पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्विद्यालय, राजस्थान
सुख-दुःख कभी न खत्म होने वाला एक चक्र है
विधायक विचारों से प्रगति
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मानव जीवन में सुख और दुःख का द्वन्द्व चलता रहता है। सुख में मानव के विचार विधायात्मक रहते है और दुःख में नकारात्मक। जीवन एक प्रवाह की तरह है जहां ढ़ेर सारी खुशियों के बीच में दुःख भी आते रहते है। सुख में आदमी सुख का अनुभव करता है और दुःख में दुःख का। सुख-दुःख मानव जीवन में आने वाले दो पढ़ाव हैै। जो व्यक्ति सुख में न तो अधिक सुखी होता है और दुःख में न अधिक दुःखी होता है वही सच्चा मानव है। यह सुख-दुःख कभी न खत्म होने वाला एक चक्र है। जैसे चक्र का पहिया ऊपर नीचे हुआ करता है वैसे जीवन में सुख-दुःख आते जाते रहते है। जीवन की परिस्थितियां तो कर्मों पर आधारित होती है।
इसलिए किसी नकारात्मक परिस्थिति से बच पाना सम्भव नहीं है, लेकिन खुद को इस परिस्थिति से भावनात्मक एवं आध्यात्मिक सहारे की मदद से बचाकर नकारात्मकता को स्वीकरात्मकता में बदला जा सकता है। मानव का दृष्टिकोण ऐसा होना चाहिए कि वह नकारात्मकता में भी सकारात्मकता को खोज ले। सिर्फ सकारात्मक सोच ही हमें इस संसार में खुशियां दे सकती है। हमारी हर सोच आने वाली परिस्थिति के बीज बोती है, तो क्यों न हम सकारात्मक सोच रखे।
किसी मुश्किल घड़ी में यदि हम सकारात्मक सोच रखते है तो वह दुःखदायी परिस्थिति को भी सुखदायी बना देती है। जब हमारा मन पाॅजिटिव होगा तब हमें दिव्यता का अनुभव होगा। सकारात्मकता निर्मलता की निशानी है और मन की निर्मलता परम सुख है। किसी दुःखद घटना के वक्त सकारात्मक रहना कठिन है। ऐसी दशा में हम नकरात्मकता का किस तरह से सामना करे ताकि वह हमें कष्ट न दे। सांसारिक कठिनाईयों के बीच में रहकर सकारात्मक दृष्टिकोण रखना बहुत कठिन है फिर भी ज्ञानीजन कीचड़ में कमल के पत्ते की तरह निर्लिप्त रहते है। सकारात्मक सोच हमें बड़े से बड़े युद्ध में विजय प्राप्त करा सकती है और जीवन में हमें कई तरह की परेशानियों से मुक्त करा सकती है। संसार में ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं है जिसके पास परेशानी न हो लेकिन हर इंसान परेशान रोता हुआ तो नहीं दिखायी देता।
परेशानी के समय में भी जो अपनी सोच को विधायक बनाये रखता है उससे लड़कर आगे सफल हो जाता है वह परिस्थिति पर विजय प्राप्त कर लेता है। सकारात्मक विचार ईश्वर की देन है, जबकि नकारात्मक शैतान की। इस संसार में सुख-दुःख का द्वन्द्व चलता रहता है। सकारात्मक सोच वाले लोग ही जीवन में सफल हो पाते है। सकारात्मक सोच वाले व्यक्ति के आसपास सभी लोग रहना चाहते है। आज का आदमी नकारात्मकता का शिकार है उसे शांति का अनुभव नहीं होता है। वह निरंतर बैचेन रहता है। नकारात्मकता को दूर करने के लिए यह जानना आवश्यक है कि यह क्यों पैदा होता है। हम मन का श्रम तो करते है किन्तु उसको विश्राम देना नहीं जानते हैं। हम चिन्तन करना जानते है किन्तु अचिन्तन की बात नहीं जानते, चिन्तन से मुक्त होना नहीं जानते। मानसिक नकारात्मकता का मुख्य कारण है- अधिक सोचना।
सोचने की भी एक बीमारी है। कुछ लोग इस बीमारी से इतने ग्रस्त है कि कार्य हो या न हो, वे निरंतर कुछ न कुछ सोचते रहते है। मन को विश्राम देना भी संभव है, जब हम वर्तमान में रहना सीख जाये। वह स्मृतियों की उदेड़बन में या कल्पनाओं के ताने बाने में व्यस्त रहता है वर्तमान में जिनका अर्थ है-मन को विश्राम देना, बाहर से मुक्त होना, मानसिक तनाव से छुटकारा पाना। मानव जो चिन्तन करता है, उसमें कुछ भाव ऐसे आते हैं जो उसके जीवन को ऊंचा उठाते हैं किन्तु कुछ भाव ऐसे भी होते हैं जो जीवन को पतन की ओर ले जाते हैं। स्वीकारात्मक विचार मानव को ऊपर उठाते है और नकारात्मक विचार मानव को पतन के गर्त में गिरा देते है। नकारात्मक विचारों में एक भाव है “घृणा”।
जब कोई वस्तु अपने विचार-आदर्ष या कल्पना के विरूद्ध हो तो व्यक्ति उसके प्रति “घृणा” करने लगता है। कोई कहे कि इसमें क्या दोष है जो बुरा है उसे बुरा समझे। बात ठीक भी लगती है कि बुरे को बुरा समझने में क्या हानि, किन्तु अब जरा इस बात के अन्तर में जाने का प्रयत्न करिये कि बुरा क्या है? यह संसार पदार्थों से भरा हुआ है, कुछ पदार्थ हमारे अनुकूल है और कुछ प्रतिकूल। अनुकूल के प्रति हमारा राग होता है और प्रतिकूल के प्रति हमारा द्वेष। राग-द्वेष के कारण हमारे विचार भी सकारात्मक और नकारात्मक हो जाते है। जो पदार्थ हमारे रूचि के अनुकूल है उसके प्रति स्वीकरात्मक विचार होता है और जो रूचि के प्रतिकूल है उसके प्रति निषेधात्मक विचार होता है। भारत में भी कहीं कहीं साम्प्रदायिक या जातिय संघर्ष कभी-कभी हुआ करता है। वे सभी तुच्छ घृणा पर आधारित हैं। जो अवास्तविक और जघन्य हैैैं।
कोई ब्राह्मण, बनिया या मुसलमान होने से बुरा नहीं हो सकता, बुरा होता है, बुराई से। यह बुराई ही, व्यक्ति को घृणा से भरने वाला पाप है अतः व्यक्ति के स्थान पर बुराई को ही मिटाने का यत्न होना चाहिये। जीवन की धारा में जो अन्धाधुन्ध घृणा का मैला भरता जा रहा है, उसे तुरन्त रोकना आवष्यक है, अन्यथा वैयक्तिक जीवन ही नहीं, सारा राष्ट्र और विष्व ही खतरे में पड़ जाएगा। आज मानव की निगाहों में मानव का पतन हो चुका है। वह व्यक्ति को कीट पतंग से अधिक कुछ भी समझने के लिए तैयार नहीं। आत्मीयता जो मानव का एक विराट चेतना स्पन्दन है, आज लगभग जड़ बन चुका है। सकारात्मक विचार से जो व्यक्ति अपनी चेतना को पुष्ट कर लेता है उसके मन में नकारात्मक विचार नहीं आते। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)