आने वाला समय चुनौतियों से भरा होगा


लेखक : ज्ञानेन्द्र रावत


लेखक वरिष्ठ पत्रकार, विचारक एवं चर्चित पर्यावरणविद हैं। 


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दिल्ली। बीते छह महीनों से देश कोरोना नामक वैश्विक महामारी के चंगुल में है। देश रोजाना कोरोना संक्रमितों के भयावह आंकड़ों से दो चार हो रहा है। रोजाना सत्तर हजार से भी ज्यादा की तादाद में कोरोना संक्रमितों के बढ़ने के समाचार से देशवासी भयभीत हैं। आतंकित हैं। ऐसा लगता है कि जल्दी ही देश इस मामले में अमरीका को पीछे छोड़ देगा। बीते 24 घंटों में 78357 कोरोना रोगियों का आना और 1045 की मौत हालात की भयावहता का जीता जागता सबूत है।  सरकार द्वारा कोरोना के इलाज में हाथ खड़े कर दिये जाने, संक्रमित होने पर अपने-अपने घरों में ही क्वाराइंटाइन होने के लिए कहने और देश की चिकित्सा व्यवस्था की बदहाली के चलते जनता अब सोचने पर मजबूर है कि वह करे तो क्या करे। कैसे इस महामारी से बचे। 


फिर महामारी के बीते छह महीनों के दौरान रोजगार छिनने के चलते बेरोजगार हुए लाखों-करोड़ों के सामने रोजी रोटी के मुंहबाये संकट का वह कैसे सामना करे। कैसे वह अपने बच्चों का पेट भरे। कैसे मकान का किराया अदा करे। कंपनी और फैक्टरी मालिकों ने तो कामगारों की कोई खोजखबर तक नहीं ली है। जैसे उनका मतलब बस कामगारों के बलबूते पैसा कमाना ही है। वह किस हाल में हैं,  मर गये या ज़िंदा भी हैं तो वह कैसे हैं, उन्हें रोटी मिल भी रही है या नहीं, उनको इसकी कतई चिंता नहीं  है। उनका यह कहना कि वह कंगाल हो गये, सरासर झूठ है। बेमानी है। वे यह भूल जाते हैं कि इन्हीं के खून-पसीने की बदौलत वे ऐशोआराम की जिंदगी जी रहे हैं। असलियत में उन्होंने अपनी दौलत का अधिकांश हिस्सा रायल एस्टेट और दूसरे धंधों में लगा रखा है। इसलिए वे बेफिक्र हैं। सच्चाई यह है कि कोरोना के बहाने उन्होंने कर्मचारियों को मार्च महीने से तनख्वाह तक नहीं दी और अब उनसे पूरी तरह मुंह मोड़ लिया है जैसे कि वे उनको जानते तक नहीं हैं।


दुखद यह कि सरकार ने भी इस ओर सोचना तक मुनासिब नहीं समझा। ऐसे हालात में बेरोजगारी के चलते भुखमरी का सामना कर रहे लाखों मजदूरों-कर्मचारियों का पुरसा हाल कौन है। वे किससे अपना दुखड़ा रोयें, किससे भीख मांगें, उनको तो कोई उधार तक नहीं  देता। शहर छोड़ गांव गये थे वह लेकिन वहां भी काम न मिलने से वे परेशान हैं। घर वाले भी उनसे अब मुंह मोड़ रहे हैं। उनके सामने अपने परिवार के पेट भरने की सबसे बड़ी समस्या है। इसका कोई इलाज उनको दिखाई नहीं देता। सबसे बड़ा सवाल तो यह है। सरकार तो दावे करती नहीं थकती कि हमने लाखों-करोड़ों को राहत दी, अनाज दिया लेकिन उसने कभी यह जानना गवारा नहीं किया कि वह राहत और अनाज कितनों को नसीब हुआ भी कि नहीं । आखिर राहत दी गयी तो क्या कारण है कि लाखों परिवार भूख से बेहाल क्यों है। आश्चर्य तो यह है कि अब तो सरकार ने इस बाबत बात  करना ही बंद कर दिया है।



