तिलक राज सक्सेना (जयपुर)
अपने आप में सम्पूर्ण सृष्टि को समाहित करने के लिए यदि कोई एक अक्षरिय शब्द है तो वह है "मां"।
सही भी है क्योंकि ना तो "मां"के बिना सृष्टि का निर्माण संभव है और ना ही पोषण।
"मां" अपनी संतान का पोषण भी करती है और रक्षा भी। बात " मां" की हो रही है,चाहे वह किसी भी योनि में हो पशु ,पक्षी , कीट या मानव बहुत से उदाहरण मिल जायेंगे जहां दीखने में कमजोर "मां"ने अपनी संतान की रक्षा के लिए अपने से हज़ार गुना शक्तिशाली शत्रु से टक्कर ले कर अपनी संतान की रक्षा की है।
स्थितियां चाहे कितनी भी विषम हों,अपनी संतान का पोषण और रक्षा करने की अद्भुत क्षमता हर "मां" को प्रकृति द्वारा प्रदत्त है, और हो भी ना क्यों प्रकृति स्वयं एक शक्तिस्वरूपा नारी है।
"मां" ही बच्चे की प्रथम गुरु है जो उसे गर्भावस्था से ही संस्कारित करती है,बच्चा प्यार करना भी "मां" से ही सीखता है तो अन्य सभी संस्कार भी।
"मां" से मिले संस्कार ही बच्चे के भावी जीवन का आधार बनते हैं।
शायद इसी कारण आदि काल से ही महिला शिक्षा के महत्व को समझा गया ,यहां हमारा शिक्षा से अभिप्राय आज की उस शिक्षा से कदापि नहीं है जिसमें सिर्फ़ और सिर्फ़ "कैरियर तथा स्वयं की एक अलग पहचान" बनाना ही मुख्य ध्येय होता है।
युग कोई भी रहा हो "मां"का स्थान सर्वोच्च रहा है और आगे भी सर्वोच्च ही रहेगा।
आज के बदलते परिवेश में "मां" की भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो गई है जहां बच्चे अपनी स्वतंत्रता को स्वछंदता मान बैठे हैं तथा अपनी "मां" के प्यार और उसके समर्पण को उसकी बेवकूफी ,किंचित वो भूल बैठे हैं कि वो अपनी " मां" को बेवकूफ़ नहीं बना रहे बल्कि स्वयं के जीवन से खिलवाड़ कर रहे हैं।
और यह भी सत्य ही है कि उनको यदि कोई इस स्थिति से बाहर निकाल सकता है तो वो केवल "मां" है ,इसके लिए फिर भले ही कठोर रूप क्यों नहीं धारण करना पड़े।