लेखक : प्रोफेसर (डॉ.) सोहन राज तातेड़
पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्विद्यालय, राजस्थान
http//daylife.page
भारत के प्रायः सभी विश्वविद्यालयों में प्राच्य एवं पाश्चात्य संस्कृति के बारें में अध्ययन और अध्यापन का कार्य होता है। प्राच्य संस्कृति से तात्पर्य है भारत की संस्कृति से। भारत प्राच्य संस्कृति का सबसे प्रमुख देश है। इस संस्कृति में चरित्र निर्माण पर अधिक बल दिया जाता हैै।
यहां कहा गया है कि यदि किसी आदमी के चरित्र पर दाग लग जाये तो वह मृत्यु से भी निंदनीय है। इसलिए यहां पर चरित्र की रक्षा के लिए बहुत बल दिया गया है। चैरासी लाख योनियों में सभी जीव अपने कर्म के अनुसार जन्म लेते रहते है और मरते रहते है। भारत में जीव, जगत, आत्मा, ईश्वर, परमात्मा और मोक्ष विषयक चिंतन प्रचूर मात्रा में पाया जाता है। पाश्चात्य जगत् में पदार्थों पर अधिक चिंतन किया गया है। वहां पर आत्मा-परमात्मा जैसे विषयों पर चिंतन अधिक नहीं मिलता। पाश्चात्यों का दृष्टिकोण अधिकतर भौतिकवादी है। इसलिए वे भौतिक पदार्थों के ऊपर अधिक चिंतन करते है और इस क्षेत्र में बहुत प्रगति की है। भारत में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को चार पुरुषार्थ माना गया है। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास चार आश्रम माने गये है। यहां पर संयुक्त परिवार प्रथा को अधिक महत्व दिया गया है।
संस्कारों के अनुरूप जीवन बिताने और संस्कारों का जीवन में आचरण करने का उपदेश पदे-पदे पर मिलता है। इन्हीं सब कारणों से भारत को विश्व गुरू कहा जाता है। पाश्चात्य जगत में यह सब बाते उतनी मात्रा में नहीं दिखायी देती जितनी भारत में। आत्मा जो कि चेतना युक्त है इस विषय पर भारत में गंभीर चिंतन हुआ है। भारतीय दर्शन किसी न किसी रूप में आत्मा के अस्तित्त्व में विश्वास करता है, क्योंकि आत्मा के अस्तित्त्व को माने बिना कर्म और पुनर्जन्म की व्याख्या ही नहीं की जा सकती। आत्मा ही एक ऐसा शाश्वत तत्त्व है जिसके आधार पर मानव अपने अस्तित्त्व को सिद्ध करता है। मानव जन्म बहुत दुर्लभ है, इसे पाकर जो मनुष्य आत्मोपलब्धि नहीं करता वह बहुत बड़ी भूल करता है। जब तक यह दुर्लभ मानव शरीर विद्यमान है, तभी तक शीघ्र से शीघ्र परमतत्त्व को जान लिया जाय तो सब प्रकार से कुशल है।
यदि यह अवसर व्यर्थ हो गया तो महान् विनाश हो जायेगा--बार-बार मृत्यु रूप संसार के प्रवाह में बहना पड़ेगा। संसार के त्रिविधतापों और विविध शूलों से बचने का यही एक परम साधन है कि जीव मानव जन्म में दक्षता के साथ साधन परायण होकर अपने जीवन को सदा के लिये सार्थक कर ले। मनुष्य जन्म के सिवा और जितनी योनियां हैं, सभी केवल कर्मों का फल भोगने के लिये ही मिलती हैं। इसके अनुसार मानव जीवन का परम लक्ष्य आत्मामृत की प्राप्ति ही है। वह आत्मा दो प्रकार की है, एक जीवात्मा दूसरी परमात्मा। परमात्मा या ईश्वर सर्वज्ञ है, और एक है। जीवात्मा प्रत्येक शरीर में भिन्न-भिन्न व्यापक और नित्य है। आत्मा नित्य शुद्ध-बुद्ध मुक्त है। वह सच्चिदानन्द बताया गया है। अपराविद्या वेद, व्याकरण, निरूक्त, छंद, ज्योतिष आदि शास्त्रों का ज्ञान है और परा विद्या केवल अक्षरब्रह्म का ज्ञान है।
