तमिलनाडु विधानसभा चुनाव और बीजेपी की रणनीति...?

लेखक : लोकपाल सेठी

(वरिष्ठ पत्रकार, राजनीतिक विश्लेषक)

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अगले साल के मध्य में तीन बड़े राज्यों असम, पश्चिम बंगाल और  दक्षिण में तमिलनाडु में विधानसभा चुनाव होने है। बीजेपी असम में फिर सत्ता में आने के लिए जोर लगाएगी। पश्चिम बंगाल में ममता दीदी की टीएमसी को सत्ता से हटा उस पर काबिज़ होने की कोशिश करेगी। लेकिन तमिलनाडु वह सिर्फ  अपनी जड़ें ज़माने की लड़ाई लडेगी। दक्षिण के इस राज्य में सत्ता पाने में बीजेपी अभी कोसों दूर है। 

पिछले दिनों केन्द्रीय गृह मंत्री तथा बीजेपी के सबसे बड़े रणनीतिकार अमित शाह दो दिन के तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई के दो दिन के दौरे पर आये। मंत्री के रूप उन्होंने राज्य के लिए 67,000 करोड़ रूपये की लागत वाली कई योजनाओं की शुरुआत की। लेकिन पार्टी के नेता रूप में उन्होंने वर्तमान सत्तारूढ़ दल अन्नाद्रमुक के नेताओं के मिलकर विधान सभा चुनावों के लिए चुनावी रणनीति के बारे में लम्बी बातचीत की। बीजेपी के प्रदेश नेता कुछ समय से पार्टी आला कमान पर इस बात के लिए जोर डाल रहे थे कि राज्य में बीजेपी को अन्नाद्रमुक के साथ मिलकर चुनाव नहीं लड़ना चाहिए। उनका आकलन था अगर पार्टी अपने बलबूते पर चुनाव लड़ती है तो उसे इसका अधिक लाभ मिलेगा। लेकिन अमित शाह उनके इस आकलन से सहमत नहीं थे। उनका कहना था कि इस राज्य में पार्टी अभी इतनी मज़बूत नहीं है कि अपने दम पर चुनाव लड़ सके। उनका कहना था कि पार्टी को 50 चुनिंदा सीटों पर चुनाव लड़ने की तैयारी करनी चाहिए। सारी ताकत यहीं झौंक कर पार्टी विधान सभा की कुछ सीटें जीत सकती है। 

इस राज्य में दशकों से दो दलीय राजनीति है। यहाँ बारी-बारी से द्रमुक और अन्नाद्रमुक ही सत्ता में आती रहीं है। कांग्रेस और बीजेपी सहित कोई भी राष्ट्रीय दल यहाँ अपनी जड़ें नहीं जमा पाया। 2016 में स्वर्गीय जयललिता के नेतृत्व में पहली बार अन्नाद्रमुक लगातार दूसरी बार सत्ता में आयी। पिछले काफी समय से कांग्रेस द्रमुक के जूनियर पार्टनर के रूप में चुनाव लड़ती आ रही है। उधर बीजेपी और अन्नाद्रमुक साथ-साथ रहे लेकिन मिलकर चुनाव नहीं लड़ा। केवल 2019 लोकसभा चुनाव मिलकर लड़ा। लेकिन यह चुनावी समझौता भी कामयाब नहीं रहा। द्रमुक अधिकांश सीटें जीतने में सफल रही पर कांग्रेस   2014 के तुलना में कम सीटें ही जीत पाई। बीजेपी 2014 में एक लोकसभा सीट जीतने में सफल रही थी। लेकिन आज तक कभी विधानसभा की एक भी सीट जीत नहीं पाई। 

पिछला लोकसभा चुनाव पहला ऐसा चुनाव था कि जो द्रमुक और अनाद्रमुक ने अपने-अपने करिश्माई नेताओं के बिना लड़ा। उस समय तक द्रमुक के करूणानिधि और अन्नाद्रमुक की सुप्रीमो जयललिता का निधन हो चुका था। इन चुनावों में द्रमुक की कमान करूणानिधि के बेटे स्टालिन के हाथ में थी। यह चुनाव स्टालिन के लिए एक बड़ी चुनौती थी और वे इसमें सफल रहे। लेकिन राज्य में अपनी सरकार होने के बावजूद अन्नाद्रमुक के मुख्यमंत्री पालनी स्वामी और उप मुख्यामात्रिम पन्नीरसेल्वम, जो पार्टी के मुखिया भी है, कुछ दम नहीं दिखा पाए। पार्टी को 2016 के विधानसभा चुनावों के कुल मतों के 40 प्रतिशत  मत मिले थे और इसे 2011 के विधानसभा चुनावों से कहीं अधिक सीटें मिली थी। पर लोकसभा के चुनावों में अन्नाद्रमुक को केवल 18 प्रतिशत ही वोट मिले। तभी से यह कहा जाने लगा कि अन्नाद्रमुक विधानसभा चुनाव निश्चित रूप से हारेगी।

ऐसी  स्थिति में भी अन्नाद्रमुक कुछ सीखने को तैयार नहीं। हालाँकि इसके नेता बीजेपी के साथ मिलकर चुनाव लड़ने का समझौता करचुके है लेकिन ना तो वे बीजेपी को अधिक सीटें देना चाहते है और ना ही चाहते है कि यह पार्टी इतनी सीटें जीत सके जिसकी वजह से सत्ता में अपनी हिस्सेदारी मांग सके। 

बीजेपी के स्थानीय नेता अपनी पार्टी का सबसे बड़ा हिंदू कार्ड खेलना चाहते है। राज्य पार्टी अध्यक्ष मुरगन एक अति पिछड़ी जाति से आते है। ये लोग भगवान मुरगन को अपना नेता मानते है। इस महीने के शुरू में पार्टी ने राज्य में भगवान मुरगन की यात्राओं का एक महीने लम्बा कार्यक्रम शुरू किया। लेकिन सरकार ने कई जगह उन्हें यात्रायें निकलने की अनुमति नहीं दी। कारण यह था कि ये यात्रायें अच्छी खासी भीड़ जुटा रही थी। इसको लेकर पार्टी के नेताओं ने अपने केन्द्रीय नेताओं से शिकायत भी की। इसी प्रकार बीजेपी को गणपति उत्सव के दौरान गणेश की प्रतिमाओं के सार्वजानिक विसर्जन की अनुमति नहीं  दी। सरकार का कहना था कि करोना की वजह से लगाए गए प्रतिबंधों के कारण यह अनुमति नहीं दी गयी। लेकिन जिस दिन अमित शाह चेन्नई के दौरे पर आये बीजेपी को अपना शक्ति प्रदर्शन करने का मौका मिल गया। अमित शाह ने पार्टी के कार्यकर्ताओं की बैठक को संबोधित करना था। मूल कार्यक्रम के अनुसार उनको सुरक्षा कारणों से बिना किसी ताम-झाम वहां पहुँचना था। लेकिन इसको एक रोड शो के रूप में बदल दिया गया।  यह रोड शो लगभग एक किलोमीटर लम्बा था तथा इसमें भारी भीड़ जुटी थी। अब देखना यह है कि यह भारी भीड़ चुनावों में वोटों में तब्दील होती है या नहीं। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)