भूख से बेहाल मजदूर कूड़ेदान के पास पड़ा खाना खाने को मजबूर : फोटो साभार 


हालात गवाह हैं और यह कटु सत्य भी है कि झूठ की आंधी के सामने यदि सच कितना भी तनकर भी खड़ा हो जाये, तो वह दिखाई ही नहीं ​देगा। कहते हैं कि सौ झूठ सच को छुपा देता है। बिलकुल सही है। आजकल देश की जो हालत है, उसमें यही कहावत सही साबित हो रही है। लेकिन यह भी कड़वी सच्चाई है कि झूठ की सबसे बड़ी कमजोरी यह होती है कि वह ज्यादा दिन तक टिकता नहीं है। एक न एक दिन उसका सच सबके सामने उजागर होकर ही रहता  है। सच की ताकत लाख छुपाओ, वह छिपती नहीं है। 


यही हाल देश की जीडीपी का भी है। असलियत यह है कि जीडीपी के सही आंकड़े जो अब तक झूठे दावे कहें या झूठ के हाहाकार के जंगल में दबे हुए थे, वे अब बाहर आ चुके हैं। देखा जाये तो 2019 के चुनाव के आसपास बेरोजगारी 45 साल के मुकाबले चरम पर थी और देश की अर्थव्यवस्था कई तिमाहियों से लगातार नीचे की ओर गिरती चली जा रही थी. लेकिन सरकार इस ओर ध्यान देने के बजाय वह अपने विजय उत्सव में ही मशगूल थी।अर्थ व्यवस्था किस तेजी से गिर रही है, इसकी किसी को चिंता ही नहीं थी। वह तो 5 ट्रिलियन डॉलर की इकोनॉमी का ढिंढोरा पीटने में इस कदर मशगूल थी कि उसे और कुछ दिखाई ही नहीं दे रहा था।


जबकि उस वक्त भी कुछ लोग चिल्ला -चिल्ला कर कह रहे थे, सरकार को चेता रहे थे कि हर सेक्टर में ग्रोथ ऐतिहासिक तौर पर निचले पायदान पर पहुंच गयी है। आखिर ये कैसे हुआ। यह कैसे मुमकिन है? लेकिन दुखदायी बात यह है कि उन चेतावनियों पर किसी ने ध्यान ही नहीं दिया। विडम्बना देखिए कि उस दौरान देश का मीडिया 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था का शोर मचाने में ही व्यस्त था। उसे और कुछ न दिखाई दे रहा था और न ही किसी को और कुछ सोचने ही दे रहा था। यही तो इस सरकार की खासियत है कि जैसा वह चाहते हैं, मीडिया वही रट्टू तोते की तरह रटता रहता है जब तक कि ऊपर से उस पाठ को फिर  रटने की मनाही न हो जाए। 



राहत सामग्री के बोझ से दबी राहत बांटते उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ : फोटो साभार


हुआ यह कि सरकार की कामयाबी कहें या विकास के झुनझुने के बीच बेरोजगारी, किसानों की आत्महत्याओं, जीडीपी, निर्माण, खनन, गरीबी रेखा आदि से जुड़े सभी मामलों के आंकड़े बड़े ही बेहतरीन तरीके से छिपा दिये गए। सबसे बड़ी खासियत की बात यह रही कि अब वही सरकार वह सब बताने को मजबूर हुई है जबकि सब ध्वस्त हो चुका है, तबाह हो चुका है और हमारी विकास दर 50 साल पीछे चली गई है। यह गर्व की बात नहीं  है क्या? 


गर्व की बात तो यह भी है कि अब सरकार कोरोना के बहाने यह बताना चाह रही है कि ये ‘एक्ट आफ गॉड’ है। लेकिन गौरतलब यह है कि देश में कोरोना आने से पहले ही हम 45 साल में सबसे ज्यादा बेरोजगारी और करीब 3 फीसदी की जीडीपी का सामना कर रहे थे। दरअसल कोरोना के चलते जो भी किया गया, वो तो किया ही, उसे यदि दरकिनार कर भी दें लेकिन असलियत में यह ‘एक्ट आफ गॉड’ तो कहा नहीं जा सकता है, इसे सही मायने में यदि ‘एक्ट आफ फ्रॉड’ कहें तो कुछ भी गलत नहीं  होगा। 