जो पराविद्या अर्थात् आत्मविद्या को जानता है वही सच्चा ज्ञाता है वह संसार सागर को पार कर जाता है। ब्रह्म को जगत् की उत्पत्ति, स्थिति एवं प्रलय का कारण कहा गया है। वे समस्त देवों तथा लोकों के उत्पत्ति स्थान हैं। स्थूल, सूक्ष्म, अव्यक्त, दो पैरों वाले और चार पैरों वाले सम्पूर्ण जीव समुदाय उन्हंी की कृपा पर आश्रित हैं। वे ही परमेश्वर स्थितिकाल में समस्त ब्रह्माण्डों की रक्षा करते हैं तथा वे ही सम्पूर्ण जगत् के अधिपति और समस्त प्राणियों में अन्तर्यामी रूप से छिपे हुए है। प्राच्य संस्कृति में ज्ञान को बहुत महत्व दिया गया है। यहां कहा गया है कि ज्ञान के बिना मोक्ष संभव नहीं। ज्ञान के द्वारा कर्मों को नष्ट किया जाता है। ज्ञान वह अग्नि है जो ईन्धनतुल्य सभी कर्मों को भस्म कर देती है। अतः ज्ञान के समान कुछ भी पवित्र नहीं हैं।
पदार्थ को हम जड़ कहते है। पदार्थ विषयक चिंतन पाश्चात्य संस्कृति के केन्द्र में है। आज विज्ञान ने जो उन्नति की है इससे ज्ञात होता है कि पाश्चात्यों का दृष्टिकोण कितना अधिक पदार्थवादी है। विज्ञान की उन्नति के साथ ही भौतिकवादी दृष्टिकोण में खावो पियो और मस्त रहो को अधिक महत्व दिया गया है। पाश्चात्य संस्कृति में वैवाहिक संस्कार को न मानकर विवाह को एक समझौता माना जाता है। इसलिए वहां पर एक आदमी कई स्त्रियों के साथ विवाह करके जीवन का आनन्द उठाता है जबकि भारत में विवाह को एक संस्कार के रूप में ग्रहण किया गया है और एक पत्नी व्रत का पालन किया जाता है। पाश्चात्य जगत में आत्मा जीव, जगत, पुनर्जन्म, मोक्ष विषयक चिंतन को अधिक महत्व नहीं दिया गया है। भारत में चेतना पर अधिक चिंतन किया गया है और योग के द्वारा इसकी गहराई में उतरकर साक्षात्कार करने का प्रयास किया गया है।
इसलिए यह कहा जा सकता है कि आत्मा शुद्ध-बुद्ध-मुक्त और चैतन्य स्वरूप है। जैसे सूर्य संसार को प्रकाशित करता है वैसे ही आत्मा अन्तःकरण को प्रकाशित करती है। जीवन का अंतिम उद्देश्य यहां मोक्ष को माना गया है। मोक्ष का अर्थ है जन्म-कर्म के बंधन से मुक्त होकर के आत्मा का अपने स्वरूप में स्थिर हो जाना। जिससे इस संसार में जीव का पुनरावगमन न हो। पाश्चात्य संस्कृति में खुलापन अधिक दिखलायी देता है। वहां पर नग्नता को एक फैशन माना जाता है। अंगप्रदर्शन की प्रवृत्ति वहां अधिक है, जबकि भारतीय संस्कृति में इन सबका निषेध है। अतः प्राच्य और पाश्चात्य दोनों संस्कृतियां सभ्यता की मुख्य धारा से जुड़ी हुई है। (विद्वान लेखक का अध्ययन एवं विचार हैं)