लेखक : प्रोफेसर (डॉ.) सोहन राज तातेड़
पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्विद्यालय, राजस्थान
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भारतीय अध्यात्म साधना में श्वास का बड़ा महत्व है। सम्यक् श्वास से रक्त परिसंचरण की क्रिया होती है तथा कोशिकाओं को पूरी मात्रा में आक्सीजन मिलती है तथा रोग-प्रतिरोध शक्ति बढ़ती है। श्वास प्रेक्षा के द्वारा प्राण की साधना की जाती है। श्वास स्वचालित व इच्छाचालित दोनों ही है। श्वास प्रेक्षा ज्ञाता-द्रष्टा भाव को विकसित करने का सक्षम उपाय है। हमारे चेतना का मूल धर्म है- जानना और देखना, ज्ञाता-भाव और द्रष्टा-भाव। हम जब अपने अस्तित्व में होते है, आत्मा की सन्निधि में होते है तब केवल जानना और देखना ये दो ही बाते घटित होती है किन्तु जब बाहर आते है, अपने केन्द्र से हटकर परिधि में आते है तथा साथ में और कुछ जुड़ जाता है, मिश्रण हो जाता है। मिश्रण होते ही जानना देखना छूट जाता है और सोचना-विचारना, चिंतन करना, मनन करना रह जाता है। चिन्तन-मनन सत्य की खोज के लिए अध्यात्म की चेतना को जगाना होगा।
यह द्रष्टा भाव से ही सम्भव होता हैं। श्वास का सम्बन्ध है- प्राण से और प्राण का सम्बन्ध है पर्याप्ति से। यह जीवन के पहले ही क्षण में निर्मित हो जाता है। प्राण को भी प्राण चाहिए। वह प्राण आकाश-मंडल से प्राप्त होता है। सारे आकाश-मंडल में प्राण-चक्र फैला हुआ है। आहार पर्याप्ति के योग्य वर्गणाएं सारे आकाश में फैली हुई हैं। वे प्राप्त होती है-श्श्वास के मध्यम से। श्वास भीतर जाता है, उसके साथ प्राणवायु भीतर जाती है। प्राण तत्त्व भी भीतर जाता है और प्राण-तत्त्व का ऊर्जा के रूप में परिणमन होता है। हमारे जीवन क समूचा क्रम, हमारी सारी प्रवृत्तियां प्राणशक्ति या प्राण ऊर्जा के द्वारा संचालित होती है। यदि प्राण की ऊर्जा नहीं है तो चेतना टिक नहीं सकेगी।
हम जितना गहरा श्वास लेते है, उतनी ही अधिक प्राण-शक्ति प्राप्त होती है। जब हम श्वास-प्रेक्षा द्वारा श्वास-दर्शन करते हैं, तब प्राण-शक्ति और बढ़ जाती है। श्वास दो प्रकार का होता है- सहज और प्रयत्न-जनित। प्रयत्न के द्वारा श्वास में परिवर्तन किया जा सकता है, छोटे श्वास को दीर्घ बनाया जा सकता है। साधना को विकसित करने के लिए प्राण-शक्ति की प्रचुरता अपेक्षित होती है। प्राण-शक्ति के लिए श्वास का ईंधन चाहिए। श्वास का ईंधन जितना सशक्त होगा, प्राण-शक्ति उतनी ही सशक्त होगी और प्राण-शक्ति जितनी सशक्त होगी, हमारी साधना उतनी ही सफल होगी। श्वास को सशक्त बनाने के लिए ही हमे उसे दीर्घ बनाना चाहिए। जीवन और श्वास का अन्योन्य संबंध है। शरीर स्वास्थ्य की दृष्टि से श्वास न हो तो हमारी मांसपेशियां गति नहीं करती, हमारे शरीर में क्षमता नहीं होती।