विचार करने वाली अहम बात  यह है कि जब आप देश में दुनिया का सबसे सख्त लॉकडाउन लागू ​करने जा रहे थे, तब आपने परिणामों के बारे में क्यों नहीं सोचा जो बेहद जरूरी था। लेकिन कहते हैं बहुमत का नशा सोचने- विचारना की शक्ति कहें या क्षमता खो देता है।  बिलकुल यहां वैसा ही हुआ। उस समय तो देश के विचारवान, विषय विशेषज्ञ सरकार के सामने चिल्लाते रहे, चेताते रहे, चिट्ठियां लिखते रहे लेकिन सरकार को उनकी बात न सुननी थी और सच यह भी है कि उसने उनको सुना भी नहीं । आखिर उसका हश्र क्या हुआ? नतीजा सबके सामने है। उसका दुष्परिणाम देश आज भुगत रहा है। आज हकीकत यह है कि भारत में हर दिन दुनिया में सबसे ज्यादा कोरोना के केस दर्ज हो रहे हैं।


सोचने वाली बात तो यह है कि परिवार में भी यदि कोई मसला आता है तो सभी से सलाह मशविरा कर ली जाती है और जब बात देश के 135-140 करोड़ लोगों  की हो तब तो खासतौर से विषय के जानकार से सलाह लिया जाना चाहिए। और जब ऐसा नहीं किया जाता तब उसका परिणाम देश को भुगतना ही पड़ता है। जाहिर है तब यही होता है, जो अब हुआ है। असलियत में कोई भी जल्दबाजी में लिया कड़ा फैसला तबाही का कारण बनता है। इसमें दो राय नहीं। इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता। सच्चाई यह भी है कि हमने कड़े फैसले की तारीफ करना सीख लिया है। बीते बरस इसके जीते-जागते सबूत हैं। नोटबंदी, जीएसटी और दुनिया के सबसे बड़े और सख्त लॉकडाउन, यह तीन  कड़े फैसलों ने ही हमें 50 साल पीछे धकेल दिया है। इसे कोई माने या ना माने लेकिन हकीकत तो यही है। देश के विकास का यह तो एक नमूना भर है।


विडम्बना देखिए जो काम पंडित जवाहरलाल नेहरू से लेकर लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, मोरारजी भाई रणछोड़जी भाई देसाई, चौधरी चरण सिंह, राजीव गांधी, विश्व नाथ प्रताप सिंह, पी. वी. नरसिम्हा राव, एच. डी. देवेगौड़ा, इंदर कुमार गुजराल नहीं  कर पाये, वह काम हमारे 56 इंच सीना वाले प्रधानमन्त्री मोदी जी ने कर दिखाया। मोदी जी ने अपने छह साल के कार्य काल के दौरान 23 कंपनियां बेच दीं। किले, बंदरगाह, हवाई अड्डे, रेलवे स्टेशन निजी हाथों को सौंप दिये और आने वाले दिनों में सरकार भोपाल का हबीबगंज रेलवे स्टेशन, म. प्र. के 18 बस स्टेशन, पुलिस की 50 से अधिक सेवायें, आईटीआई, राष्ट्रीय राजमार्ग सहित सरकारी स्कूल भी निजी हाथों में देने की तैयारी में हैं। लगता है इसी रास्ते देश का विकास होगा। अभी तक बीते छह सालों का विकास तो देश देख ही रहा है। अब सवाल तो अहम यह है कि इससे उबरेंगे कैसे?  इसका जबाव किसी के पास नहीं है। एक पुरानी कहावत है कि यदि घर में थाली-कटोरा बजाओगे-पीटोगे तो कंगाली आती है। इसको हमारे दादा-दादी भी बचपन में हमें बताया करते थे। लेकिन कोरोना क्या आया, हमारे भगवान विकास पुरुष माननीय नरेंद्र मोदी जी ने ऐसी थाली पूरे देश में बजवायी कि लोग दाने-दाने को मोहताज हो गये। अब देखना यह है कि वे और क्या-क्या बजवा कर देश का विकास करेंगे या फिर देश का बाजा ही बजाकर दम लेंगे। गर्व से कहो कि हम....... हैं। (लेखक के अपने विचार हैं)