पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्वविद्यालय, राजस्थान
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भारत में कहीं कहीं साम्प्रदायिक या जातिय संघर्ष हुआ करता है। वे सभी तुच्छ घृणा पर आधारित हैं, जो अवास्तविक और जघन्य हैैैं। कोई ब्राह्मण, बनिया या मुसलमान होने से बुरा नहीं हो सकता, बुरा होता है, बुराई से। यह बुराई ही, व्यक्ति को घृणा से भरने वाला पाप है अतः व्यक्ति के स्थान पर बुराई को ही मिटाने का यत्न होना चाहिये। किसी कवि ने ठीक ही कहा है कि- जीवन की धारा में जो अन्धाधुन्ध घृणा का मैला भरता जा रहा है, उसे तुरन्त रोकना आवश्यक है, अन्यथा वैयक्तिक जीवन ही नहीं, सारा राष्ट्र और विश्व ही खतरे में पड़ जाएगा। आज मानव की निगाहों में मानव का पतन हो चुका है।
वह व्यक्ति को कीट पतंग से अधिक कुछ भी समझने के लिए तैयार नहीं। आत्मीयता जो मानव का एक विराट चेतना स्पन्दन है, आज लगभग जड़ बन चुका है। यदि कुछ है तो वह कुछ इने गिने, पारिवारिक व्यक्तियों तक सीमित हो चुका है और उसके स्थान पर भयंकर घृणा का विष भर चुका है। घृणा के तपेदिक से पीड़ित मानव जीवन की जो आज स्थिति है वह किसी से छिपी हुई नहीं है। यह रोग आज घर में व्याप्त है। घृणा के ही प्रभाव से सत्य और न्याय की सरेआम हत्या होती है। सद्गुण की अवहेलना होती है और योग्य व्यक्ति का भी तिरस्कार होता है। घृणा के व्याप्त विष को नष्ट करने के लिए निम्नांकित तीन सूत्रों का मनन तो करना ही चाहिये। इन्हें घर घर में फैलाना चाहिये- कोई छोटा नहीं, कोई तुच्छ नहीं, कोई पराया नहीं। अपनत्व और सम्मान का जितना अधिक विस्तार होगा, टकराव का विष उतना ही नष्ट होता हुआ चला चाएगा। सामाजिक संरचना के क्षेत्र में रचनात्मक कार्यक्रमों का सर्वाधिक महत्व है। समाज जो भी हो निष्चय ही वह जबर्दस्त शक्ति का भंडार होता है।
शक्ति का व्यय नहीं करेगा तो व्यय होता सामर्थ्य गलत कार्यों की तरफ मुड़ जाएगा। समृद्धि का कारण मद्यपान, माँसाहार षिकार, जुआ सट्टा, परस्त्री गमन आदि पापों का सामाजिक निषेध है। समाज में यदि कहीं भी प्राण शेष है तो उसे शीघ्र ही बन सजग होकर इन दोनों बुराइयों का समाधान कर देना चाहिये। कुरुढियों का समापन तो सामाजिक संगठन से शीघ्र ही बन सकता है। आवश्यकता है समाज में जागृति लाने की। पूरे देश में सामाजिक संगठनों के माध्यम से रीतिरिवाजों में सुधार आना चाहिये। जन्म मृत्यु और विवाह ये तीन व्यवहार प्रत्येक गृहस्थ में होते ही हैं। ये ऐसे सरल और अल्पव्ययी होने चाहिये कि समाज में गरीब से गरीब व्यक्ति भी इन व्यवहारों को आसानी से साध ले। वह समाज अवष्य पतित हो जाता है जहां ये व्यवहार भारी और कष्ट साध्य हो जाते हैं। ऐसा प्रत्येक गृहस्थ जो परिवार का संचालन करता है सात्विक उपदेषों पर कोई ध्यान नहीं दे पाता।
उसके दिमाग में दिन रात सामाजिक खर्चे निकालने का वजन भरा रहता है और सच तो यह है कि व्यक्ति अधिकांष पाप (झूठ, बेईमानी, मिलावट, रिष्वत आदि) सामाजिक खर्चे निकालने को ही करता है, पेट के लिये नहीं। जैसा कि कहा जाता है समाज को संगठित होकर अतिव्यय को रोकना चाहिये। क्षमापना से जहां परिवेश में व्याप्त टकराव का अन्त हो जाता है वहां जीवन की अनेक कठिनाइयों का भी उसमें समाधान है। अतिचार स्मरण से स्वार्थ प्रेरित राष्ट्र विरूद्ध प्रवृतियों का स्पष्ट निषेध हो जाता है। अतः यह साधना राष्ट्र हित में भी नितान्त उपयोगी है। बदलाव का जब प्रष्न आता है तो अक्सर हम वस्त्र, स्थान, मकान आदि को परिवर्तित करने की बात सोचते हैं, किन्तु हम उस मुख्य केन्द्र को भूल जाते हैं जहां वास्तव में बदलाव लाना है।
बदलाव तो सर्व प्रथम उन विचारों को हंै जो निरन्तर राग या द्वेष के गटर में बहते रहते हैं। बदलना तो उन आदतों को है जो हमें पतित होने को मजबूर करती हैं। बदलना उस स्वभाव को है जो मोह भाव ग्रस्त है। जीवन पर अनेक विकारों के ढेर लगे हुए हैं अनेक पापों की गंदगी पड़ी हुई है। यदि वास्तव में जीवन के सच्चे आनन्द को पाना है तो टकराव को हटाना ही होगा। विकारों के कचरे को हटाना ही बदलाव है। जो अपने आपको परिवर्तित करने की चाह नहीं रखते, ऐसे व्यक्ति सदैव टकराव चाहते है और टकराव उनके विनाश का कारण होता है। महाभारत के युद्ध में भगवान श्रीकृष्ण ने कौरव और पाण्डवों में टकराव टालने का बहुत प्रयास किया। किन्तु दुर्योधन के अहंकार ने टकराव की ऐसी विभीषिका प्रस्तुत की कि कौरवों का पूर्ण विनाश हो गया। स्वयं भगवान श्रीकृष्ण शांति संदेश ले करके धृतराष्ट्र के पास गये और शांति संदेश उनको सुनाकर टकराव टालने का प्रयास किया तो पुत्र मोह में धृतराष्ट्र ने भी कृष्ण की अवहेलना की।
कृष्ण खाली हाथ वापस लौट आये और युद्ध अवश्यसंभावी हो गया। महाभारत का युद्ध केवल कौरवों और पाण्डवों का ही युद्ध नहीं था बल्कि यह न्याय और अन्याय का युद्ध था और अन्त में न्याय की विजय हुई। जो न्याय का सहारा लेता है विजय सदैव उसी की होती है। आज भी हम देखते है कि दो देशों के बीच कभी सीमा विवाद को लेकर कभी किसी आर्थिक मामलों को लेकर टकराव की स्थिति बन जाती है। अगर स्थिति का सही ढंग से निपटारा न हो पाया तो दो देशों के बीच युद्ध की संभावना प्रबल हो जाती है। भारत एक ऐसा राष्ट्र है जो अपने पड़ोसी देशों के साथ मैत्री भाव और समता, सहअस्तित्व की नीति अपनाता है। टकराव को टालने का भरसक प्रयास करता है। यही कारण है कि आतंकवादी हमलों को झेलने के बावजूद भी सहनशीलता का परिचय देते हुए टकराव को टालता रहता है। अतः टकराव को टालना ही बुद्धिमानी है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं विचार हैं)