लेखक : नवीन जैन
वरिष्ठ पत्रकार, इंदौर
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हम लोग सुबह पांच साढ़े पाँच तक उठ जाते है।मैं, यदि ग़लत नहीं होऊं तो इस वक्त तक लगभग सभी लोग सोए रहते हैं। मग़र एक डॉक्टर और उसके घर वालों की तक़दीर में अब ऐसी नींद संभव नहीं। सभी जानकर भी पता नहीं क्यों इससे अनजान हैं। जो कोविड की गिरफ्त में आकर अस्पताल में भर्ती हैं, उनके परिजनों, सम्बंधित नेताओं और उनके रसूखदारों का दायित्व इन दिनों बढ़ गया है। मेरे पति एम.डी. हैं। नींद से उठने के पहले ही मोबाइल बजने लगता है, डॉक्टर साहब मरीज क्रिटिकल हो गया है। जल्दी आइए। दूसरा फोन, सर इमरजेंसी हैं। रोगी को साँस लेने में बहुत परेशानी आ रही है। बैड और ऑक्सीजन का इंतजाम आपके हॉस्पिटल में करवाने की कृपा करें। तीसरी घण्टी, सर ऑक्सीजन लेवल कम हो रहा। इंस्टियूब करना पड़ेगा। मेरे पति पहले तो झुंझलाहट में आ जाते हैं? फिर, अपने को साधते हैं, क्योंकि लम्बे समय से रोशनदान से सूरज बाद में आवाज़ लगाता है ,पहले मोबाइल घनघनाने लगता है। वे अस्पताल जाने के पहले शॉवर, शेव वगैरह के लिए जाते है।
आने के बाद अखबार सामने रखकर नाश्ता कॉफी पीने बैठते हैं। हम दोनो में हाँ ,ना में बात होती है। इस बीच बिटिया उठकर टुकर टुकर कर ऐसे देखती है कि जैसे पूछ रहीं हो पापा मॉम, इन दिनों ये चुप रहने की अनोखी बीमारी आप दोनों को कैसे लग गई। आप दोनों तो घर में अस्पताल या बीमारी की बात ही नहीं करते थे, जबकि अब दादीजी को भी अलग कमरे में सुला दिया। डॉक्टर साहब पूरी तरह तैयार होकर एक हाथ में अटैची और दूसरे हाथ मे हैंडसेट पकड़े सीढ़ियों से उतरते हैं। सोशल डिस्टेंस के कारण वे लिफ्ट भी नहीं लेते और फ़िलहाल ड्राइवर को भी मना कर दिया है। हाँ, उसकी पूरी सेलरी तय तारीख़ पर उसके खाते में डाल दी जाती है। कई बार यहाँ तक हो जाता है कि जल्दबाजी में डॉक्टर साहब नाश्ता अधूरा छोड़ जाते हैं। ठीक है कि यह बेहद जटिल दौर है, मग़र एक पत्नी को तो डॉक्टर पति के समय पर खाने पीने का ध्यान रखना पड़ता है न।
वो भी ऐसे दौर में जब किसी भी कीमत पर भूखा रहने से बचा ही जाना चाहिए। मैं ,दोपहर एक डेढ़ बजे फोन पर उनसे बात करने को उतावली हो जाती हूँ, लेकिन हरेक बार और चिंतित हो जाती हूँ। डॉक्टर साहब के कोविड सेंटर से वही पका पकाया जवाब मिलता है सर,अभी ड्यूटी पर हैं, पीपीई किट पहन रखा है, कुछ मरीज सिरियस हो रहे हैं। समय मिलते ही बात करवा देंगे। सॉरी मैडम या भाभीजी। फिर फोन पे फोन। भर्ती मरीजों के फ़ोन। नेताओं तथा रसूखदारों के अपने लोगों के फ़ोन। नेता अभिनेता तो होते ही हैं, अब तो सीनियर मोस्ट डॉक्टर भी होने लगे है। मेरे पति से पूछते है ऑक्सीजन लेवल कितना है, शूगर कितनी है, आप कुछ भी करें। हमारी पार्टी के कार्यकर्ता को बचाना आपकी जिम्मेदारी है। यानी,सीधे धमकी। किसी आम आदमी के लिए शायद ही इस तरह का कोई फ़ोन कभी आता हो।