हमारे दिमाग के तंतु मृतप्रायः हो जाते। हृदय की धड़कन बंद हो जाती है और आदमी मर जाता है। समूचे शरीर को संचालित करने के लिए श्वास ईंधन देता है अतः श्वास जीवन का एक मूल्यवान पक्ष है। श्वास प्रेक्षा की वैज्ञानिकता को समझने के लिए श्वसन क्रिया को समझना आवश्यक है। प्राणियों में श्वसन एक आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है, जिसके द्वारा शरीर की प्रत्येक कोशिका को आॅक्सीजन की प्राप्ति होती है और कार्बन-डाइ-आॅक्साइड का निष्कासन होता है। श्वास, प्राण और पर्याप्ति का आपस में घनिष्ठ सम्बन्ध है। सम्पूर्ण आकाश मण्डल में प्राण चक्र फैला हुआ है। शरीर और इन्द्रियों की सक्रियता के लिये प्राण ऊर्जा की सक्रियता आवश्यक है। यौगिक प्रदर्शन भी प्राण शक्ति के प्रदर्शन हैं। प्राण शक्ति के जागरण के लिये स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाना होता है। श्वास ही एक मात्र तत्व है जो शरीर के बाहर भी जाता है और भीतर भी जाता है। मन को पकड़ने के लिये श्वास को पकड़ना पड़ेगा।
मन को श्वास के साथ जोड़कर भीतर जाना ही अन्तर्यात्रा का प्रारम्भ है। साधनाकाल में श्वास की साधना में श्वास प्रेक्षा नींव का पत्थर है। शरीर की सभी क्रियाओं को संपादित करने के लिए विभिन्न तंत्र कार्यरत होते हैं। ये सभी तंत्र एक निश्चित अनुपात में कार्य करते हैं, जिससे शरीर के भीतर साम्यावस्था बनी रहती है। स्वस्थ जीवन के लिए साम्यावस्था का होना अत्यन्त आवश्यक है। शारीरिक दृष्टि से श्वासप्रेक्षा से अनेक लाभ प्राप्त होते हैं। श्वासप्रेक्षा से सारे शरीर में होने वाली टूट-फूट की गति में मंदता आती है, हृदय के कार्यभार में कमी होती है, रक्तचाप मे अनावश्यक वृद्धि को रोका जा सकता है तथा मस्तिष्कीय शक्ति में वृद्धि होती है। प्राणवायु प्राण को उत्तेजित करती है, सहायता देती है। हम जितनी मात्रा में प्राणवायु (आक्सीजन) लेंगे, उतना ही प्राण विशुद्ध होगा, सक्रिय होगा। यदि प्राणवायु नहीं मिलेगी तो प्राण में उत्तेजना नहीं आएगी, सक्रियता नहीं आएगी।
वैज्ञानिक दृष्टि से विचार करें तो रक्त शुद्धि के लिए ईंधन चाहिए। वह ईंधन है प्राणवायु, आक्सीजन। यदि प्राण उचित मात्रा में मिलता है तो अशुद्ध रक्त को शुद्ध कर कार्बन आदि को शरीर से बाहर कर दिया जाता है और शुद्ध रक्त भीतर प्रवाहित होता है। प्राणवायु रक्त के माध्यम से प्राण को भी उत्तेजित करता है, सक्रिय करता है। यदि पौंधे को पानी का पर्याप्त सिंचन मिलेगा तो लहलहा उठेगा। इसी प्रकार प्राणवायु का पर्याप्त सिंचन मिलने पर प्राण का पौंधा भी लहलहा उठता है। पूरा सिंचन न मिलने पर यह पौंधा कुम्हला जाता है। व्यक्ति निष्प्राण और निष्क्रिय हो जाता है। प्राणवायु को सही से लेने का साधन है प्राणायाम। श्वास पर नियंत्रण किये बिना वृत्तियों एवं भावों का परिष्कार असंभव है हमारे निषेधात्मक एवं सकारात्मक दोनों ही प्रकार की वृत्तियों का संबंध श्वास के साथ है। श्वासपे्रक्षा के प्रयोग से शरीर स्वस्थ रहता है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)