क्या आप आध्यात्मिक उपलब्धि एवं मनोकायिक बीमारियों से मुक्ति चाहते हैं ?
लेखक : प्रोफेसर (डॉ.) सोहन राज तातेड़ 

पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्विद्यालय, राजस्थान

कायोत्सर्ग द्वारा मानसिक शांति

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कायोत्सर्ग का अर्थ है शरीर का शिथिलीकरण। कायोत्सर्ग करने का मुख्य उद्देश्य है- आध्यात्मिक उपलब्धि एवं मनोकायिक बीमारियों से मुक्ति पाना। मनोकायिक बीमारियों भावनात्मक असंतुलन एवं दुव्र्यसनों से व्यक्ति को मुक्त करना। कायोत्सर्ग का मनःकायिक प्रयोजन है। मनोकायिक बीमारियां वे हैं जो शरीर में दिखाई नहीं देती है किन्तु जिनका कारण शरीर में नहीं होकर मन में होता है। ऐसी बीमारियों से मुक्ति पाने के लिए कायोत्सर्ग सहायक है। यदि हमे अपने स्थूल चेतना की बात को भीतर से सूक्ष्म तक पहुंचाना है तो कायोत्सर्ग करना आवश्यक है। 

यदि शरीर की प्रवृत्तियों और स्नायविक प्रवृत्तियों का शिथिलीकरण नहीं है तो बात भीतर तक नहीं पहुंच सकती। कायोत्सर्ग दोनों और से किया जाता है बाहर से करने पर सबसे पहले हाथों, पैरों, वाणी और इन्द्रियों का संयम करना होगा। जब हम भीतर से चलेंगे तब उस मुद्रा में बैठना होगा जिसमें मन की दिशा और प्राण की धारा बदल जाये मन और प्राण की सारी ऊर्जा भीतर की और बहने लग जाये। शरीर के समस्त अवयव अपने आप शांत हो जायेंगे जब हाथ, पैर और वाणी संयम घटित होता है तब इन्द्रियों के तनाव कम हो जाते  है उनमें उठने वाली आकांक्षाओं की तरंग कम हो जाती है। तब अध्यात्म की यात्रा शुरू होती है। अध्यात्म की यात्रा करने के लिए हमें कायोत्सर्ग का सहारा लेना होगा। मानसिक शांति का सबसे बड़ा उपाय है चित्त-समाधि। 

चित्त-समाधि के लिए आवश्यक है चित्त की शुद्धि। चित्त की शुद्धि का सबसे बड़ा सूत्र है शरीर की स्थिरता। शरीर जितना स्थिर होता है, उतना ही चित्त शुद्ध होता है चित्त की अशुद्धि का सबसे बड़ा कारण है- चित्त की चंचलता। शरीर के स्थिर हुए बिना चित्त की स्थिरता नहीं होती है। शरीर के स्थिर हुए बिना श्वास शांत नहीं होता है। वैज्ञानिक जगत में कायोत्सर्ग की प्रक्रिया तनाव मुक्ति, शिथिलीकरण की अचूक प्रक्रिया के रूप में सम्मानित हो चुकी है किन्तु कायोत्सर्ग मात्र शिथिलीकरण ही नहीं है, अध्यात्मवेताओं ने कायोत्सर्ग को साधना का प्रारंभिक व अंतिम सोपान माना है। कायोत्सर्ग स्थिरता से प्रारम्भ होता है तथा देह-मुक्ति विदेह अवस्था में पूर्ण हो जाता है। आज का आदमी तनाव का शिकार है उसे शांति का अनुभव नहीं होता है। जब व्यक्ति अत्यधिक शारीरिक श्रम करता है तो थक जाता है तब उसके शरीर में तनाव निर्मित हो जाता है।

