समाज में वरिष्ठ नागरिकों (बुजुर्गों) के दायित्व एवं अधिकार

लेखक : प्रोफेसर (डॉ.) सोहन राज तातेड़ 

पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्वविद्यालय, राजस्थान

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दायित्व एंव अधिकार एक सिक्के के दो पहलु है। जो उत्तदायित्व को समझता है उसके पास अधिकार स्वयं आ जाते है। परिवर्तन संसार का नियम है। जो आज युवा है वह कल वृद्ध होगा। इसलिए वृद्धों का कभी भी अपमान नहीं करना चाहिए। वृद्धों को वरिष्ठ नागरिक कहा जाता है। वरिष्ठ नागरिक हमारे लिए पूजनीय और आदरणीय है। भारत में यह हमारी संस्कृति, समाज और परिवार की परम्परा रही हैं कि हम वरीष्ठ नागरिकों की देखभाल करें, वरिष्ठ नागरिकों को उच्च प्रतिष्ठा दी जाती है और उन्हें सभी मामलों में आदर और सम्मान दिया जाता है। आज तेजी से बढ़ते शहरीकरण और आधुनिक परिस्थितियों की अनिवार्यता से संयुक्त परिवार परम्परा टूटती जा रही है। जिसके परिणामस्वरूप एकल परिवार प्रथा बढ़ रही है। 

चिकित्सा सुविधाओं की उपलब्धता के कारण मनुष्य की आयु में वृद्धि हुई है। जिससे देश में वरिष्ठ नागरिकों की संख्या बढ़ती जा रही है। रोजी-रोटी कमाने के लिए जब बच्चे अन्य शहरों में रहने लगते है तब माता-पिता अपने परिवार के पुराने स्थान पर रहना पसंद करते है। वे स्वयं को अकेला पाते है। बढ़ती उम्र की परेशानियों के साथ स्वास्थ्य की परेशानियां बढ़ती जाती है। भारत ने अपनी आजादी के साठ वर्ष पूरे कर लिये और इन साठ वर्षांे में भारत में बहुत कुछ बदला। सांस्कृतिक, आर्थिक एंव सामाजिक परिदृश्यों में परिवर्तन आया, विशेषकर आर्थिक परिदृश्य में। बदलाव की बयार में आमजन की परिस्थितियों में भी परिवर्तन हुआ। 

अच्छी चिकित्सकीय सेवा, खाद्यान्न उपलब्धता, आर्थिक सुदृढ़ीकरण ने जीवन प्रत्याशा को बढ़ा दिया, जिसका परिणाम रहा भारत में बुजुर्गों की संख्या में बढ़ोत्तरी। यह कटु सत्य है कि बदलते सामाजिक परिवेश में ‘वृद्धावस्था’ मानव जीवन की सबसे बडी त्रासदी है। क्योंकि यही वह अवस्था है, जब अपने भी मुंह फेर लेते हैं और यहीं से वह संघर्ष शुरू होता है, जिसमें व्यक्ति एकदम अकेला होता है। यहां के हर इंसान के मन में यह बात बैठी होती है कि जिस प्रकार से वह अपने बच्चों की देखभाल कर रहा है, वृद्धावस्था में उसके यही बच्चे उसकी इसी प्रकार देखभाल करेंगें। 

पहले ऐसा होता था, लेकिन जैसे-जैसे परिस्थितियां बदलती गयीं, वैसे-वैसेे अतीत काल की यह अवधारणा टूटती चली गई। वृद्ध का अर्थ है- ‘बुद्धि से सम्पन्न, बुद्धि से युक्त। बुद्धि से सम्पन्न’ यह बुद्धि आयु की भी हो सकती है और विद्या, धर्म अथवा अनुभव की भी। इसलिए जिस व्यक्ति में आयु, विद्या धर्म अथवा अनुभव की वृद्धि हो रही है वही वृद्धता का लक्षण है, मात्र आयु का ही अधिक हो जाना वृद्ध नहीं है। बल्कि एक पूर्णवृद्ध के परिवेश में आयु वृद्ध, ज्ञान वृद्ध और अनुभव वृद्ध का संयोग होता है। असामाजिक तत्वों के द्वारा किये जाने वाले अपराध और अपर्याप्त आय से उनकी असुरक्षा की भावना बढ़ने लगती है। बच्चे अपने जीवन में व्यस्त होने के कारण अपने वृद्ध मां-बाप को अधिक समय नहीं दे पाते। माता-पिता को अकेले ही गुजारा करना पड़ता है। 

