लाख तरक्की के बावजूद हम बुजुर्गों का ख्याल रखने में पीछे

लेखक : अतुल मलिकराम

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बुढ़ापा किसी व्यक्ति की उम्र का एक ऐसा पड़ाव होता है, जिसमें प्रवेश करने के बाद उसके जीवन में एक बार फिर से बचपन दस्तक देता है। वही बचपन, जिसके लिए हम कहते हैं कि यह एक बार चला गया, तो फिर कभी लौटकर नहीं आएगा। वृद्धावस्था में बचपन का पुनः आगमन वास्तव में अद्भुत और अतुलनीय है। ऐसा इसलिए है क्योंकि बुजुर्ग व्यक्ति का स्वभाव एक बच्चे की तरह ही होता है, छोटी-छोटी बातों में खुशियां ढूंढने की आदत और भावनाओं का गहरा सागर, बड़े-बूढ़ों के दिलों में एक बच्चे की तरह ही उमड़ता है। जिस तरह एक छोटे बच्चे को हर क्षण अपनी माता के आँचल और पिता के साए से घिरे रहना बेहद लुभाता है, ठीक इसी प्रकार बुजुर्गों को भी अपने बच्चों को अपने आसपास हँसते-खेलते देख उत्तम आनंद की अनुभूति होती है। वे उम्र के इस अद्भुत पड़ाव में अपनों का प्यार और साथ चाहते हैं। इसलिए उनके साथ बैठकर भोजन करें, उनके साथ टहलने जाएं, उनके स्वास्थ्य का ख्याल रखें, उन्हें क्षण भर के लिए भी अकेला न छोड़ें, उनकी आवश्यकताओं का ध्यान रखें, उन्हें आश्वासन दें कि हर एक स्थिति में आप उनके साथ हैं। 

हम आए दिन विभिन्न क्षेत्रों में तरक्की कर रहे हैं, लेकिन सत्य यह है कि इन सबके बावजूद हम बुजुर्गों का ख्याल रखने में काफी पीछे हैं। जिन्होंने हमें ऊँगली पकड़कर चलना सिखाया, हमारी टूटी-फूटी बोली से जो जग जीत जाया करते थे, जिनकी गोद में हम पले-बढ़े, जिनकी आँचल की छाँव ने हम पर कभी दुःख रूपी धूप का साया तक नहीं पड़ने दिया, जिनके कांधों पर बैठकर हम दुनिया की सैर कर आते थे, जो खुद सारी रात जागकर हमें लोरियाँ सुनाते रहे, ताकि हम चैन की नींद सो सकें, जिन्होंने हमारे भीतर संस्कारों की मजबूत नींव गढ़ी, क्या हम उनके इन उपकारों को वास्तव में नजर अंदाज करने का विचार भी अपने मन में ला सकते हैं? अपने जीवन के अंतिम दौर में वे हमसे क्या चाहते हैं? सिर्फ परिवार का साथ। है न!! लेकिन हम क्या कर रहे हैं? हम उनसे उनका बचपन और बुढ़ापा दोनों छीन रहे हैं। भले ही हमारा उद्देश्य नकारात्मक न हो, लेकिन कमाने की होड़ में हम घर की बुनियाद हिलाकर यानी बुजुर्गों का साथ छोड़कर एकल परिवार की नींव गढ़ रहे हैं, हम पूरे परिवार को जाने-अनजाने में तोड़ने का कारण बन रहे हैं, उनसे उनके सबसे अच्छे और सच्चे दोस्त, उनके नाती-पोते छीनने की वजह बन रहे हैं। दादी-नानी की कहानियां भी अब इस वजह से विलुप्त होती नजर आ रही हैं। 

कारण कुछ भी हो, लेकिन यह सत्य है कि बीते कुछ वर्षों में एकल परिवार का चलन काफी तेजी से बढ़ा है, ऐसे में बच्चे और बुजुर्ग दोनों ही एक-दूसरे के प्यार से वंचित हो रहे हैं। बहुत कम ही परिवार बचे हैं, जो बुजुर्गों के आशीर्वाद से फलीभूत हैं। क्या वास्तव में बुजुर्गों के आशीर्वाद के बिना हमारे जीवन के कुछ मायने हैं? बदलते जमाने के साथ आज कई बुजुर्ग अपने अंतिम दिन वृद्धाश्रम में गुजारने को मजबूर हो चले हैं। क्या उन्हें ठेस पहुँचाकर हम भविष्य में खुश रह पाएंगे? यह कतई न भूलें, कि आज हमारे द्वारा किए गए कर्म कल हमें ढूंढते हुए जरूर हमारे सामने आएँगे। मंदिरों में भारी मात्रा में दिया गया चढ़ावा और नित दिन भी यदि हम दान-धर्म करें, तो हमें इसके लिए धूल के कण बराबर भी पुण्य फल प्राप्त नहीं होगा, यदि हम माता-पिता को पूजने में असमर्थ हैं, क्योंकि शास्त्रों में भी माता-पिता को भगवान् का स्थान दिया गया है। इसलिए स्वयं से पहले उनका ख्याल रखें और उनके बुढ़ापे का सहारा बनें। जिनके सिर पर बुजुर्गों का हाथ है, सही मायने में वे ही दुनिया के सबसे धनी और सफल व्यक्ति हैं। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)