वरिष्ठ पत्रकार ललित सुरजन निधन 02 दिसम्बर, 2020, जन्म 1946
इंदौर (संपर्क 9893518228)
यह अच्छा नहीं हुआ। क़तई नहीं। बहाने तो कई बनाए जा सकते हैं, जैसे इंदौर में कुछ साल पहले राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के जन्म दिन अक्टूबर 02 को बापू पर केन्द्रित इतने आलेख प्रकाशित हुए, कि कुछ लोगों को उक्त अखबार के सम्पादक को फ़ोन पर बताना पड़ा कि अक्तूबर 02 को पूर्व प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री का भी जन्म हुआ था। दूसरे दिन आधा कॉलम फ़ोटो के साथ शास्त्रीजी को याद करने की औपचारिकता पूरी कर ली गई। मुमकिन था कि यदि फ़ोन नहीं जाते तो उक्त औपचारिकता का निर्वहन भी नहीं किया जाता। दरअसल, दिसंबर 02 को छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश के एक और प्रमुख समाचार पत्र देशबंधु के प्रधान और प्रबंध सम्पदाक 74 वर्षीय ललित सुरजन का निधन हो गया।
उन्हें केंसर एवं ब्रेन हेमरेज हुआ था। इस समाचार को इन्दौर के अखबारों ने सिर्फ चार पाँच पंक्तियों में आधा कॉलम फोटो सहित अंदर के किसी पृष्ठ पर लगाकर छुट्टी पा ली। मेरा अर्ज़ मात्र इतना सा है कि स्व.ललितजी इतने भी क्या इस लायक भी नहीं थे कि उनकी स्मृति कोई लम्बा सा आलेख प्रकाशित कर उनके पत्रकारीय समर्पण के प्रति इंसाफ किया जाता। अक्सर समाचार पत्रों में विशेष रूप से राजनेताओं के स्मृति विशेष के रुप में स्तुति गान छपते हैं, मग़र ललितजी का उक्त प्रकरण अपनी ही बिरादरी के इतने बड़े पत्रकार के प्रति एक किस्म की बेवफाई है। सवाल हो सकता है कि मैं स्वयं ही इतना परेशान क्यों हो रहा हूँ। यह प्रश्न करने वालों का ज्ञान वर्धन कर दूँ कि अंग्रेजी के कोलकाता एवं नई दिल्ली से निकलने वाले विश्वस्त अखबार द स्टेटमेंट द्वारा सालों से अखिल भारतीय स्तर पर आंचलिक पुरस्कार दिया जाता है।
यह सूचना उन लोगों के खास काम की है जो हिंदी पत्रकारिता के सरताज स्व.राहुल बारपुते उर्फ़ बाबा की स्मृति में मध्यप्रदेश सरकार द्वारा घोषित आँचलिक पत्रकारिता का पुरस्कार धारक हैं। इतना ही नहीं, उक्त कलमनवीस ने तो पीएम नरेंद्र मोदी की शान में दो इस तरह की किताबें लिख दी हैं, कि खुद मोदी अपने आप से पूछने लगे होंगे कि क्या मैं इतना बड़ा राजनेता हूँ। तो,बात ललित सुरजन की। उनके रहते कभी देशबंधु ने आंचलिक पत्रकारिता के द स्टेट्समैन द्वारा कुल चौदह पुरस्कार प्राप्त किए थे। एक और राज की बात। देशबंधु कभी इन्दौर के नई दुनिया का सहयोगी प्रकाशन हुआ करता था। रायपुर स्थित इस अखबार के मुख्य कार्यालय के ऊपर मैंने अपनी आँखों से नईदुनिया का ही मत्था टिका देखा था कभी।
