्शन प्रचलित है। उनमें से जैन दर्शन भी एक महत्वपूर्ण दर्शन है। इस दर्शन का विकास भारत भूमि पर हुआ। जैन दर्शन के प्रमुख सिद्धांतों में जगत मीमांसा आत्मवाद, कर्मवाद और मोक्ष इत्यादि प्रमुख है। इन्हीं के आधार पर जैन दर्षन के स्वरूप को स्पष्ट किया जा रहा है। सम्पूर्ण सृष्टि को देखकर प्रश्न  उठना स्वाभाविक है कि इसका स्वरूप क्या है? इसका संचालन कौन करता है? मैं कौन हूं? कहां से आया हूं? इत्यादि अस्तित्व संबंधित प्रश्न स्वयं ही मन में उत्पन्न हो जाते है। जहां तक जगत का प्रश्न है जैन दर्शन के अनुसार जगत शाश्वत है। जगत का नियंता कोई ईश्वर नहीं बल्कि छः द्रव्यों के आधार पर यह जगत् स्वयं संचालित होता है। 


द्रव्य के मुख्यतः दो भेद है-जीव द्रव्य और अजीव द्रव्य। जीव या आत्मा जैन दर्शन में एक स्वतंत्र द्रव्य है। इसका लक्षण है-चेतना। चेतना को जीव का असाधारण धर्म बतलाया गया है-चेतना लक्षणो जीवः। अजीव द्रव्य वे द्रव्य हैं जिसमें चेतना नहीं होती। अजीव द्रव्य के पांच भेद है- पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल। यह विश्व छह द्रव्यों की रचना है। इसमें दो प्रकार के जीव है- 1. मुक्त जीव 2. संसारी जीव। मुक्त जीव को परमात्मा, ईश्वर, सर्व शक्तिमान ,सिद्ध, शु़द्ध जीव, आदि नाम से जाना जाता है। इन मुक्त जीवों के अतिरिक्त सभी जीव संसारी जीव है। जैन दर्शन में जीव शब्द आत्मा और शरीर दोनों के सन्दर्भ में है। यहां पर जीव का संबंध सांसारिक जीवों के लिए प्रयुक्त किया जा रहा है। जैन दर्शन के अनुसार संसार में जितने शरीर हैं उतने जीव हैं। जैन दर्शन में जीव का लक्षण, उपयोगमय, कत्र्ता, स्वदेह परिणामी, संसारी रूप में बताया गया है। जीव का उपयोग लक्षण चेतना है।



विश्व में कोई भी ऐसा जीव या प्राणी नहीं है जिसमें चेतना विद्यमान न हो अर्थात अस्तित्व के रूप में प्रत्येक जीव चेतनयुक्त है। समस्त जीवों में विकास की क्षमता समान होती है लेकिन पुरुषार्थ के कारण ही कम विकसित या अधिक विकसित जीव दिखाई देते हैं । सम्पूर्ण संसार जीवों से भरा है। संसार में जन्म लेने वाला जीव अज्ञान के कारण ऐसे कर्मों का अर्जन करता है जिसके कारण उसे बंधन ग्रस्तता प्राप्त होती है इसलिए जैन दर्शन में प्रत्येक जीव अपने कर्मो का स्वयं जिम्मेदार है और कर्म के परिणामों की भी जिम्मेदारी स्वयं उसकी है यह जीव का कत्र्ता-भोक्तापन की विशेषता है। कत्र्तृत्व व भोक्तृत्व संसारी जीव में ही पाया जाता है। अजीव दव्यों में पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्य आते है। सृष्टि की रचना इन्हीं द्रव्यों के सहयोग से हुई है। जैन दर्शन में संसार को अनादि और अनन्त मानते हुए जगत को यथार्थ सत्ता के रूप में परिभाषित किया गया है। जगत स्वयं में स्वतंत्र अस्तित्ववान है। यह अपनी सत्ता के लिए किसी चेतन या ईश्वर तत्व पर आधारित नहीं है।


जैन दर्शन में भौतिक वस्तुओं की सत्ता को स्वीकार करते हुए उसका नामकरण पुद्गल के रूप में किया है। पुद्गल का सामान्य अर्थ है भौतिक वस्तु। पुद्गल का लक्षण करते हुए इसे जैन दर्शन में रस, गंध और स्पर्शवान कहा गया है। जिस द्रव्य में उपरोक्त विशेषताएं मिलती हैं उसमें एक निश्चित आकार भी अवश्य होता है इसलिए पुद्गल रूपी पदार्थ है। पुद्गल एक भौतिक तत्व है जिसमें विकास व ह्रास जैसा परिवर्तन घटित होता है। अतः जो द्रव्य पूरण व गलन द्वारा विविध प्रकार से परिवर्तित होता रहता है वह पुद्गल है। पुद्गल मुख्यतः दो प्रकार से समझा जा सकता है-परमाणु व स्कंध। पुद्गल का अंतिम सूक्ष्मतम भाग जिनका पुनः विभाजन न किया जा सके वह अणुरूप है। धर्म द्रव्य जीव तथा पु्द्गल को गमन कराने में उदासीन सहायक होता है। जैसे पानी में चलती हुई मछली को चलने में धर्म द्रव्य उदासीन रूप से सहायता करता है, परन्तु ठहरी मछली को पानी चलाता नहीं है, वैसे ही गमन करते हुए जीव और पुद्गल को गमन करने में धर्म द्रव्य सहकारी होता है। जो द्रव्य लोक में स्थितशील सभीद्रव्यों जीव और पुद्गलो की स्थिति में अनन्य सहायक होता है वह अधर्म द्रव्य है इसके बिना किसी भी प्रकार की स्थिति संम्भव नहीं है। ठहरते हुए पथिक को वृक्ष की छाया ठहरने में उदासीन सहायक है।


जैन दर्शन में खाली स्थान को आकाश कहते है। आकाश सभी वस्तुओं को आश्रय  प्रदान करता है। इसे एक सर्व व्यापक अखण्ड, अमूर्त, अवर्ण द्रव्य के रूप में स्वीकार किया गया है। यद्यपि आकाश एक अखण्ड द्रव्य है, परन्तु प्रदेशों की अपेक्षा अनन्त प्रदेश,खण्ड है, इसके मध्यवर्ती कुछ भाग में ही सब द्रव्य अवस्थित है, इस भाग का नाम लोक है, शेष भाग को अलोक कहते हैं। काल शब्द से सभी परिचित हैं। प्रायः काल,समय, को मापने के लिए वर्ष, महीने, दिन, पहर, घन्टे, मिनिट, सेकेंड, मुहूर्त, क्षण, पल आदि का प्रयोग होता है। प्रत्येक सचित, अचित द्रव्यों की स्थिति भी समय के अनुसार जानी जाती है, अर्थात् काल को जाने बिना जीवन ही अधूरा है। विश्व के प्रत्येक धर्म, दर्शन और विज्ञान का मूल आधार काल ही है। इसलिए सभी धर्म-दर्शन और विज्ञान ने अपने-अपने ढंग से काल का वर्णन बड़े विस्तार से किया है। इस प्रकार जैन दर्शन में सभी सिद्धांतों का बड़ा वैज्ञानिक विवेचन किया गया है। सिद्धांत पक्ष के साथ-साथ आचार पक्ष भी जैन दर्शन का सबल है। (लेखक के अपने विचार हैं)



प्रोफेसर (डॉ.) सोहन राज तातेड़ 
पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्विद्यालय, राजस्थान