लेखिका : लता अग्रवाल
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान)
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देश में बढ़ते वृद्धाश्रम की संख्या इस बात का संकेत है कि हमारे समाज व परिवार ने बुजुर्गो को किस प्रकार उपेक्षित कर दिया है। सयुंक्त परिवार प्रथा में घर का मुखिया वटवृक्ष के समान होता था। जिसकी छाया में बच्चों को प्यार ओर युवाओ को मार्गदर्शन व पूरे परिवार को आश्रय व संबल मिलता था। अब हमारी संस्कृति पर पश्चिमी सभ्यता का असर होने लगा है। युवापीढ़ी को बुजुर्गों की देखभाल बोझ लगने लगी है दूसरी ओर एकल परिवारों में पति-पत्नी काम पर चले जाते हैं। युवा पीढ़ी को मौज-मस्ती व निजता के कारण बुजुर्गों को आश्रमों में छौड़ आते हैं।
मुख्य बात जिनकी प्रतिमाह पेंशन आती है तो पैसे के लालच में जैसे तैसे रुखी सूखी रोटी दे दी जाती है। पर जो आर्थिक रुप से परिवार पर आश्रित है उनकी स्थिति चिंताजनक व दयनीय है। अगर घर में कोई बुजुर्ग है तो न कोई उनकी बात मानते हैं, न ही किसी घरेलू मामले में उनकी राय लेना पसंद करते हैं क्योंकि हर परिवार में लगभग यही हाल है तो पूरे समाज में कोई भी एक-दूसरे के घर मे दखलंदाजी नहीं कर सकता। इसका परिणाम तो यहाँ तक देखा गया है कि कई बार खाते-पीते घर के बुजुर्ग भी सडकों पर लावारिसों की तरह घूमते मिल जाएंगे। जिनका कोई ठोर ठीकाना नहीं है। यह स्थिति हमारे समाज व परिवार के लिए विचारणीय है। खासकर युवा पीढ़ी को सोचना चाहिए कि आज इनकी बारी है तो आपकी बारी भी हो सकती है।