पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्वविद्यालयए राजस्थान
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मनुष्य प्रकृति का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। मनुष्य में मानवता होनी चाहिए। यदि मनुष्य में मानवता नहीं है तो वह पशु से भी बदतर है। इस संसार में एक इन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीव पाये जाते है। चेतना का अन्तर सभी प्राणियों में स्पष्ट दिखलायी देता है। इन सभी प्राणियों में मनुष्य सबसे अधिक विकसित है। उसमें बुद्धितत्व है। बुद्धितत्व के कारण चिंतनशीलता, विवेकशीलता का गुण उसमें है। ज्ञान केवल मनुष्य में है अन्य प्राणियों में नहीं। धार्मिक क्रियाकलाप, सामाजिक क्रियाकलाप इत्यादि भावना केवल मनुष्य में दिखलायी पड़ती है। प्रकृति ने मनुष्य को बहुत कुछ दिया है।
मानव का यह कर्त्तव्य है कि प्रकृति के खजाने को सुरक्षित रखे। यदि मनुष्य प्रकृति का संरक्षण करता रहेगा तो प्रकृति भी उसका संरक्षण करेगी। संसार में दो प्रकार के जीव हैं-त्रस और स्थावर। जो जीव सुख प्राप्ति के लिये तथा दुःख से निवृत्ति के लिये यत्र-तत्र गमनागमन करते हैं वे त्रस हैं। जिन जीवों में दुःखनिवृत्ति पूर्वक सुख प्राप्ति के लिये गमनागमन की क्षमता नहीं होती वे ‘स्थावर’ कहे जाते हैं। जीवों के छः प्रकार है-पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक। स्थावर नामकर्म के उदय से उत्पन्न हुई विशेषता के कारण पृथ्वी कायिक आदि पांचों स्थावर कहलाते हैं। पृथ्वी ही जिन जीवों का शरीर है वे जीव पृथ्वीकायिक जीव कहलाते हैं। पृथ्वी कायिक जीव जन्मना इन्द्रिय विकल, अन्ध, वधिर, मूक, पंगु और अवयवहीन मनुष्य की भांति अव्यक्त चेतनावाले होते हैं। शस्त्रों से छेदन-भेदन करने पर जैसे जन्मना इन्द्रिय विकल पुरुष को कष्टानुभूति होती है, वैसे ही पृथ्वीकायिक जीवों को भी होती है।
इसका तात्पर्य यह है कि जैसी आत्मा पृथ्वीकायिक जीवों की है, वैसे ही मनुष्य की भी है। आत्मा के स्वरूप में कोई भेद नहीं है, भेद है केवल ज्ञानावरणादि कर्मों का। जल ही जिन जीवों का शरीर है, वे जलकायिक जीव कहे जाते हैं। जल के आश्रित अनेक जीव होते हैं वे जलकायिक जीव नहीं हैं, किन्तु वे जल में उत्पन्न होने वाले त्रसकायिक जीव हैं। सब प्रकार के जल ओले, कुहरा, ओस ये सब जलकायिक जीवों के शरीर हैं। इन जीवों के शरीर सूक्ष्म होने के कारण दिखायी नहीं देते। जिस प्रकार इन्द्रिय सम्पन्न मनुष्य के पैरादि का शस्त्र से भेदन करने पर उसे अपार कष्टानुभूति होती है, वैसे ही जलकायिक जीवों को भी होती है। जल-कायिक जीवों में केवल स्पर्शेन्द्रिय होती है। अग्नि ही जिन जीवों का शरीर है, वे अग्निकायिक जीव हैं। जो अग्निकायिक लोक के अस्तित्व को अस्वीकार करता है, वह अपनी आत्मा के अस्तित्व को अस्वीकार करता है।
