आज की बचत, कल की मुस्कान...!!

 30 अक्टूबर विश्व मितव्ययता दिवस 

सफलता का मार्ग बचत...!!

लेखक : विवेक वैश्णव, अधिस्वीकृत पत्रकार

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साल के प्रत्येक दिन का एक विषेश महत्व एवं संदेष होता है। प्रत्येक वर्ष 30 अक्टूबर को पूरे विश्व में मितव्ययता दिवस मनाया जाता है।  वर्ष 1924 में इटली के मिलान में पहला अंतर्राष्ट्रीय मितव्ययता सम्मेलन आयोजित किया गया था और उसी में एकमत से प्रस्ताव पारित कर प्रतिवर्ष मितव्ययता दिवस मनाये जाने का निर्णय लिया गया था। विष्व मितव्ययता दिवस मनाने का उद्देश्य हमारे व्यवहार को बचत की दिशा में बदलना तथा हमें धन के महत्व की याद दिलाना है। मितव्ययता जीवन में सादगी, संयम, अनावश्यक खर्चो पर नियंत्रण तथा दिखावा मुक्त जीवन का संदेश देती है।

विश्व भर के महापुरूषों ने सादा जीवन, उच्च विचार के आदर्श को प्रतिपादित किया है। आवश्यकताओं का जन्म मनोरथ से होता है और मनोरथ की कोई अंतिम सीमा नही होती है। एक के पूरी होते ही दूसरी आवश्यकता उत्पन्न हो जाती है। मितव्ययता प्रारंभ से ही भारतीय संस्कृति का एक आदर्श रही है। भारतीय सनातन संस्कृति में ऋषि मुनियों ने लाखों वर्शो से मितव्ययता का समाज को न सिर्फ संदेश दिया है वरन् स्वयं ने भी मितव्ययी रहकर समाज में उदाहरण पेष किया है। मितव्ययता आर्थिक विषमताओं और विसंगतियों को दूर करने का एक माध्यम है। भारतीय संस्कृति ने मितव्ययता की दृष्टि से ईच्छाओं का परिसीमन, व्यक्तिगत उपभोग का संयम के सूत्र दिये है। आस्ट्रिया स्पेयरफ्रोह नामक एक परम्परा का निर्वहन करता है, जिसका अर्थ सेव हैप्पीली है और यह विश्व बचत दिवस के महत्व पर प्रकाश भी डालता है।

आज का युग स्वार्थ और दिखावे का युग है और इसके चक्कर में हम न जाने कितने ही पैसे व्यर्थ के बर्बाद कर देते है। मौज शौक के दुनिया के कारण ही आज लोन संस्कृति भी अपने चरम पर है। आज बाजार में हर चीज के लिए लोन उपलब्ध है। शादी समारोह में दिखावे के नाम पर बेतहाशा खर्च आज स्टेट्स सिंबल बन चुका है। दुनिया में लाखों लोगों को पेटभर भोजन नही मिलता है तो कई रोजमर्रा की जिन्दगी में खाने की बर्बादी करते है। चीन में ‘‘क्लीन योर प्लेट’’ नामक अभियान ने भोजन की बचत को लेकर जागरूकता बढ़ाने का प्रयास किया है। आज का उपभोक्तावादी दृष्टिकोण केवल एक सम्मोहन है जिसमें पहले जब कोई वस्तु आती है तो वह सुख देने वाली लगती है और अंत में वह दुख देकर चली जाती है।

महात्मा गांधी के आदर्श हमें कम से कम वस्तुओं एवं सुविधाओं पर जीना सिखाते है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी मितव्ययता के लिए वीआईपी कल्चर पर नियंत्रण लगाया है। कोरोना काल ने मितव्ययता एवं संचय के आधार पर जीवन को नये रूप में निर्मित करने की कला सिखाई है। सरकार भी मितव्ययता के बारे में समय समय पर संदेश कर जनता को जागरूक करती रहती है। पानी बचाओ - बिजली बचाओ - बेटी बचाओ - सबको पढ़ाओ आदि कुछ चर्चित संदेश है। 

हाल ही में कोयला कमी के चलते बिजली बचाने पर ज्यादा फोकस किया जा रहा है। ईंधन बचाने पर भी विशेष फोकस किया जा रहा है। हर संसाधन सीमित है और उसकी बचत की बातें की जाती है। आज से चार पांच दशक पूर्व तक सड़कों पर जितनी साइकिले नजर नही आती थी उससे कई गुना दुपहिया एवं चौपहिया वाहन आज सड़कों पर सरपट दौड रहे है। संसाधनों की एक सीमा होती है और हम विलासिता एवं दिखावे के चक्कर में बेमतलब एवं बेतहाशा खपत किये जा रहे है। यदि मितव्ययता का संस्कार लोकजीवन में आत्मसात हो जाए तो समाज एवं राष्ट्र में व्याप्त दिखावे की संस्कृति एवं फिजूलखर्ची पर नियंत्रण हो सकेगा। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)