परदेशी अपना गाँव माँगता है

आज के हालात पर कविता 



अपने देश में, परदेशी, अपना गाँव माँगता है
गाँव बहुत दूर है पर वो जाना चाहता है
बची खुची, जिन्दगी बचाना चाहता है
मुश्किलो की घड़ी में वो अपनापन चाहता है


अपने पैरों के बल वो खड़ा होना चाहता है
भूख प्यास, मुश्किल, बाधा, सब को हराना चाहता है
मुकाबला कड़ा है, पर वो जीतना चाहता है
अपने गाँव अपनो से मिलना चाहता है


अपने हौसले के संग, कुछ रोटियां बांधता है
बच्चो के मन को बहलाना चाहता है
प्रकृति के प्रकोप से बचना चाहता है
अपनो के संग कल जीना चाहता है


अपने ख्वाबो में सुनहरी सुबह सोचता है
थके हुए कदमों की थाह जोहता है
धरती माँ के आंचल को जैसे ओढ़ता है
स्याह, अन्धेरी रात से फिर मौन चीख़ता है


क्या हुआ? कैसे हुआ? क्यो हुआ?
भाग्य के खेल में वो हार गया
कोई दर्द के पार गया, कोई नए दर्द से आ मिला


ना यह समझ सका, न  वो समझ सका
कोई गति से गया, कोई नियति से गया


ब्याथित मन बस यही पूछता रहा.....
दर्द का सागर दर्द में डूबता रहा...... 


 



लेखिका: ममता सिंह राठौर