प्रोफेसर (डॉ.) सोहन राज तातेड़
पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्विद्यालय, राजस्थान
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संसार की विचित्रता को देखकर यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि यह जगत् अपने आप बना या किसी सत्ता द्वारा बनाया गया। कारण से ही कार्य की उत्पत्ति होती है। जगत कार्य है। इसका भी कोई न कोई कारण होना चाहिए। इस प्रश्न को लेकर अनेक मतमतांतर है। दार्शनिक दृष्टि से देखा जाये तो यह संसार ईश्वर कृत माना जाता है। ईश्वर ही इस संसार का कारण है। कोई भी वस्तु स्वयं नहीं बनती। हर वस्तु को बनाने वाला कोई न कोई होता है। जैसे घड़े का निर्माण कुम्हार करता है, वस्त्र का निर्माण दर्जी करता है, वैसे ही इस संसार का निर्माण ईश्वर करता है। कोई भी वस्तु अपने आप नहीं बनती। इस बात को लेकर अनेक दृष्टियां है। सत्कार्यवाद, असत्कार्यवाद, विवर्तवाद, सदसद्कार्यवाद और परिणामवाद के आधार पर इस जगत की व्याख्या की जाती है। आधुनिक काल में भी अनेक ज्ञानी पुरुष हुए है जो इस जगत मीमांसा पर दृष्टि डाले है।
ऐसे ही मनस्वी पुरुषों में दादा भगवान भी एक प्रमुख चिंतक रहे है। दादा भगवान के बचपन का नाम अंबालाल पटेल था। अंबालालजी गुजरात के एक प्रमुख रियलस्टेट के कारोबारी थे। भौतिक सुख संपन्नता की कोई कमी नहीं थी। धीरे-धीरे यह सुख-सम्पन्नता उन्हें मिथ्या प्रतीत होने लगी। उन्होंने इस सब का त्याग कर वास्तविक सुख-सम्पन्नता की ओर मुख मोड़ा। यह वास्तविक सुख-सम्पन्नता आत्म ज्ञान था। 1958 में उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ। इसके पूर्व भी वह सत्संग किया करते थे। 1935 से वो सत्संग किया करते थे। जब उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ तो उन्होंने किसी से बताया नहीं। परन्तु उनमें एक विशेष परिवर्तन उनमें दिखायी देने लगा। दादा भगवान नाम पड़ने का कारण यह है कि बच्चे उन्हें प्रेम से दादा बुलाते थे। वे नहीं चाहते थे कि कोई उन्हें भगवान कहे उनका मानना था कि भगवान तो हमारे अन्दर विराजते है उन्हीं को जानना, समझना और उन्हीं पर विश्वास करना सच्चा ज्ञान है। आत्मा की शक्ति ही प्रत्यक्ष भक्ति है। धीरे-धीरे उन्हें भेद विज्ञान का ज्ञान हुआ। भेद-विज्ञान का ज्ञान होने पर उन्होंने अपने प्रवचन के माध्यम से लोगों को इससे परिचित कराया। उनके अनुसार पांच आज्ञाएं हैं।
पहली आज्ञा है कि निश्चय दृष्टि से मैं शुद्ध आत्मा हूं। शुद्ध आत्मा से तात्पर्य ऐसी आत्मा से है जहां शरीर और आत्मा का पार्थक्य रहता है। आत्मा शुद्ध, बुद्ध और मुक्त है। दूसरी दृष्टि व्यवहार दृष्टि है। व्यवहार दृष्टि से आत्मा शरीर युक्त है। जैसे मैं सोहनराज तातेड़ हूं। व्यवहारिक दृष्टि से आत्मा शरीरबद्ध है और प्रति शरीर नियत है। नाम से ही व्यक्ति की पहचान होती है। इसी