भोपाल स्थित एक वरिष्ठ पत्रकार ने मुझसे व्यक्तिगत रूप से कभी कहा था कि देशबंधु से कभी ऑफर आए या मन करे तो तत्काल ज्वॉइन लर लेना, क्योंकि मेरे विचार में वहाँ काम करने की पूरी आजादी है, और उसके प्रबधंक कानूनन पूरी सेलरी देता हैं, ओर सारी कार्यवाही तैनाती के दौरान ही पूरी करके आपको रायपुर से वापस भेजा जाता है। और, वाकई ऐसा हुआ भी। जब मैंने इन्दौर में रहकर देशबंधु के मालवा एवं निमाड़ अंचलों का काम सम्हाला, तो मुझसे ललितजी ने पहली ही मुलाकात में कहा था, नवीन तुम लिखते तो अच्छा हो, तुम्हारी भाषा तथा शैली में लगातार रवानी देखने को मिलती है ओर देशबंधु न तो किसी प्रकार का कोई आर्थिक शोषण करता है, और कोई स्टोरी तथ्य गत रही तो उसे रोकता भी नहीं है। मेरे केरियर के वे बड़े खुशगवार दिन थे वो।
वरिष्ठ पत्रकार ललित सुरजन |
तीन स्टोरीज के नामो की घण्टियाँ तो आज भी मेरे कानों में बजती है। जिनकी वजह से मैं देश भर में थोड़ा बहुत चर्चित हुआ था। मैं स्वयं मानता हूँ कि ललितजी का लगातार कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियों का एक तरफा पक्ष लेना मुझे भी नहीं सुहाता था। चूँकि देशबंधु भाजपा एवं राष्ट्रीय सेवक संघ को पसंद ही नहीं करता रहा, इसलिए एक बार तो भाजपा की तत्कालीन मध्यप्रदेश सरकार ने उसके विज्ञापन बंद कर दिए थे और बकाया बिलों के लिए भी हीले हवाले शुरू कर दिए थे मग़र चूँकि पिताश्री स्व. मायाराम सुरजन सहित पूरा पाँच भाइयों का सुरजन परिवार गांधी, अरबिंदो, टैगोर, सुभाष बाबू, स्वामी विवेकानंद के विचारों से प्रभावित था, इसलिए अपने विरोध की हरेक कीमत चुकाने को तैयार रहता था। मध्यप्रदेश में एक लम्बा दौर ऐसा था जब मेरे विचार में सबसे ज्यादा पठनीय नई दुनिया और देशबंधु ही हुआ करते थे।
यदि नई दुनिया में रोजाना स्व. राजेंद्र माथुर अनुलेख लिखते थे, तो दर सोमवार सम्पादकीय की जगह देशबंधु में ललितजी की कविता छपा करती थी। दोनों अखबार पत्रकारिता के विश्वविद्यालय, उसकी लाज तथा आवाज़ माने जाते थे। प्रसिद्ध व्यंग्यकार स्व .हरिशंकर वाजपेयी देशबंधु में रोजाना बड़ा हिट कॉलम लिखते थे, तो शरद जोशी सप्ताह में तीन मर्तबा स्तम्भ लिखा करते थे। वाजपेयी कम्युनिस्ट सोच के थे, तो स्व. शरद भाई ज़्यादा से ज़्यादा अपनी कलम के सगे थे। अपनी कविताओं, लेखों,यायवरी आदि का अंग्रेजी अनुवाद ललितजी स्वयं करते थे। उक्त दोनों अखबारों के संदर्भ कक्ष देस परदेस में मुक्कमल माने जाते थे। ललितजी को किताबें पढ़ने का जुनून था। इन्दौर से मुझे उनके लिए अक्सर नई पुस्तकों की सूची भेजी जाती थी। ललित जी अपने आप को मात्र सामाजिक कार्यकर्ता, पर्यायवरण विद, शिक्षक वगेरह कहते थे।
उनकी प्रमुख पुस्तकों में है नील नदी की सावित्री, छत्तीसगढ़ और जोनी वाकर कहाँ हो तुम। बहुत कम लोगो को मालूम होगा कि ललितजी ने लंदन के प्रसिद्ध थॉमसन फाउंडेशन से प्रशिक्षण लिया था और देशबंधु से निकले पत्रकार बीबीसी में कार्यरत है। असली मुस्कान होंठो पर तीन इंच तक फैल सकती है। ललितजी इसी मुस्कान से महकते थे ,गुस्से में भी, लेकिन मुझे एक बात बहुत खटकती थी कि वे पान मसाले का छोटा डिब्बा हरदम हाथ में क्यों रखते थे, और उनका ड्रैस सेंस और हेयर स्टाइल माशाल्लाह! उनकी स्मृतियां,एव पुस्तकें किसी लायब्रेरी से कम नहीं। हार्दिक नमन ललित भइया!! (वरिष्ठ पत्रकार के अपने विचार हैं)