मेरे पति दोपहर में डेढ़ दो बजे आकर कई बार भोजन करते नहीं, ठूँस लेते हैं। फ़िर थोड़ा सा आराम। फिर वही अस्पताल। दूसरी लहर में शायद ही कभी साढ़े दस या ग्यारह के पहले वे लौटे हों। फोन नहीं लेते तो मैसेज करना पड़ता है। डिनर करके फ़िर चले जाएँ। आपके इंतज़ार में हम भी भूखे बैठे हैं, लेकिन कब तक? यदि कभी बात हो भी जाए तो हमारी बिटिया फोन छीनकर कहने लगती है पापा, आप इतने बडे डॉक्टर होकर भी कोविड को भगा नहीं सकते। मुझे आपसे कहानी सुने बिना नींद नहीं आती। आ भी जाती है तो उचट जाती है। हम दोनों की रुलाई ऐसे में अपने आप फूट पड़ती है। ऐसी बरसातें पता नहीं किसने भेज दीं। डॉक्टर साहब फ़िर राउंड पर जाएँ या न जाएँ, स्वस्थ मरीजों के लगातार इसलिए फ़ोन आते रहते हैं कि अब क्या क्या सावधानियां बरतनी है। एक डॉक्टर कितनों को परामर्श दे सकता है? फ्लोर अटेंडेंट डॉक्टर या अन्य मेडिकल स्टाफ नाम की भी कोई चीज़ होती है न।
हर बड़े आदमी को लगता है कि उसके पेशेंट की ही जान बचनी चाहिए, बाकी के साथ कुछ भी होता रहे। क्या यह व्यवहार अमानवीय नहीं है? इस गाढ़े वक़्त में हम सभी को एक दूसरे के साथ इस विभीषिका से लड़ना है। जीने का हक़ सभी को है।कलेजा फट जाएगा आपका यह सुनकर कि मेरे श्वशुर का निधन कोविड की वजह से ही हुआ था। मेरे पति को इस सच्चाई को सही मानने में ढाई तीन महीने लगे। वे मुझसे कह चुके हैं कि अब नहीं होता मुझसे यह सब। मैं थक चुका हूँ। इसके बाद भी वे काम पर जाते ही हैं। उन्होंने थकना तो सीखा है, लेकिन भगोड़ा होना नहीं। कोई भी आकर देख सकता है कि मेरे डॉक्टर पति की एक बार इतनी पिटाई की गई कि उसके निशान उनके हाथो में अभी भी देखे जा सकते है।
ये ज़ख्म तो खैर भर जाएँगे, मग़र उक्त मारामारी से मेरे पूरे परिवार के आत्म सम्मान को जो ज़ख्म मिले हैं, वे कैसे भर पाएंगे!!!पेशेंट जब गम्भीर अवस्था में दाखिल होता है तब धन की पेटियां भरी होने का हवाला दिया जाता है लेकिन दुर्भाग्यवश किसी-किसी की मृत्यु हो गई तो अक्सर उसका दाह संस्कार करवाने में भारी मुश्किलें आती हैं। शव अनाथ छोड़ दिए जाते हैं। एक एम. डी. डॉक्टर की पत्नी होने के कारण मैं पूरे समाज से सुरक्षा कवच मांगने की अधिकारी तो हूँ। वर्ना तो हम जैसी सभी डॉक्टर फैमिलीज का मानसिक संतुलन न बिगड़ने का कौन दावा कर सकता है। (नाम उजागर नहीं करने की शर्त पर एक एम. डी.डॉक्टर की पत्नी का इंटरव्यू ) (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)