वैश्विक रवैये में बदलाव के बिना महामारियों के युग से बचना मुश्किल : विशेषज्ञ 

एक रिपोर्ट 



लखनऊ से निशांत  


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संक्रामक बीमारियों से लड़ने के लिये वैश्विक रवैये में अगर आमूल-चूल बदलाव नहीं किये गये तो भविष्‍य में महामारियां जल्‍दी-जल्‍दी उभरेंगी। साथ ही वे ज्‍यादा तेजी से फैलेंगी, दुनिया की अर्थव्‍यवस्‍था को और ज्‍यादा नुकसान पहुंचाएंगी और कोविड-19 के मुकाबले ज्‍यादा तादाद में लोगों को मारेंगी। ऐसा दावा है दुनिया के 22 शीर्ष विशेषज्ञों का जिन्होंने आज जैव-विविधता और महामारियों को लेकर एक रिपोर्ट जारी कर यह चेतावनी दी है।


इंटरगवर्नमेंटल साइंस-पॉलिसी प्‍लेटफार्म और बायोडायवर्सिटी एण्‍ड इकोसिस्‍टम सर्विसेज (आईपीबीईएस) द्वारा कुदरत में आ रही खराबियों और महामारियों के बढ़ते खतरों के बीच सम्‍बन्‍धों पर चर्चा के लिये आयोजित एक आपात वर्चुअल वर्कशॉप में विशेषज्ञ इस बात पर सहमत दिखे कि महामारियों के युग से बचा जा सकता है, बशर्ते महामारियों के प्रति अपने रवैये में बुनियादी बदलाव लाकर प्रतिक्रिया के बजाय रोकथाम पर ध्‍यान दिया जाए।


बृहस्‍पतिवार को जारी रिपोर्ट के मुताबिक कोविड-19 वर्ष 1918 में फैली ग्रेट इंफ्लूएंजा महामारी के बाद से अब तक आयी कम से कम छठी वैश्विक महामारी है। हालांकि इसकी शुरुआत जानवरों द्वारा लाये गये माइक्रोब्‍स से हुई, मगर अन्‍य सभी महामारियों की तरह यह भी पूरे तरीके से इंसान की नुकसानदेह गतिविधियों की वजह से फैली। ऐसा अनुमान है कि स्‍तनधारियों और पक्षियों की विभिन्‍न प्रजातियों में इस वक्‍त 17 लाख ‘अनखोजे’ वायरस मौजूद हैं। उनमें से लगभग 85 हजार ऐसे हैं जो इंसान को संक्रमित करने की क्षमता रखते हैं।


इकोहेल्थ अलायंस के अध्यक्ष और आईपीडीएस वर्कशॉप के चेयरमैन डॉक्टर पीटर डेजाक ने कहा ‘‘कोविड-19 या किसी भी आधुनिक महामारी के कारण को लेकर कोई बड़ा रहस्य नहीं है। जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता को हो रहे नुकसान को बढ़ावा देने वाली इंसानी गतिविधियां ही हमारे पर्यावरण पर उनके पड़ने वाले प्रभावों के कारण उत्‍पन्‍न महामारियों के खतरे को पैदा करती हैं। जमीन के उपयोग में बदलाव, खेती का विस्‍तार और सघनीकरण, गैरसतत कारोबार, कुदरत को तबाह करने वाला उत्‍पादन और उपभोग तथा वन्‍यजीवों, मवेशियों, रोगाणुओं और लोगों के बीच बढ़ते सम्‍पर्क वगैरह ऐसी चीजें हैं जो महामारियों को बुलावा देती हैं।”


रिपोर्ट के मुताबिक जैव विविधता को नुकसान पहुंचाने वाली इंसानी गतिविधियों को कम करके महामारी का खतरा काफी हद तक कम किया जा सकता है। इसके लिए संरक्षित क्षेत्रों को और बेहतर तरीके से महफूज करना होगा। साथ ही जैव विविधता के लिहाज से बेहद समृद्ध क्षेत्रों के अंधाधुंध दोहन को भी कम करना होगा। इससे वन्य जीवों, मवेशियों और इंसान के बीच संपर्क कम होगा और नई बीमारियों को रोकने में मदद मिलेगी।


