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लगभग डेढ़ वर्ष पूर्व कर्नाटक में एक दर्ज़न से भी अधिक हुए विधानसभा उप चुनावों तथा कुछ महीने पूर्व विधान परिषद के चुनावों में बीजेपी मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस से बहुत आगे रही और उसने अधिकतर सीटों पर विजय दर्ज की। दिसम्बर के अंत में राज्य में लगभग 6 हजार पंचायतों की लगभग 90 सीटों के लिए हुए चुनावो में बीजेपी जिस प्रकार कांग्रेस से आगे रही उससे साफ संकेत मिलते हैं कि दक्षिण के इस राज्य में बीजेपी अपनी ताकत लगातार बढ़ा रही है। हालांकि कांग्रेस दूसरे नंबर पर है लेकिन इसके और बीजेपी के वोट प्रतिशत में अंतर अधिक नहीं। सबसे बुरी हालत क्षेत्रीय दल जनता दल (स) की है जिसकी सीटें और वोट प्रतिशत दोनों ही लगातार घट रहे है एक समय था जब यह दल पहले बीजेपी के साथ और बाद में कांग्रेस के साथ सरकार बनाकर सत्ता में रह चुका है।
अगले महीने 30 जिलों की जिला समितियों और 176 तहसील समितियो के चुनाव होने है। इसके लिये बीजेपी ने अभी से तैयारी शुरू कर दी हैं। इसके बाद राज्य में एक लोकसभा तथा दो विधानसभा उप चुनाव हैं जिसके लिए पार्टी नेताओं ने अभी से रणनीति बनाना शुरू कर दिया है।
चूँकि पंचायत चुनाव सभी दलों ने बिना किसी चुनाव चिन्ह के लड़े थे कांग्रेस बीजेपी के दावे को स्वीकार नहीं कर रही है कि बीजेपी कुल सीटों की 60 प्रतिशत सीटें जीती है। उधर बीजेपी ने नेताओं का कहना है कि उन्होंने एक-एक सीट का आकलन करने के बाद यह तय पाया है कि पार्टी को कम से कम 60 प्रतिशत सीटों पर जीत मिली है। पार्टी महासचिव टी. एन. रवि का कहना है चूँकि जिला और तहसील समितियों के चुनाव दलीय आधार पर लड़े जाने वाले हैं इसलिए उनके नतीजे साफ बता देंगे कि ग्रामीण इलाकों में भी बीजेपी अन्य दलों से कहीं आगे है।
जब पंचायती राज कानून बना तब यह कल्पना की गई थी कि गांवों में लोग मिल बैठकर ही पंचों और सरपंचों का सर्वसम्मति से ही चुनाव कर लेंगे तथा औपचारिक चुनाव की नौबत ही नहीं आयेगी। लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। जब से कानून में संशोधन कर पंचायतो को सीधे धन राशि मिलने लगी है तब ग्रामीण क्षेत्रों के ये चुनाव विधानसभाओं और लोकसभा चुनावों से भी अधिक महत्वपूर्ण और खर्चीले भी हो गए है। कहने को तो राज्य में इस बार लगभग 8000 पंच निर्विरोध निर्वाचित हुए है। लेकिन इसमें सच्चाई कुछ और ही है। पिछले कुछ समय से पंच पदों की सरेआम नीलामी होती आ रही है। कई बार यह नीलामी 5 लाख तक पहुँच जाती है। अक्सर यह नीलामी गाँव के मंदिर अथवा ऐसे ही धार्मिक स्थल पर होती है। कई बार तो संभावित उम्मीदवार यह वायदा कर दिया करता था वह इतनी राशि मंदिर के सुधार अथवा इसके नए निर्माण पर खर्च करेगा। पार्ट अक्सर पंच पदों के संभावित उम्मीदवारों को यह राशि मिल जाती थी।
चुनावों से पहले राज्य चुनाव आयोग ने जिला अधिकारियों को यह कड़ी हिदायत दी थी कि इस तरह पंच पद की सरेआम नीलामी नहीं होनी दी जाये। इसके बावजूद अगर कहीं चुपचाप नीलामी की शिकायत आती है तो संबंधित सर्वसम्मत उम्मीदवारी की जाँच की जायेगी तथा इस तरह के सर्वसम्मत उम्मीदवार के चुनाव को अवैध घोषित का फिर से चुनाव करवाया जायेगा। लेकिन अब चुनाव आयोग का कहना है कि ना तो चुनावों के दौरान और न ही मत गणना के दिन तक उसे इस तरह की कोई शिकायत मिली इसलिए इन सभी 8 हज़ार उम्मीद्वारों को जीतने की घोषणा के अलावा कोई चारा नहीं था।
बीजेपी ने अपने उच्च स्तर पर यह तय किया है कि किसी भी चुनाव अथवा उप चुनाव को वह हलके से नहीं लेगी और उसे जीतने के लिए पूरी ताकत झोंक देगी। ऐसा ही पार्टी नेताओं ने कुछ समय पूर्व हैदराबाद महानगर निगम के चुनावों में किया। यहाँ तक की पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे .पी. नड्डा के अलावा केंद्रीय गृहमंत्री और पार्टी के कद्दावर नेता अमित शाह को भी चुनाव प्रचार में उतार दिया। फल यह हुआ कि पिछले चुनावों की तुलना में बीजेपी को 4 की बजाये 44 सीटें मिली। इसे सबसे बड़े और सत्तारूढ़ दल तेलंगाना राष्ट्र समिति के बराबर लगभग 38 प्रतिशत वोट मिले।
कर्नाटक पंचायत चुनावों में भी बीजेपी ने यही रणनीति अपनायी और अपने सभी छोटे बड़े नेताओं को चुनाव मैदान में उतार दिया। सत्तारूढ़ दल होने के कारण आर्थिक संसाधनों की कोई कमी नहीं आने दी गयी। उधर कांग्रेस सारे चुनाव में एकजुट तथा गंभीर नहीं दिखाई दी जिसका पूरा लाभ बीजेपी को मिला। राज्य कांग्रेस के अध्यक्ष डी. के. शिवकुमार का कहना है कि बीजेपी ने इन चुनावों में सरकारी तंत्र का बड़े स्तर पर दुरूपयोग किया। इसके अलावा उन्होंने हार का ठीकरा पूर्व मुख्यमंत्री तथा वर्तमान विधानसभा में विपक्ष के नेता सिद्धारमैया पर डाल दिया। उन्होंने यह मानने से इंकार कर दिया कि उनके अध्यक्ष बनने के बाद भी पार्टी का संगठन उतना मज़बूत नहीं हुआ जो उनको इस पद लाने से उम्मीद की गयी थी। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)