भाषा प्रेम की ?
लेखिका : रश्मि अग्रवाल

नजीबाबाद

9837028700 

प्रेम की भाषा नहीं, यह एक एहसास होता है। जब जीवन विषम परिस्थितियों के मध्य होता, तब दो विकल्प होते- हम भाग खड़े हों या स्वयं के भीतर प्रेम की शक्ति को समेट कर इनसे संघर्ष करें क्योंकि घृणा भेदभाव का भाव हृदय को दूषित करता संसाररूपी भवसागर से तारता नहीं बल्कि डाँवाडोल स्थिति उत्पन्न कर देता है। प्रेम सिर्फ बड़े उपहार लेने-देने से नहीं बल्कि प्रेम करने वाले को अपने साथी की प्रत्येक पीड़ा का एहसास स्वमेव हो जाता और वो कहे या न कहे... उसके जज्बात, हृदय तक पहुँच ही जाते हैं। इसलिए प्रेम में सिर्फ भोग नहीं त्याग, समर्पण भी होना चाहिए और यह प्रत्येक रिश्ते में हो ताकि बंधनों से मुक्त ‘प्रेम’ किसी रिश्ते में हो, वह एहसास होता, जब व्यक्ति अभिव्यक्ति के बिना एक दूजे के भाव में त्याग और समर्पण का जज़्वा रखते हुए वास्तविक प्रेम की परिभाषा गढ़ते हों क्योंकि आवश्यक नहीं जिसे हमनें प्रेम समझा हो व प्रेम हो, खेल भी हो सकता है। तात्पर्य कि प्रेम के अतिरिक्त प्रेम की कोई इच्छा नहीं होती।