डॉक्‍टर देजाक ने कहा "यह मजबूत वैज्ञानिक प्रमाण बेहद सकारात्मक निष्कर्ष की तरफ इशारा करते हैं। हमारे पास महामारियों को रोकने की अच्छी क्षमता है लेकिन इस वक्त हम जिस तरह से उन्हें रोकने की कोशिश कर रहे हैं, उनमें हमारी क्षमता को काफी हद तक नजरअंदाज किया जा रहा है। हमारी कोशिशें ठहरी हुई है। हम अब भी बीमारियों को उभरने के बाद वैक्सीन और चिकित्सीय इलाज के जरिए उनकी रोकथाम की कोशिशों पर ही निर्भर रहते हैं, मगर इसके लिए प्रतिक्रिया के साथ-साथ रोकथाम पर और ज्यादा ध्यान दिए जाने की जरूरत है।"


इसके साथ ही, डब्ल्यूडब्ल्यूएफ इंडिया के कार्यक्रम निदेशक डॉ. सेजल वोरह ने कहा, "मानव कल्याण प्रकृति के स्वास्थ्य के साथ जुड़ा हुआ है। हम वर्तमान दर पर जैव विविधता खोना जारी नहीं रख सकते हैं। भविष्य के महामारी के जोखिम को कम करने के लिए वैश्विक, राष्ट्रीय और स्थानीय स्तर पर नीतियों और प्रथाओं को बदलने में अभी भी देर नहीं हुई है।”
वहीँ मेटास्ट्रिंग फाउंडेशन के सीईओ और निदेशक, मिशन सचिवालय, जैव विविधता और मानव कल्याण पर राष्ट्रीय मिशन परियोजना, रवि चेलम ने कहा, "रिपोर्ट स्पष्ट रूप से पर्यावरण पर मानव प्रभावों को मूल कारण के रूप में स्थापित करती है। यह भी स्पष्ट है कि हम महामारी के युग में हैं और कोई भी वास्तव में सुरक्षित नहीं है। महामारी की आर्थिक लागत उन्हें रोकने के लिए होने वाले खर्च से कहीं अधिक है।


अब आर्थिक सुधारों को पूरी तरह से एक नयी नज़र से  देखना होगा। 
रिपोर्ट में कहा गया है कि बीमारियां पैदा होने के बाद सिर्फ उनके इलाज के कदम उठाने या प्रौद्योगिकीय समाधान पर ही निर्भर रहना, खासतौर से नई वैक्सीन और चिकित्सीय इलाज तैयार करना और उनका वितरण करना, दरअसल एक 'धीमी और अनिश्चिततापूर्ण' कवायद है। इसमें इंसान द्वारा बड़े पैमाने पर सहन की जाने वाली तकलीफें और इन बीमारियों के इलाज पर वैश्विक अर्थव्यवस्था को होने वाले सैकड़ों अरब डॉलर के सालाना आर्थिक नुकसान को कमतर बना दिया जाता है।
 रिपोर्ट में लगाए गए एक अनुमान के मुताबिक पूरी दुनिया में जुलाई 2020 तक कोविड-19 महामारी के कारण 8 से 16 ट्रिलियन डॉलर तक का नुकसान हुआ है। ऐसा भी अनुमान है कि वर्ष 2021 की चौथी तिमाही तक अकेले अमेरिका में ही कोविड-19 महामारी की वजह से 16 ट्रिलियन डॉलर का नुकसान हो सकता है। विशेषज्ञों का अनुमान है कि महामारियों का खतरा कम करने पर होने वाला खर्च, ऐसी महामारियों के इलाज पर खर्च होने वाली धनराशि के मुकाबले 100 गुना कम हो सकती है। इससे रूपांतरणकारी बदलाव के मजबूत आर्थिक प्रोत्साहन हासिल होते हैं।


इस रिपोर्ट में अनेक नीति संबंधी विकल्प दिए गए हैं, जिनसे महामारी के खतरे को कम करने और उससे निपटने में मदद मिलेगी। इनमें से प्रमुख इस प्रकार हैं :


