मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा कैसे हो


प्रोफेसर (डॉ.) सोहन राज तातेड़ 
पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्विद्यालय, राजस्थान


मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा कैसे हो इस विषय पर चिंतन बहुत जरूरी है। शिक्षाविद् प्रोफेसर (डाॅ.) सोहनराज तातेड़ ने समाज में गिरते हुए मूल्यों की पुनर्प्रतिष्ठा के लिए न्यूज 24 पुनरूत्थान कार्यक्रम में एक गंभीर चिंतन प्रस्तुत किया है। मानव एक बौद्धिक प्राणी है। वह समाज में रहता है और समाज के सुख दुःख अनुकूल प्रतिकूल परिस्थितियों से प्रभावित होता है। मानव और पशु में अंतर यह है कि मानव ज्ञेय, हेय और उपादेय को जानता है। किन्तु पशु में बुद्धि नहीं होती। इसलिये वह इन तत्वों को नहीं जानता। मानव और पशु में इन्द्रियां समान है। किन्तु बौद्धिकता ही एक ऐसा तत्व है जो मानव और पशु में अंतर करता है। 


“परस्परोपग्रहोजीवानाम्“ से लेकर ’जियो और जीने दो’ का सिद्धान्त ही मानवीय मूल्य की मुख्य धुरी है, जिसमें मानवीय मूल्यों का पर्याप्त पोषण किया गया है। इसका मुख्य उद्देश्य है इसी जीवन में मानव का कल्याण। आचार शुद्धि, व्यवहार शुद्धि और विचार शुद्धि के आधार पर मनुष्य मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा कर सकता है। मानव स्वभावतः विवेकशील है। विवेकशीलता का अभिप्राय है प्रत्येक व्यक्ति विचार करता है, तर्क करता है और विभिन्न घटनाओं में कार्य-कारण का संबंध ढूढ़ता है। मानव की यह विवेकशीलता क्रमिक भौतिक विकास से निर्मित होती है न कि किसी अलौकिक सत्ता की दया से। न्याय, आदर्श, समता, सत्य, सौन्दर्य सब कुछ मनुष्य की विवेकशीलता के लक्षण हैं।  मनुष्य विवेकशील होने के कारण उसका स्वभाव नैतिक भी होता है, क्योंकि नैतिकता, विवेकजनित होती है। वास्तव में मनुष्य नैतिक इसलिए है, क्योंकि वह विवेकी है। विवेकशील व्यक्ति ही यह सोच सकता है कि जो बात मुझे अच्छी या बुरी लगती वह सभी व्यक्तियों को अच्छी या बुरी लगती होगी। अतः तदनुरूप हमें व्यवहार करना चाहिए। यही विवेक, नैतिकता का प्रारम्भ बिन्दु है। अतः नैतिकता का स्रोत मानव स्वभाव में विद्यमान विवेकशीलता से है।



स्वतंत्रता मानव समाज का सर्वोच्च मूल्य होना चाहिए, क्योंकि किसी भी समाज की उन्नति या प्रगति देखने की यही शर्त है कि उस समाज में व्यक्ति को कितनी स्वतंत्रता प्राप्त है। स्वातंत्र की खोज तथा सत्यान्वेषण जैसी जन्मजात प्रवृति को उचित दिशा में समर्थन मिलने पर मानव पर्याप्त मात्रा में स्वतंत्र हो सकता है। मानव अपने स्वतंत्रता का सदुपयोग करते हुए इतिहास का निर्माण करता है। वह अपनी सृजनात्मकता द्वारा उपलब्ध सामग्री का समृद्ध समाज के निर्माण की दिशा में जो उद्देश्यपूर्ण प्रयत्न करता है वही इतिहास है। इतिहास निर्माता होने के साथ मानव में सहकार की प्रवृति भी विद्यमान है। यदि मानवीय स्वभाव में सहकार की प्रवृति नहीं पायी जाती तो विभिन्न प्राकृतिक एवं अन्य विपदाओं का सामना मानव समाज नहीं कर पाता। परिणामतः वह बहुत पहले ही नष्ट हो चुका होता, किन्तु मानव में सहकार प्र्रवृति ने विपरीतताओं पर सदैव विजय प्राप्त कर ली। अतः सहकार भी मानव व्यक्तित्व का एक अनिवार्य अंग है। मानव का लक्ष्य एक ऐसे विश्व का निर्माण करना है जिसमें मनुष्य मात्र की समानता, व्यवहारतः स्वीकृत है। अतः मानवतावाद जीवन में मूल्यों के अभिप्राय को नए सिरे से पारिभाषित करता है।


मानवतावाद के अनुसार मूल्य, जीवन के प्रति विवेकजनित ऐसा अभिज्ञान है जो इस लोक के अधिकतम कल्याण को संन्दर्भ मानता है। सभी व्यक्ति वास्तविक स्वतंत्रता का उपयोग कर सके, लोगों को उपयुक्त भोजन, वस्त्र व आवास की सुविधाएँ प्राप्त हो सके, मानव स्वार्थ से उपर उठकर परार्थवादी आचरण आत्मसात करे, इसके लिऐ मूल्य की बहुत बड़ी भूमिका है। स्वतंत्रता, समानता एवं विश्वबंधुत्व जनित जीवन मूल्य स्वीकार करने पर ही मानवतावाद सफल सावित हो सकता है। मूल्य, मनुष्य मात्र के लिए उच्चतम आदर्श है। मानवता की सेवा, राज्य, सम्पति, तप, योग इन सबसे बड़ी है। प्रत्येक व्यक्ति को जीने के लिए स्वतंत्रता, रहने के लिए समानता और विकास के लिए सहयोग यह मानव का जन्मसिद्ध अधिकार है। मनुष्य अपने व्यक्तिगत संतोष, सतत आत्मविकास तथा अन्य सामाजिक क्रियाओं को करता हुआ उत्तम जीवन यापन कर सकता है। समानता, सहयोग, जैसे मूल्य मनुष्य के व्यक्तित्व के एक पहलू हैं।


यदि मानव के पास स्वतंत्रता, समानता, सहयोग आदि जीवन मूल्य नहीं होते तो मनुष्य कभी भी प्राकृतिक विपदाओें या विपरीतताओं का सामना नहीं कर सकता। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह शाश्वत मानवीय मूल्य है। सर्वभूतेषु संयमः अहिंसा अर्थात् सभी प्राणियों के प्रति संयम भाव रखना अहिंसा है। कायिक वाचिक और मानसिक एकरूपता सत्य है। बिना दिये किसी वस्तु को ग्रहण न करना अस्तेय है। स्वदारसंतोष ब्रह्मचर्य है। आवश्यकता से अधिक ग्रहण न करना अपरिग्रह है। आज के विश्व में सबसे बड़ी समस्या परिग्रह की है। इसी परिग्रह के कारण ही मनुष्य को दुःख उठाना पड़ता है।


संयमी व्यक्ति परिग्रह नहीं करता और जीवनभर सुखी रहता है। इच्छाएं आकाश के समान अनंत है। इच्छाओं की पूर्ति कभी संभव नहीं है। एक इच्छा की पूर्ति हुयी की दुसरी तैयार खड़ी है। जीवन का मूल प्राप्तव्य वह भूल जाता है। उसे यह ज्ञान ही नहीं होता कि एक दिन सबकुछ यही छोड़कर आदमी को जाना है। मानव के साथ केवल उसका धर्म ही जाता है। बाकी सभी चीजें यही छूट जाती है। अतः आत्म ज्ञान ही सबसे बड़ा मानवीय मूल्य है और वही प्राप्तव्य है। (लेखक के अपने विचार है)