माता-पिता और वरिष्ठ नागरिक समाज का एक भौतिक और मानसिक रूप से सक्रिय एक हिस्सा बनते है। जो उपभोक्ता तथा मतदाता की दोहरी ताकत वाला होता है। अतः इस वर्ग के दर्द के उन्मूलन हेतु सशक्त प्रयासों की आवश्यकता है। पिछले कुछ दशकों से समाज के अन्दर अनेक परिवर्तन हुए तथा इन परिवर्तनों के कारण अनेक समस्या का उदय भी हुआ। इन नई समस्याओं में एक प्रमुख समस्या हमारे सामने समाज में वृद्धजनों की समस्या है जो दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। इस समस्या का सबसे दुःखद व चिंतनीय पहलू यह है कि जिन वृद्ध महिलाओं तथा पुरुषों को परिवार के अन्दर भरपूर सम्मान प्राप्त होता था, जिनकी मर्जी के बिना परिवार में पत्ता तक नही हिलता था, वही वृद्धजन आज उपेक्षा व उत्पीड़न के शिकार हो चले है। 

आज परिवार के अन्दर न केवल उन्हें उपेक्षित किया जा रहा है, उनका शारीरिक व मानसिक उत्पीड़न किया जा रहा है, वे लोग अपना मानसिक दर्द, अपनी पीड़ा, अपनी व्यथा दूसरे को बता नही पाते। क्योंकि उनकी उपेक्षा और उनका उत्पीड़न करने वाला कोई और नहीं उनके बेटे व पारिवारिक जन हैं। अपने बेटों से छिपाकर या उनकों बगैर जानकारी दिए बैंकों तथा विभिन्न संस्थाओं में धन जमा करना तो साधारण बात है। इसकी जानकारी बेटों को न हो ताकि वह समय-कुसमय पैसे की मांग न कर सके। दूसरा कारण उनकी अपनी आर्थिक सुरक्षा के लिए वे यह आवश्यक समझते हैं कि जब तक उनका स्वंय का जीवन है उन्हें अपने खर्चो के लिए बेटों के सामने हाथ न फैलाना पड़े। 

जीवन के अंतिम पड़ाव की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कितना धन संचित करना आवश्यक है। यद्यपि इस प्रश्न का कोई उतर नही है क्योंकि दिन-प्रतिदिन बढ़ती हुई मंहगाई तथा स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के लिए कितनी धन राशि प्राप्त होगी इसका पहले से तय करना संभव नही है। फिर भी हर व्यक्ति को चाहिए की वह भविष्य के लिए कुछ धन की व्यवस्था अवश्य करे। कई समस्याओं के लिए हमारे बुजुर्ग स्वंय भी उत्तरदायी हैं। 

समस्याएं उनके स्वंय के व्यवहार, बर्ताव, व्यक्तित्व, रूढ़िवादी या परम्परावादी होने के कारण जन्म लेती हैं। जो बुजुर्ग मां-बाप कितने कष्टों को सहकर अपने बच्चों को पढ़ा-लिखाकर बड़ा कर उन्हें अपने पैरों पर खड़ा कर दिये हैं, वही पुत्र जब वृद्धावस्था में मां-बाप को वृद्धावस्था केन्द्र में डालकर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होेना चाहते है तो यह स्थिति उनके लिए असहनीय होती है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)