@        महामारी की रोकथाम के लिए एक उच्च स्तरीय अंतर सरकारी परिषद गठित की जाए, जो नीतियां बनाने वालों को उभरती हुई बीमारियों के बारे में सर्वश्रेष्ठ विज्ञान और प्रमाण उपलब्ध कराए, अधिक जोखिम वाले क्षेत्रों के बारे में पूर्वानुमान लगाए, संभावित बीमारियों के आर्थिक प्रभावों का मूल्यांकन करे और शोध में व्याप्त खामियों को रेखांकित करे। ऐसी काउंसिल एक वैश्विक मॉनिटरिंग कार्य योजना का डिजाइन तैयार करने में भी मदद कर सकती हैं।
@        विभिन्न देश एक अंतरराष्ट्रीय समझौते या सहमति के दायरे में रहते हुए परस्पर रजामंदी से लक्ष्य तय करें, जिनमें लोगों, जानवरों और पर्यावरण के स्पष्ट फायदे हों।
@        महामारी को लेकर तैयारी करने, महामारी की रोकथाम के लिए बेहतर कार्यक्रम बनाने और विभिन्न क्षेत्रों में महामारी विस्फोट को नियंत्रित करने तथा उसकी पड़ताल करने के लिए सरकारों में ‘वन हेल्थ’ को संस्थागत रूप दिया जाए।
      विकास तथा भू-उपयोग संबंधी बड़ी परियोजनाओं में महामारी और उभरती हुई बीमारियों के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों के आकलन को विकसित करके उसे जोड़ा जाए। वहीं भू-उपयोग के लिए वित्तीय सहायता में सुधार किया जाए ताकि  जैव विविधता से जुड़े फायदों और जोखिमों की पहचान हो और उन्हें स्पष्ट रूप से लक्ष्य बनाया जाए।
@        महामारियों के कारण होने वाले आर्थिक नुकसान को उपभोग, उत्पादन, सरकारी नीतियों और बजट में एक कारक के तौर पर शामिल करना सुनिश्चित किया जाए।
@         महामारियों को बढ़ावा देने वाली उपभोग की किस्मों, वैश्वीकृत कृषि विस्तार और कारोबार को कम करने वाले बदलाव को जमीन पर उतारा जाए। इन बदलावों में मांस के उपभोग, पशुधन उत्पादन तथा महामारी के खतरे को बहुत बढ़ाने वाली तमाम गतिविधियों पर कर या लेवी लगाना शामिल है।
@         नई अंतर सरकारी स्वास्थ्य एवं व्यापार साझीदारी के जरिए अंतर्राष्ट्रीय वन्यजीव कारोबार में प्राणिजन्‍य रोगों के खतरे को कम किया जाए। वन्यजीवों के कारोबार में बीमारी के ज्यादा खतरे वाले जीवों की हिस्सेदारी को कम या बिल्कुल समाप्त कर दिया जाए। साथ ही वन्यजीवों के अवैध कारोबार के तमाम पहलुओं पर कानून का शिकंजा और कसा जाए तथा वन्यजीवों के कारोबार में सेहत से जुड़े खतरों के बारे में बीमारी के हॉटस्पॉट वाले क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की जानकारी और बढ़ायी जाए।
@         महामारी नियंत्रण कार्यक्रम, बेहतर खाद्य सुरक्षा का लक्ष्य हासिल करने और वन्यजीवों का उपयोग कम करने में स्थानीय लोगों तथा समुदाय की सहभागिता और जानकारी का मोल समझा जाए।
@        जोखिम वाले प्रमुख बर्ताव तथा अन्य मुद्दों पर महत्वपूर्ण जानकारी में व्याप्त खामियों को दूर किया जाए। बीमारियों के जोखिम में अवैध और गैरनियमित तथा वैध और नियमित वन्यजीव कारोबार के तुलनात्मक महत्व को जाहिर किया जाए और पारिस्थितिकीय अपघटन और उसकी बहाली, लैंडस्केप के ढांचे और बीमारी पैदा होने के खतरे के बीच संबंधों को लेकर बनी समझ में सुधार किया जाए।


आईपीबीईएस की एग्जीक्यूटिव सेक्रेटरी डॉक्टर एनी लारीगुडरी ने वर्कशॉप की रिपोर्ट के बारे में कहा ‘‘कोविड-19 ने नीति और निर्णय लेने के मामले में विज्ञान और विशेषज्ञता के महत्व को जाहिर किया है। हालांकि यह आईपीबीईएस की परंपरागत अंतरसरकारी आकलन रिपोर्ट नहीं है। यह एक असाधारण प्रकाशन है जिसमें समय संबंधी महत्वपूर्ण बाधाओं के बीच नये-नवेले प्रमाणों के साथ दुनिया के शीर्ष वैज्ञानिकों का नजरिया पेश किया गया है। हम महामारियों के उभार और भविष्य में उनके प्रकोप को रोकने तथा नियंत्रित करने के विकल्पों के बारे में हमारी समझ को और बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान देने के लिए डॉक्टर देजाक और इस वर्कशॉप रिपोर्ट के तमाम लेखकों को शुभकामनाएं देते हैं। इससे आईपीबीईएस में हो रहे तमाम आकलनों को दिशा मिलेगी। साथ ही नीति निर्धारकों को महामारी का खतरा कम करने और उसकी रोकथाम के विकल्पों के बारे में नई चेतना मिलेगी। (लेखक के अपने विचार हैं)