बूढ़े हाथों का कम्पन?


लेखिका : रश्मि अग्रवाल
नजीबाबाद, 9837028700


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हम गायब होने वालों में से नहीं बुजुर्ग हैं, तो क्या हुआ? जहाँ-जहाँ कदम रखेंगे, छाप छोड़ते जायेंगे, मित्र क्या दुश्मन भी यूँ भुला न पायेंगे?
वृद्धावस्था की सबसे बड़ी चुनौती स्वयं को अनुपयोगी समझना या समझा जाना, यह एहसास उमंग पर विराम लगाते, जीवन से काटकर रख देता है और सम्मान से जीने की समस्या वृद्धावस्था को प्राकृतिक परिवर्तन नहीं बल्कि बोझ समझ, ढ़ोने जैसा लगता है। यहीं से प्रारंभ हेाता... इस महत्वपूर्ण अवस्था पर विमर्श या पतझड़। ऐसे में सर्वप्रथम स्वयं का सम्मान करते हुए कम से कम अपेक्षाएँ रखें ताकि उत्तर उपेक्षाओं से न मिलें।
प्रश्न उठना स्वाभाविक कि परिवार, समाज व देश के स्तम्भ बुजुर्गों के अनमोल ज्ञान को सरकार किसी न किसी रूप में प्रयोग करते हुए, उन्हें शेष जीवन जीने हेतु पेंशन और चिकित्सा का प्रावधान सुनिश्चित करे क्योंकि जब सरकारी नौकरी से पदमुक्त होने के पश्चात्, जीवन पर्यन्त पेंशन देती तो परिवार से पदमुक्त किये जाने वाले बुजुर्गों को पेंशन क्यों नहीं? साथ-साथ बच्चे भी, अपने बुजुर्गों को पुराने बरगद की भांति मान-सम्मान देते हुए, यह सोचने का अवसर ही न दें कि कौन थामेगा इन बूढ़े हाथों को? (लेखिका के अपने विचार हैं)