जैसे ज्वर की उष्मा जीव में ही पायी जाती है, उसी प्रकार उष्मावान् होने के कारण अग्नि भी जीव है, ऐसा अनुमान किया जाता है। सभी प्रकार के अग्नि, अंगारे, ज्वाला आदि अग्निकायिक जीवों के शरीर हैं। वायु ही जिन जीवों का काय है उन्हें वायुकायिक जीव कहते हैं। वायुकायिक जीव अतिसूक्ष्म होने के कारण दृष्टिगोचर नहीं होते। संसार में जितने भी प्रकार की वायु है वह इसी काय के अन्तर्गत है। वायुकायिक जीव जन्मना इन्द्रिय विकल मनुष्य की तरह अव्यक्त चेतना वाले होते हैं। शस्त्र से छेदन-भेदन करने पर जैसे जन्मना इन्द्रिय विकल मनुष्य को कष्टानुभूति होती है वैसे ही वायुकायिक जीव को भी होती है। पृथ्वी आदि में वनस्पति की तरह चैतन्य स्पष्ट नहीं होता। वनस्पतिकायिक जीवों की चेतना अधिक स्पष्ट होती है। त्रस कायिक जीव चार प्रकार के हैं- द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय। इस प्रकार त्रस कायिक जीवों में दो इन्द्रिय से लेकर पांच इन्द्रिय वाले जीवों की गणना होती है। दो इन्द्रियवाले जीव के स्पर्शन और रसना ये दो इन्द्रियां होती हैं।
शंखादि जीव इसके अन्तर्गत आते हैं। तीन इन्द्रिय वाले जीव के अन्तर्गत चीटीं आदि जीव हैं। चार इन्द्रियवाले जीव के अन्तर्गत भौंरा आदि जीव आते हैं। नरकगति, मनुष्यगति और देवगति में ही पंचेन्द्रिय जीव पाये जाते हैं। संसारी जीव कर्म करते हैं और कर्मों के अनुसार फल प्राप्त करते हैं। जन्म और कर्म की अनादि परम्परा है। कर्मोपाधि निरपेक्ष द्रव्यार्थिक नय के मत में जीव पारिणामिक भावयुक्त आत्मा मुक्त अथवा सिद्ध कही जाती है। शरीर मुक्त होेने के कारण यह आत्मा अमूर्त्त होती है। शब्दों के द्वारा उसका वर्णन नहीं किया जा सकता है, तर्कों के द्वारा उसे जाना नहीं जा सकता, बुद्धि के द्वारा उसे ग्रहण नहंी किया जा सकता। आत्मा न दीर्घ है और न ह्रस्व, न वृत्त है, न त्रिकोण है, न चतुष्कोण है और न परिमण्डल है। वह न कृष्ण है, न नील है, न लाल है, न पीत और न शुक्ल है।
वह न सुगन्ध है और न दुर्गन्ध है। वह न तिक्त है, न कटु है, न कषाय है, न अम्ल है और न मधुर है। वह न कर्कश है, न मृदु है, न गुरु है, न लघु है, न शीत है, न उष्ण है, न स्निग्ध है और न रुक्ष है। वह शरीरवान् भी नहीं है, वह जन्मधर्मा भी नहीं है, वह लेपयुक्त भी नहीं है। वह न स्त्री है, न पुरुष है, और न नपुंसक है। उसके लिये कोई उपमा नहीं है। वह अमूर्त्त अस्तित्त्व है। वह अपद है--उसका बोध कराने वाला कोई पद नहीं है। वह न शब्द है, न रूप है, न गंध है, न रस है, और न स्पर्श है। वह सर्वतः चैतन्यमय है। इन्द्रियों का विषयभूत जगत् तीन आयामों--ऊंचा, नीचा और तिरछा है। आत्मा सभी आयामों से अतीत है। इसलिये पौद्गलिक द्रव्य से उसकी भिन्नता प्रतिपादित करने के लिये ‘नेति’ पद का प्रयोग किया गया है। इससे यह सिद्ध होता है कि मानव सभी प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)