लेखक : प्रशांत सिन्हा
(लेखक प्रशांत सिन्हा एक जाने-माने समाज सेवी, जल संरक्षण एवं जल प्रहरी सम्मान से सम्मानित पर्यावरण कार्यकर्ता हैं)
पर्यावरण के प्रति मेरी बचपन से ही काफी रुचि रही है। अक्सर पानी, जंगल, हवा, जंगली जीव-जंतुओं के बारे में जानने-समझने की जिज्ञासा मेरे मन में हमेशा बनी रही। यही वह अहम वजह रही कि पर्यावरण से जुड़ी पुस्तक जहां से भी मिली, उसे पढ़े बिना नहीं रहा। पिछले दिनों वरिष्ठ पत्रकार ,लेखक एवं चर्चित पर्यावरणविद ज्ञानेन्द्र रावत की एक पुस्तक "पर्यावरण : विकास और यथार्थ" देखने को मिली। आदत के मुताबिक उसे भी पढ़े बिना रहा नहीं गया। उसे पढ़ने के बाद ही मैं पर्यावरण के विभिन्न पहलुओं और उसकी बदहाली के बारे में जान-समझ सका। श्री रावत ने इस पुस्तक में पर्यावरण, जल, जंगल, जमीन, वृक्ष, बांध, नदी, वायु, कीटनाशक , प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण आदि विभिन्न विषयों पर देश के प्रख्यात पर्यावरणविद, विषय विशेषज्ञों -वैज्ञानिकों के तथ्यपरक विचारों को समाहित करने का महती कार्य किया है।
वैसे रावत से मेरा परिचय बरसों पुराना है। सभा-सेमीनार, वृक्षारोपण कार्यक्रमों और सम्मेलनों में उनसे अक्सर मेरी भेंट भी होती रही है लेकिन कभी भी पुस्तक के बारे में चर्चा नहीं हुयी। शायद वह इस बारे में बताना नहीं चाहते हों। यह भी सही है कि अपने बारे में वह कभी कुछ कहने से बचते रहते हैं। लगता है यह उनकी प्रवृति है। बीते दिनों जब वह मिले तब उन्होंने बताया कि हां वह मेरी ही पुस्तक है जो सन 2005 में नटराज प्रकाशन, दिल्ली द्वारा प्रकाशित हुयी थी और अब इतने समय बीतने के बाद इसकी बहुत कम प्रतियां ही लोगों के पास होंगी। मेरे पास तो इसकी एक ही प्रति शेष बची है।
बातचीत के दौरान उन्होंने बताया कि इस पुस्तक के लिए रेमन मैगसेसे व स्टॉकहोम वाटर प्राइज से सम्मानित भाई राजेंद्र सिंह जी ने मंगलकामना व्यक्त करते हुए कहा था कि यह पुस्तक वास्तव में हमारे समाज को साझे संकट से मुक्ति दिलाने में प्रमुख भूमिका निर्वहन करेगी। साथ ही पर्यावरण की सही तस्वीर प्रस्तुत करके अपने दायित्व को निबाहने में सफल होगी, वहीं सरकार और समाज के मानस को भी सुधारने में सहायक सिद्ध होगी।
सबसे बड़ी बात यह है कि इस पुस्तक की भूमिका जाने-माने पर्यावरणविद और "आज भी खरे हैं तालाब" और "राजस्थान की रजत बूंदें" नामक पर्यावरण से जुड़ी चर्चित और ख्यातनामा पुस्तकों के रचयिता आदरणीय अनुपम मिश्र ने लिखी है। जब इस बारे में रावत से पूछा तो उन्होंने बताया कि आमतौर पर अनुपम जी भूमिका आदि लिखने के पक्षधर नहीं थे। लेकिन जब मेंने उन्हें पुस्तक की विषय वस्तु की जानकारी दी तो उनका कहना था कि मैं तुम्हारी किताब की भूमिका जरूर लिखूंगा लेकिन इसके लिए तुम्हें आना पड़ेगा। सच यह है कि मैं गांधी शांति प्रतिष्ठान स्थित उनके कार्यालय गया और तब उन्होंने बोलकर पुस्तक की भूमिका लिखवायी और किताब छपने से पहले उसका प्रूफ भी देखा।
असलियत में यह पुस्तक विश्व विद्यालयों में पर्यावरण के छात्रों के लिए संदर्भ ग्रंथ के रूप में अहम भूमिका का निर्वहन कर रही है। यहां में इस पुस्तक की अनुपम मिश्र की लिखी भूमिका देना आवश्यक समझता हूं जो स्वयं पुस्तक की महत्ता की परिचायक है।
लेखक पर्यावरणविद ज्ञानेन्द्र रावत
इस संदर्भ में ज्ञानेन्द्र रावत का कहना है कि यह पुस्तक पर्यावरण के प्रति जन चेतना जाग्रत करने का मेरा एक छोटा सा प्रयास है। जरूरत इस बात की है कि हम अपने पर्यावरण की रक्षा के लिए कमर कसकर तैयार हो जायें और ऐसी जीवन पद्धति विकसित करें जो हमारे पर्यावरण को संतुलित बनाये रखने में सहायक हो। हालात गवाह हैं कि सिर्फ कागजी योजनाओं और भाषणबाजी से यह संकट दूर होने वाला नहीं है। अब हमें इस दिशा में कुछ सार्थक प्रयास करने होंगे, तभी स्थिति में कुछ बदलाव की उम्मीद की जा सकती है।
ज्ञानेन्द्र रावत ने बताया कि इस पुस्तक की रचना में प्रख्यात पर्यावरणविद परमादरणीय पद्मश्री सुंदरलाल जी बहुगुणा, जलपुरुष राजेन्द्र सिंह, पर्यावरणविद डा. वंदना शिवा, बाबा आम्टे, वरिष्ठ पत्रकार एवं तत्कालीन दैनिक भास्कर समूह की जानी-मानी पत्रिका ' अहा जिंदगी ' के यशस्वी संपादक भाई यशवंत व्यास जी, दैनिक ट्रिब्यून के संपादक राजकुमार सिंह, राष्ट्रीय सहारा के संपादक रहे विभांशु दिव्याल, प्रख्यात बौद्ध दार्शनिक डा. धर्मकीर्ति, जाने-माने कृषि विशेषज्ञ देवेंद्र शर्मा, वन्य प्राणी विशेषज्ञ राकेश व्यास एवं अपने अभिन्न वरिष्ठ पत्रकार मित्र अनिल जैन व एच. एल. दुसाध का समय-समय पर भरपूर सहयोग मिला जिसके बलबूते ही इस दुरूह कार्य को करने में समर्थ-सफल हो सका।
इस बारे में मेरा मानना है कि यह पुस्तक विकास के नाम पर पर्यावरणीय विनाश का सिलसिलेवार तथ्यपरक खुलासा करती है और यह सवाल भी खड़ा करती है कि यदि अब भी हम नहीं चेते तो पर्यावरण का विनाश समूची दुनिया के विनाश का कारण होगा।