में व्यवहारिकता है। किन्तु निश्चय दृष्टि से आत्मा एक है। तीसरी आज्ञा है जगत को चलाने वाला व्यवस्थित चेतन शक्ति है। यह चेतन शक्ति ही जगत का संचालन कर रही है। कोई ईश्वर या बाह्य शक्ति नहीं है। मैं केवल निमित्त हूं। चैथी आज्ञा समभाव पूर्वक निपटारा करना। एक आदमी के परिवार में अनेक लोग होते है। परिवार मिलकर समाज बनता है। समाज से राज्य और राष्ट्र का निर्माण होता है। सबका अपना-अपना हिस्सा है। जिसके हिस्से में जो है वह उसको मिलना चाहिए। हिस्सेदारी सबकी बराबर है। इस देश में जितने भी लोग है सब राष्ट्र निर्माण में लगे। राष्ट्र निर्माण में उनकी भी उन्नति है।
पांचवी आज्ञा शुद्ध आत्मा का ज्ञान होना। शुद्ध आत्मा शुद्ध, बुद्ध, मुक्त है। इसमें अनन्त शक्ति है। इस अनन्त शक्ति को जाग्रत करना है। शक्ति के जागरण से सुख दुःख की अनुभूति नहीं होती। व्यवहारिक स्तर पर सुख दुःख जीव को सताते है। सबका सुख-दुःख अलग-अलग है। जब प्राणी माया मोह से ग्रस्त रहता है तो उसे अनेक प्रकार की कष्टानुभूति होती है। माया का जाल बड़ा विचित्र है। यह संबंध मिथ्या है। जो राग-द्वेष का निर्माण करता है। किसी के प्रति आसक्ति होना राग है। इसलिए इस संसार में आसक्ति नहीं करनी चाहिए। यह राग जितना प्रबल होता है दुःख उतना अधिक होता है। प्रिय से वियोग और अप्रिय की प्राप्ति होने पर आदमी को दुःख होता है। बड़े-बड़े दार्शनिक और मनीषी पुरुष भी इस बंधन में फंस जाते है और दुःख की अनुभूति करते है। जहां तक हो सके राग-द्वेष से बचने का प्रयास करना चाहिए। भारत के सभी तत्व चिंतको का उद्देश्य रहा है कि मानव के तीनों योग पवित्र से पवित्र परिणति पाते रहे। धर्म इसी आवश्यकता का प्रतिपादन करने के लिए है।
मन को सत्यम् से, वाणी को शिवम् से और चरित्र को सुन्दरम् से युक्त करने का उपक्रम है धर्म। योगत्रय के पवित्रि करण में तत्वत्रय या रत्नत्रय की उपयोगिता और सार्थकता तभी सम्भव है जब जीवन से जुड़े हुए विविध व्यवहार और वस्तुओं के प्रति हम अपनी सम्यक् अवधारणा बनाये। दया और करुणा का भाव ही मानवतावादी दर्शन के मूल में प्रतिष्ठित है, अतः मानवतावाद कोरा दर्षन न होकर जीवन दर्शन है, जो किसी भी जीव के अस्तित्व व गरिमा को स्थापित करता है। इसके अंतर्गत व्यक्ति की संवेदना व दया, करुणा का भाव समस्त सृष्टि के जीवधारियों के लिए होता है। अतः अहिंसा इस दर्शन की प्रतिष्ठा के लिए सबसे अनिवार्य शर्त हैं। मानवतावादी दर्शन, धर्म की नवीन व्याख्या करता है। मानवतावाद के अनुसार धर्म की मुख्य भूमिका मानव के प्रगति से जुड़ी है। धर्म किस तरह से मानव के लिए सार्थक भूमिका निभा सकता है, इस बात का विष्लेषण करने से मानवतावाद धर्म के उन सभी तत्वों का खण्डन करता है, जिसमें मानव के किसी के अधीन परिभाषित किया गया है। अतः व्यवस्थित शक्ति ही जगत नियन्ता है। (लेखक के अपने विचार है)