लेखक : प्रोफेसर (डॉ.) सोहन राज तातेड़
पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्वविद्यालय, राजस्थान
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सत्त्वं लघु प्रकाषकमिष्टमुपष्टम्भकं चलं च रजः।
गुरुवरणकमेव हि तमः प्रदीपवच्चार्थतो वृत्तिः।।
सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण क्रमषः प्रीति, अप्रीति और विषादात्मक हैं। सत्त्व गुण हल्का और प्रकाषक है, रजोगुण प्रेरक प्रवर्तक, प्रोत्साहक और क्रियाषील है, तमोगुण गुरुत्वधर्मी भारीपन लाने वाला, कार्य का प्रतिबन्धक अर्थात् आलस्योत्पादक और कार्य से रोकने वाला है। इस प्रकार तीनों गुण परस्पर भिन्न एवं विरोधी भी हैं। फिर भी जैसे बत्ती, तेल और दीपक परस्पर भिन्न होते हुए भी एक प्रयोजन को पूरा करते हैं, वैसे ही तीनों गुण भिन्न होते हुए भी एक स्थान में रहकर कार्य सम्पादन करते हैं। रजोगुण प्रधान पुरुष ऐश्वर्य ठाठ-बाठ और राज-पाठ की लालसा वाला होता है। तमोगुण प्रधान पुरुष आलसी और प्रमादी होता है। द्वेष और क्रोध जैसी नकारात्मक भावनाएं उसमें फूट-फूट कर भरी हुई होती है। सत्वगुण प्रधान पुरुष सीधा और सच्चा हेाता है। रजोगुण मनुष्य को चंचल कर देता है। यह गुण प्रकृति को चलायमान कर देता है। सृष्टि की प्रक्रिया रजो गुण के प्रभाव से ही होती है। सांख्य के अनुसार जगत का मूल कारण अचेतन प्रकृति है न कि ईष्वर। प्रकृति त्रिगुणात्मिका है और पुरुष त्रिगुणातीत है। संाख्यमतानुसार सृष्टि का क्रम इस प्रकार है। सबसे पहले ‘महत्‘ या बुद्धि का प्रादुर्भाव होता है। यह प्रकृति का प्रथम विकार हैै।बाह्य जगत् की दृष्टि से, यह विकाट बीज स्वरूप है, अतएव ‘महत्तत्व‘ कहलाता है। आभ्यंतरिक दृष्टि से यह वह बुद्धि है जो जीवों में विद्यमान रहती है। बुद्धि के विशेष कार्य हैं निष्चय और अवधारणा। बुद्धि के द्वारा ही ज्ञाता और ज्ञेय पदार्थाें का भेद विदित होता है। सत्त्वगुण के आधिक्य से बुद्धि का उदय होता है। बुद्धि का स्वाभाविक धर्म है स्वतः अपने को तथा दूसरी वस्तुओं को प्रकाषित करना। यद्यपि रज और तम की अपेक्षा बुद्धि में सत्त्व का ही आधिक्य सदा रहता है तथापि उस सत्त्व के परिणाम न्यूनाधिक्य होता है। जब बुद्धि में सत्त्व की अधिक वृृद्धि होती है, तब उस सात्त्विक बुद्धि के फल होते हैं धर्म, ज्ञानद्व वैराग्य और ऐष्वर्य। परंतु जब तमस् का परिणाम अधिक बढ़ जाता है, तब उस तामसिक बुद्धि से अधर्म, अज्ञान, आसक्ति और अषक्ति की उत्पति होती है। प्रकृति का दूसरा विकार है अंहकार। यह महत्तत्व का परिणाम है। बुद्धि का ‘मै‘ और ‘मेरा‘ यह अभिमान का भाव ही अंहकार है। इसी अंहकार के कारण पुरुष मिथ्याभ्रम में पड़कर अपने को कत्र्ता, कामी और स्वामी समझने लगता है। अंहकार तीन प्रकार का माना जाता है- सात्त्विक या वैकारिक जिसमें सत्वगुण की आपेक्षिक प्रधानता होती है। राजस या तैजस, जिसमें रजोगुण की प्रधानता होती है। तामस या भूतादि, जिसमें तमोगुण की प्रधानता होती है। सात्त्विक अंहकार से एकादष इन्द्रियों की उत्पति होती है- पांच ज्ञानंद्रियां, पांच कर्मंद्रियां, मन, तामस अंहकार से पंच तन्मात्रों की उत्पति होती है। राजस अंहकार सात्त्विक और तामस, दोनों अंहकारों का सहायक होता है उन्हें वह शक्ति प्रदान करता है जिसमें सात्त्विक और तामस विकार उत्पन्न होते हैं। सांख्य के अनुसार प्रकृति सत्त्व, रजस् और तमस् नाम के तीन गुणों की साम्यावस्था है। इस साम्यावस्था के भंग होने से सृष्टि की प्रक्रिया शुरू होती है। उसके विकास-क्रम में उद्भूत होने वाले तत्त्व व्यक्त कहलाते हैं। प्रकृति का प्रथम विकार बुद्धि या महत्तत्त्व है; यह भी बहुत सुक्ष्म है। इसके बाद क्रमषः अधिक स्थूल तत्त्व उद्भूत होते हैं। अहंकार से (जिसके वैकारिक, तैजस और भूतादि तीन रूप होते हैं) पांच तन्मात्राएं और एकादश इन्द्रियां उत्पन्न होती है। प्रत्येक मनुष्य में ये तीनों गुण पाये जाते है। परन्तु जिस मनुष्य में जो गुण प्रधान होता है वह वैसा ही हो जाता है। मनुष्य पैदा होने के साथ ही सत्व, रज और तम तीन गुणों को लेकर पैदा होता है। इन तीन गुणों में से कोई न कोई गुण प्रधान रहता है। जो गुण प्रधान होता है मनुष्य उसी प्रवृत्ति वाला हो जाता है। गीता में भी तीनों गुणों का विस्तृत वर्णन है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं विचार हैं)