प्रोफेसर (डॉ.) सोहन राज तातेड़
पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्विद्यालय, राजस्थान
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आत्मतत्व को कैसे जाना जाये ? इसके लिए हमारे पूर्वजों ने हमें एक क्षेत्र दिया योग का, ध्यान का। ध्यान के क्षेत्र में अनेक ध्यान पद्धतियां प्रचलित है। जिनमें एक का नाम है प्रेक्षाध्यान। प्रेक्षा शब्द ‘ईक्ष’ धातु से बना है। इसका अर्थ है देखना। गहराई में उतर कर देखना। प्रेक्षा में चेतना के स्थूल स्तर से सूक्ष्म स्तर तक आंतरिक घटनाओं को देखा जाता है। प्रेक्षाध्यान का ध्येय है आत्म साक्षात्कार, स्वयं का ज्ञान। ‘संपिक्खए अप्पगमप्पएणं’ अर्थात् आत्मा के द्वारा आत्मा की संप्रेक्षा करना। पे्रक्षाध्यान के आठ चरण हैं-
कायोत्सर्ग - कायोत्सर्ग आत्मदर्शन की प्रक्रिया है। शरीर का शिथिलीकरण है। यह लगने लगता है कि शरीर भिन्न है और चैतन्य भिन्न है। कायोत्सर्ग आत्मा तक पहुचने का द्वार है, आत्मा की झलक मिलती है तो कायोत्सर्ग अपने आप सध जाता है। कायोत्सर्ग तनाव विसर्जन की प्रक्रिया है।
अन्तर्यात्रा - प्राण के सारे केन्द्र मस्तिष्क में है। प्राणधारा के दो मार्ग है, उसका एक बाह्य मार्ग है और एक भीतरी। बाह्य मार्ग से प्राण-शक्ति जाती है तो प्रत्येक कोशिका को सक्रिय करती है, हमारे शरीर-तंत्रों को सक्रिय बनाती है। ये हमारे दस प्राण केन्दों को सक्रिय करती है जो जीवन यात्रा को सही ढं़ग से चलाते है। जब हम प्राण-शक्ति के प्रवाहित होने वाले मार्ग को बदल देते है, तब वहां विशिष्ट शक्तियां जाग्रत हो जाती है। सुषुम्ना या मेरूरज्जु के मार्ग से प्राण-शक्ति को ज्ञान केन्द्र में ले जाने का प्रयोग है- अन्र्तयात्रा।
श्वासप्रेक्षा - भारतीय अध्यात्म साधना में श्वास का बड़ा महत्व है। सम्यक् श्वास से रक्त परिसंचरण की क्रिया होती है तथा कोशिकाओं को पुरी मात्रा में आक्सीजन मिलता है तथा रोग-प्रतिरोध शक्ति बढ़ती है। श्वास प्रेक्षा ज्ञाता-द्रष्टा भाव को विकसित करने का सक्षम उपाय है। हमारे चेतना का मूल धर्म है- जानना और देखना, ज्ञाता-भाव और द्रष्टा-भाव। हम जब अपने अस्तित्व में होते है, आत्मा की सन्निधि में होते है तब केवल जानना और देखना ये दो ही बाते घटित होती है किन्तु जब बाहर आते है, अपने केन्द्र से हटकर परिधि में आते है तथा साथ में और कुछ जुड़ जाता है, मिश्रण हो जाता है। मिश्रण होते ही जानना देखना छूट जाता है।
शरीर प्रेक्षा - भारतवर्ष में प्रचलित प्राचीन व आधुनिक सभी साधना पद्धतियों का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष प्राप्त करना है। मोक्ष प्राप्ति का साधन शरीर है। प्रेक्षाध्यान पद्धति में चित्त को सूक्ष्म एवं पटु बनाना शरीर पे्रक्षा का मुख्य प्रयोजन है। शरीर के तंत्रों की व्यवस्थित प्रक्रिया में शरीर पे्रक्षा सहायक है। शरीर का सम्यक् प्रशिक्षण शरीर की स्वस्थता एवं सफलता की दिशा में ले जाता है।
चैतन्य केन्द्र पे्रक्षा - भारत के सभी संप्रदायों के ऋषि-महर्षियों ने शरीरस्थ शक्ति-केन्द्रों, चक्रों, कमलों तथा चैतन्य-केन्द्रों की खोज अपने-अपने ढं़ग से की है। तंत्र शास्त्र और हठयोग में चक्रों का निरूपण है। प्रत्येक मनुष्य में विवेक चेतना अन्तर्निहित होती है। इसका जागरण तब तक नहीं होता, जब तक मनुुष्य अपने चेतन मन के द्वारा केवल बुद्धि और तर्क के आधार पर ही अपनी वृत्तियों की मांग पर विमर्श करता है। वस्तुतः उसकी बौद्धिक और तार्किक-शक्ति पर वृत्तियां इतनी अधिक हावी हो जाती है कि वह उनकी मांग के औचित्य-अनौचित्य का सही निर्णय करने में सक्षम नहीं होता।
लेश्याध्यान - लेश्याध्यान रंगों का ध्यान है। माना जाता है कि जैसे लेश्या के रंग होते हैं वैसा ही व्यक्ति का आभामंडल बनता है। लेश्या अच्छी तथा बुरी दोनों ही प्रकार की होती है। आभामंडल शरीर के चारों ओर सूक्ष्म वलय होता है जिसे सामान्य आंखों से नहीं देखा जा सकता है। लेश्याध्यान में रंगों के द्वारा बुरी लेश्या को अच्छी लेश्या में बदला जा सकता है जिससे आभामंडल भी शुद्ध हो जाता हैै। लेश्याध्यान भाव शुद्धि का प्रयोग है। भाव ही व्यक्ति के व्यवहार का आदि स्रोत है।
अनुप्रेक्षा - अनुप्रेक्षा दो शब्दों से मिलकर बना है अनुप्रेक्षा। अनु का अर्थ होता है बाद में, पीछे और प्रेक्षा का अर्थ है देखना। इस प्रकार अनुप्रेक्षा का अर्थ है प्रेक्षा के परिणामों पर विचार करना। प्रेक्षा में जो सत्य उद्घाटित हो, उसके परिणामों पर विचार करना, मूच्र्छा को तोड़ने वाले विषयों का अनुचिंतन करना अर्थात् प्रेक्षा के पश्चात् मन की मूच्र्छा को तोड़ने वाले विषयों का अनुचिंतन करना अनुपे्रक्षा है। अनुप्रेक्षाएँ अनेक प्रकार की हैं। जैसे-अभय, मृदुता, सत्य, करुणा, प्रामाणिकता, कर्तव्यनिष्ठा, संप्रदाय निरपेक्षता आदि। अनुपे्रक्षा के द्वारा इन मूल्यों को व्यवहार का अंग बनाया जा सकता है।
भावना - व्यक्तित्व भावना को सजाने तथा संवारने में बहुत सहायक होती है। अर्थात् शुभ भावना के द्वारा अच्छे संस्कारों को निर्मित किया जा सकता है। व्यवहार को निर्मल बनाया जा सकता है। अतः प्रेक्षाध्यान में भावना का भी अपना विशेष महत्व है। भावना का अर्थ है कि सब विषयों को छोड़कर चित को केवल एक ही ध्येय पर बार-बार टिकाए रखना। भावना से मन को भावित किया जाता है जिससे भावना के अनुरूप ही परिणाम भी प्राप्त होने लगते हैं। (लेख में लेखक के अपने विचार हैं)