पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्वविद्यालय, राजस्थान
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भारतीय संस्कृति में प्रणाम की महिमा का गुणगान किया गया है। प्रणाम प्रतिदिन बड़े लोगों को करके आशीर्वाद लेना चाहिए। प्रतिदिन माता-पिता, गुरुजनों के चरणों में प्रणाम करना चाहिए। इससे बहुत लाभ होता है-
अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।
चत्वारि तस्य बर्द्धन्ते आयुर्विद्यायशोबलम्।
जो प्रतिदिन बड़ों की सेवा करता है, उनके चरणों में प्रणाम करता है, और उनकी शिक्षा के अनुसार जीवन-यापन करता है उस व्यक्ति की आयु, विद्या, यश और बल चारों बढ़ते है। भारतीय शास्त्रों में अनेक स्थलों पर प्रणाम का महत्व बतलाया गया है। मृकन्डु नाम के एक ऋषि थे। उनके पुत्र का नाम मार्कण्डेय था। वे बाल्यकाल से ही पिता के संस्कार सिंचन के अनुसार माता-पिता, गुरुजनों और संत-महात्माओं को नमस्कार करते थे। एक बार सप्तर्षिमण्डल उनके घर आया हुआ था। बालक मार्कण्डेय सप्तर्षिमण्डल को प्रणाम किया। सप्तर्षिमण्डल ने बालक को शतायु होने का आशीर्वाद दिया। किन्तु सप्तर्षियों ने ध्यान करके देखा तो ज्ञात हुआ कि बालक अल्पायु है और इसके जीवन की आयु बहुत कम शेष है। मृकण्डु ऋषि अपने पुत्र के विषय में यह दुःखद बात सुनकर भौचक्के रह गये। उन्होंने हाथ जोड़कर निवेदन किया कि ऋषिवर इसका कोई उपाय बताओ।
सप्तर्षियों ने कहा कि जो भी संत महापुरुष आयें उनके चरणों में इस बालक से प्रणाम कराओ। यह कहकर सप्तर्षिमण्डल ने बालक के सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया। मृकण्डु ऋषि ने कहा कि महाराज! इसकी आयु कम है एवं इसको आपके द्वारा चिरंजीवी होने का आशीर्वाद मिला है। सप्तर्षियों ने कहा इस बालक को भगवान शंकर की सेवा और पूजा आराधना में लगा दीजिए, सब ठीक हो जायेगा। मृकण्डु ऋषि ने बालक मार्कण्डेय को भगवान शंकर की उपासना में लगा दिये। बालक प्रातःकाल शीघ्र उठकर, स्नान आदि से पवित्र होकर भगवान शंकर की पूजा करना प्रारम्भ कर दिया और ओम् नमः शिवाय का जप करता, ध्यान करता, स्तोत्रों का पाठ करता। धीरे-धीरे उसके मृत्यु की घड़ी नजदीक आ रही थी।
एक दिन यमराज स्वयं उसको लेने प्रकट हुये उन्हें देखकर बालक डर गया और शिवलिंग से आलंगित हो गया। भगवान शंकर ने यमराज से कहा कि इस बालक को कहा ले जा रहे हो। यमराज ने कहा महाराज इस बालक की आयु समाप्त हो गयी है। सृष्टि के नियम के अनुसार मंे अपने कत्र्तव्य का पालन करने आया हूं। भगवान शंकर ने कहा पहले अपने बहीखाते के हिसाब को देखों। जब यमराज ने बहीखाता देखा तो बालक के खाते में लम्बी आयु जमा हुयी थी। सृष्टि का संहार करने वाले देवाधिदेव योगीश्वर पशुपतिनाथ जिसका रक्षण करे उसका कोई बाल तक बांका कैसे कर सकता है? मार्कण्डेय चिरंजीवी बन गये। यह सब उनके प्रणाम की महिमा का ही फल था।
इसी प्रकार परस्पर प्रणाम करने से परिवार में दिव्य भावनाएं प्रबल होंगी तो लड़ाई-झगड़ों एवं कटुता के लिए अवकाश ही नहीं रहेगा। पारिवारिक जीवन मधुर बन जायेगा। इसीलिए मंदिर में या महात्माओं का दर्शन करने यदि लोग जाये तो झुककर के प्रणाम करना चाहिए इससे मूर्ति या महापुरुषों के आभामंडल से जो तेज निकलता है वह प्रणाम करने वाले व्यक्ति में आविष्ट हो जाता है। इससे जो प्रणाम करता है वह भी यशस्वी और तेजस्वी बनता है। इसीलिए भारतीय संस्कृति में बड़ों को प्रणाम करने का उपदेश दिया गया है। महापुरुषों के मुख पर सरस्वती का वास होता है। उनके मुख से निकली हुई वाणी सत्य होती है। प्रणाम करने से महापुरुषों के अन्तकरण से जो आवाज निकलती है वह सत्य होती है और प्रणाम करने वाले को लौकिक और पारलौकिक सुख प्रदान करती है। इससे संतति वृद्धि होती है।
प्रणाम करने से क्रोध, मान, माया, लोभ का शमन होता है। क्रोधी व्यक्ति का अन्तःकरण अपवित्र होता है। उसके द्वारा कही गयी बात कोई महत्व नहीं रखती। किन्तु महापुरुषों की बात सत्य होती है। उनकी वाणी का अर्थ अनुकरण करता है। अर्थात् वे जो कुछ कहते है वह जरूर सत्य होता है। इसीलिए प्राचीनकाल में ऋषियों मुनियों को प्रसन्न रखा जाता था। जिससे उनके मुख से आशीर्वादात्मक वाणी ही निकले। महाकवि कालिदास ने अभिज्ञानशाकुन्तलम् में शकुन्तला को दुर्वाशा ऋषि से श्राप का दृष्टांत प्रस्तुत किया है। जब ऋषि दुर्वाशा शकुन्तला की कुटिया पर भिक्षा मांगने आये तो उस समय शकुन्तला किसी और के ध्यान में मग्न होने के कारण ऋषि दुर्वाशा की अवहेलना की। इससे क्रुद्ध होकर के ऋषि दुर्वाशा ने उसे श्राप दे दिया। बहुत अनुनय विनय और प्रणाम पूर्वक आग्रह करने के बाद ऋषि दुर्वाशा ने श्राप के प्रभाव को कम करने का उपाय बताया।
इससे यह ज्ञात होता है कि ऋषियों और मुनियों का चरण स्पर्श पूर्वक प्रणाम करना चाहिए। उन्हें अप्रसन्न नहीं करना चाहिए। नहीं तो इससे बहुत हानि होती है। ऋषियों की वाणी सदा सत्य होती है। इसी प्रकार अनेक दृष्टान्त भारतीय वांगमय में प्रणाम की महिमा कोे सिद्ध करते है। काव्यों के प्रारम्भ में कवि अपने इष्ट देव को प्रणाम करने के बाद ही काव्यरचना प्रारम्भ करता है। यही मंगलाचरण कहलाता है। मंगलाचरण करने से काव्य निर्वाद्ध समाप्त होता है। इससे इष्टदेव की प्रसन्नता का लाभ रचनाकार को मिलता है। अतः कोई भी कार्य करने से पूर्व अपने इष्टदेव, बड़े लोगों आशीर्वाद अवश्य लेना चाहिए। जिससे कार्य निर्विघ्न समाप्त हो जाये। अतः प्रणाम की महिमा स्वयं सिद्ध है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं विचार हैं)