प्रधान सम्पादक, 'विश्वा', अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति, यू.एस.ए.
निवास : सीकर (राजस्थान)
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यदि आप राजनीति के वस्त्रों के पार जाकर देख सकने की क्षमता रखते है तो व्यंग्य लेखन की संभावनाएं कभी समाप्त नहीं होतीं। हाँ, ऐसे में यदि कोई स्पष्ट बहुमत की राष्ट्र प्रेमी सरकार आ जाए तो खतरों की संभावनाएं भी सदा बनी रहती हैं। कभी भी किसी की भी आस्था को चोट लग सकती है। किसी के भी टीके के बारे में प्रश्न करते हुए पोस्टर लगाने पर केस हो सकता है। सीधे-सीधे देशद्रोह का नहीं तो संपत्ति के विरूपीकरण का ही केस सही। जाना तो उसी पुलिस के पास है जो किसी भी धारा के तहत केस बना सकती है। 11 साल बिना सजा के जेल में सड़ा सकती है। और फिर निर्दोष सिद्ध हो जाने की स्थिति में आरोपी की पीड़ा के लिए उसकी कोई जिम्मेदारी नहीं. स्वामी स्टेंस की तरह जमानत की बजाय 'अस्पताल से अनंत' तक रवाना किया जा सकता है।
फिर भी हम जैसे जिनके पास 'नमो-नमो' और 'जय जय राजे राजस्थान' जैसा कुछ नहीं है, वे व्यंग्य ही लिखेंगे. हमारे एक मित्र हैं व्यंग्य लिखते हैं लेकिन ऐसा व्यंग्य कि कोई यह नहीं बता सकता कि यह किस कुकर्म के विरुद्ध है और इसका निशाना कौन है ? वे छप रहे हैं और बिक भी रहे हैं। जो बिकाऊ हो वह कभी न कभी बिक ही जाता है। प्रकाशक हमारे व्यंग्य को खतरनाक कहने की बजाय तात्कालिक कह कर नकार देते हैं। अब गंगा में बहते शवों को देखकर क्या उसके बारे अपनी प्रतिक्रिया देने के लिए सौ साल तक इंतज़ार करें जब उसके कारण स्वरूप व्यवस्था और व्यक्ति इतिहास बन जाएँ।
तोताराम की सलाह के अनुसार हमने छपने के लिए आत्मकल्याण, विश्व शांति, वसुधैव कुटुम्बकम, विश्व गुरु भारत, हमारा गौरवमय अतीत, वेदों में विज्ञान, महाराणा प्रताप की देशभक्ति और गीता, वन्दे मातरम और राष्ट्रप्रेम, गाय-गोबर और गौमूत्र जैसे शाश्वत महत्त्व के विषयों को लेकर एक छोटी सी पुस्तक लिख डाली और उसके साथ एक प्रकाशक के पास गए।
तोताराम ने प्रकाशक से कहा- अबकी बार मास्टर ने शाश्वत विषयों पर लिखा है। किसी की आलोचना नहीं है, सब कुछ सकारात्मक है।
पुस्तक की अनुक्रमाणिका देखकर प्रकाशक बोला- मास्टर जी, ऐसे विषयों की किताबें गीता प्रेस में छपती हैं और चंदे के पैसे से छपकर सस्ती बिकती हैं। कोई खरीदना नहीं चाहता। स्वर्ग में सीट रिजर्व करवाने वाले लोग खुद खरीदकर मुफ्त में 'सप्रेम पाठ' के लिए बाँटते हैं.या फिर गाँधी की आत्मकथा की तरह सस्ती तथा भारतीय भाषाओं में कम और अंग्रेजी में कुछ ज्यादा बिकती है। हम तो कॉफ़ी टेबल बुक छपते हैं।
हमने पूछा- यह कॉफ़ी टेबल बुक क्या होती है ? क्या कॉफ़ी बनाने, पीने और बेचने के बारे में होती है ?
प्रकाशक हमें हिकारत से देखता हुआ बोला- इसमें काम की बात कुछ नहीं होती. चित्र ज्यादा होते हैं। कीमत हजारों में होती है और चिकने कागज पर छपती है. वज़न बहुत होता है। ड्राइंग रूम में बैठा बोर होता व्यक्ति जिससे मिलने आया होता है उसके इंतज़ार में मन मार कर इसे किसी की शादी के एल्बम की तरह उलटता-पुलटता रहता है। इसे कोई उठाकर ले जाने की क्षमता नहीं जुटा सकता क्योंकि यह एक वजनी पुस्तक होती है। यह कुछ कुछ वैसी ही होती है जैसे नाई की दूकान पर चिकने रंगीन पन्नों वाली पुरानी पत्रिकाएं जो नंबर आने तक पढ़ी कम, देखि अधिक जाती हैं. वैसे आजकल इन्हें पलटना भी खतरे से खाली नहीं होता क्योंकि पता नहीं किस रंग का कौनसा वेरिएंट इन पर छिपकर बैठा हो।
हमें तो ऐसी तात्कालिक चीज चाहिए जैसे मोदी जी के 'मन की बात' या उनकी 'मोर, शोर, विभोर' और 'अभी तो सूरज उगा है' जैसी कविताएँ या 'दीन दयाल ग्रंथावली' जिसकी सभी विद्यालयों में जबरन खरीद हो। या जैसे किसी ज़माने में एल पी साही के रिश्तेदार का रामचरित मानस का घटिया अंग्रेजी अनुवाद केंद्रीय विद्यालयों को जबरन खरीदवाया गया था. जिसमें हनुमान को मंकी गॉड बना दिया गया था।
हमने कहा- हम कोई राज्यपाल तो हैं नहीं कि जिनके पार्टी-प्रेम-प्रचार की कहानी उनका कोई मातहत लिखे और किसी निजी शैक्षणिक संस्थान का मालिक सह लेखक बनकर, तकनीकी पुस्तक बताकर छापे, चार हजार रुपए मूल्य रखे और ऑफिस के लेटर हैड पर निमंत्रण देकर राज्य के 27 विश्वविद्यालयों के उपकुलपतियों को बुलाकर मुख्यमंत्री की उपस्थिति में पुस्तक का विमोचन करवाकर सभी उपकुलपतियों को बीस-बीस प्रतियां चिपका दें। ध्यान रहे इसमें इस कार्यक्रम के आयोजन का खर्च और उपकुलपतियों का जयपुर आने-जाने का टीए, डीए शामिल नहीं है।
प्रकाशक बोला- तो फिर किसी नेता का चालीसा लिखो और खुद ही छपवाकर बांटों। हो सकता है किसी गुजरात की साहित्य अकादमी की तरह कोई इस महान साहित्य पर पांच-दस हजार का छोटा-मोटा पुरस्कार दे दे। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)