 हम मन का श्रम तो करते हैं किन्तु उसको विश्राम देना नहीं जानते हैं। हम चिन्तन करना जानते हैं किन्तु अचिन्तन की बात नहीं जानते, चिन्तन से मुक्त होना नहीं जानते। मानसिक तनाव का मुख्य कारण है- अधिक सोचना। सोचने की भी एक बीमारी है। कुछ लोग इस बीमारी से इतने ग्रस्त है कि कार्य हो या न हो, वे निरंतर कुछ न कुछ सोचते रहते हंै। मन को विश्राम देना भी संभव है जब हम वर्तमान में रहना सीख जाये। भावनात्मक तनाव सबसे विकट समस्यां है। मानसिक तनाव से भी भावनात्मक तनाव के परिणाम भयंकर होते है। शरीर का शिथिलीकरण या उसकी स्थिरता ही विसर्जन है। विसर्जन का अर्थ है- शरीर और चैतन्य के पृथकत्व का स्पष्ट अनुभव। यह लगने लगता है कि शरीर भिन्न है और चैतन्य भिन्न है। कायोत्सर्ग से शरीर की सारी चंचलता समाप्त हो जाती है। आत्मा के मूल स्वरूप ज्ञाता-द्रष्टाभाव का जागरण होता है। साधक हर घटना या परिस्थिति को ज्ञाता द्रष्टाभाव से जानता और देखता है। 

कायोत्सर्ग खड़े रहकर, बैठकर और लेटकर तीनों मुद्राओं में किया जाता है। खड़े रहकर करना उत्तम कायोत्सर्ग, बैठकर करना मध्य कायोत्सर्ग, लेटकर करना सामान्य कायोत्सर्ग है। कायोत्सर्ग करने के लिए सीधे खड़ें रहें। दोनों हाथ शरीर से सटे रहे। एड़ियां मिली हुई, पंजे खुले रहे। श्वास भरते हुए हाथों को ऊपर की ओर ले जाये। पंजों पर खड़े होकर पूरे शरीर को तनाव दे, श्वास छोड़ते हुए हाथों को साथल के पास ले आएं और शिथिलता का अनुभव करें। इस प्रकार तीन आवृत्तियों द्वारा क्रमशः तनाव और शिथिलता की स्थिति का अनुभव करें। पीठ के बल लेटें। दोनों पैर मिले हुए हो। दोनों हाथों को सिर की ओर फैलाए। जितना तनाव दे सके तनाव दे, साथ में मूलबंध का प्रयोग करें फिर शरीर को स्थिल छोड़ दे। दोनों पैरों के मध्य एक फुट का फासला रहे। हाथों को शरीर के समानान्तर आधा फुट की दूरी पर फैलायें। कायोत्सर्ग की मुद्रा में आ जाये, आंखें बंद, श्वास मंद। 

शरीर को स्थिर रखे। शरीर को प्रतिमा की भांति अडोल रखे। पूरे कायोत्सर्ग काल तक पूरी स्थिरता। पैर के अंगूठे से सिर तक चित्त और प्राण की यात्रा करें। अनुभव करें-पैर से सिर तक चैतन्य पूरी तरह से जाग्रत हो गया है। प्रत्येक अवयव में प्राण का अनुभव करें। दीर्घ श्वास के साथ प्रत्येक अवयव में सक्रियता का अनुभव करें। बैठने की मुद्रा में आएं। अब भेद-विज्ञान का अनुभव करें। जैसे मथने से छाछ और मक्खन को पृथक् किया जा सकता है वैसे ही शिथिलता के द्वारा शरीर और आत्मा को पृथक् किया जा सकता है। शरीर अचेतन है, आत्मा चेतन है। मैं शरीर नहीं हूं आत्मा हूं। शरीर दृश्य है मैं द्रष्टा हूं। अपने ज्ञाता-द्रष्टा स्वरूप को अनुभव करें। कायोत्सर्ग तनाव विसर्जन की प्रक्रिया है। तनाव की स्थिति में हाइपोथेलेमस, पिच्यूटरी ग्रंथि, एडरीनल ग्रंथि, स्वायत्त नाड़ी संस्थान का अनुकंपी भाग सक्रिय रहते है। तनाव में शरीर की पाचन क्रिया मंद, लार ग्रंथियां का सुखना, चयापचय की क्रिया में तेजी होना। अतः तनाव मुक्ति का सरल एवं सहज तरीका कायोत्सर्ग है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)