हिमालय दिवस पर ज्ञानेन्द्र रावत द्वारा लिखित विशेष लेख
लेखक : ज्ञानेन्द्र रावत
(वरिष्ठ पत्रकार एवं विख्यात पर्यावरणविद हैं)
www.daylife.page
आज हिन्दूकुश-हिमालयी पर्वत श्रृंखला संकट में है। इसका सबसे बडा़ कारण इस समूची पर्वत श्रृंखला के पठारी,तीखे और खडे़ ढाल वाले पहाडी़ इलाके के जंगलों का पर्यटन और अनियंत्रित विकास की चाह की खातिर किया गया अंधाधुंध कटान है। यही नहीं बाहरी लोगों द्वारा स्थानीय संसाधनों के बेतहाशा उपयोग किये जाने के चलते समस्या और विकराल हुयी है और पर्यावरण बुरी तरह प्रभावित हुआ है। पहाडी़ और पठारी इलाकों में गरीबी बढी़ है सो अलग। जबकि आजीविका के संकट से पलायन बढा़, तीस फीसदी से ज्यादा आबादी खाद्य असुरक्षा और पचास फीसदी महिलाएं किसी न किसी रूप से कुपोषण की शिकार हैं। इस क्षेत्र के पर्यावरणीय और आजीविका के संकट में मुख्यतः मानवीय हस्तक्षेप की अहम भूमिका है। जबकि यह पूरा इलाका आपदाओं और देशों के क्षेत्र पर प्रभुत्व बनाये रखने हेतु होने वाले संघर्ष का सर्वाधिक प्रभावित क्षेत्र है।यह विचार पर्यावरणविद ज्ञानेन्द्र रावत ने हिमालय दिवस की पूर्व संध्या पर एटा में होली मुहल्ला स्थित अपने आवास पर बातचीत के दौरान व्यक्त किये।
उनके अनुसार उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव के बाद दुनिया का स्वच्छ जल का सबसे बडा़ स्रोत है जिसे एशिया की जल मीनार के नाम से जाना जाता है। 42 लाख वर्ग किलोमीटर में फैला यह इलाका अफगानिस्तान, पाकिस्तान, भारत, नेपाल, भूटान, बांग्लादेश, म्यांमार, चीन आदि देशों में फैला है और यहां से सिंधु, गंगा, ब्रह्मपुत्र, इरावती, सलवान, मीकांग, यलो, यांग्तसे, अमदुरिया और तारिम नदियों का उदगम हुआ है। इन नदियों के कछारों को मोटे तौर पर पठारी, तीखे तथा खडे़ ढाल वाले पहाडी़ व कम ढाल वाले मैदानी इलाकों में बांटा जा सकता है। इन नदियों के बेसिन में तकरीब दो सौ करोड़ आबादी वास करती है। इस इलाके में जैव विविधता के चार वैश्विक हाट स्पाट हैं। यह सदियों से उक्त देशों के अलावा थाईलैंड, लाओस, कंबोडिया और वियतनाम सहित अपने कछार के निवासियों को स्वच्छ पर्यावरण, पानी तथा आजीविका के अवसर मुहैय्या कराती रही हैं। यह पारिस्थितिकी का दुनिया का सबसे विशाल भंडार है। लेकिन इतनी विशिष्टताओं, सबसे बडे़ पर्वत समूह, चोटियों, मान्यताओं, संस्कृतियों,धार्मिक रीति रिवाजों, बोलियों, परंपराओं , सबसे जुदा लोक संस्कृति और संसाधनों वाला इलाका बीते सालों से आजीविका, जैव-वि़विधता, ऊर्जा, भोजन और पानी का संकट झेल रहा है।
आज सबसे अधिक जरूरत इस बात की है कि 3500 किलोमीटर में फैली इस पर्वत श्रृंखला को पर्यावरणीय और आजीविका संकट के निराकरण की दिशा में जंगलों की कटाई और विकास परियोजनाओं को लागू करने से पहले अविलम्ब उनका गहनता से परीक्षण किया जाये अन्यथा सारा विकास धरा का धरा रह जायेगा और भविष्य में जलवायु परिवर्तन का कारण बनने वाले ग्रीन हाउस गैसों पर लगाम लगाने वाले सारे प्रयास बेमानी होंगे और देश का भाल कहा जाने वाले हिमालय का अस्तित्व खत्म हो जायेगा। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)