5 करोड़ का प्रधान, 10 करोड़ का जिला प्रमुख

लेखक : डा. सत्यनारायण सिंह

(रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी हैं) 

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प्रजातांत्रिक तथा प्रभूता सम्पन्न देश भारत में जनसामान्य के प्रति उत्तरदायी प्रशासन है, जो चुने हुए जनप्रतिनिधियों के माध्यम से प्रभावित एवं संचालित होता है। प्रजातांत्रिक विकेन्द्रीकरण से पंचायत, ब्लाक व जिला स्तर पर लोकप्रिय और प्रतिनिधिक पंचायतराज संस्थाओं का निर्माण हुआ और ग्रामीण क्षेत्रों में विद्यमान सामुदायिक विकास तंत्र व ग्रामीण विकास कार्य उसके अधीन किया गया है। प्रजातांत्रिक दृष्टि से यह एक उल्लेखनीय प्रगति थी। जिन निकायों का निर्माण किया गया वह आकार और प्राकृतिक दृष्टि से अधिक प्रतिनिधिक है। इन्हें पूर्ववर्ती प्राधिकारियों की अपेक्षा अधिक वास्तविक शक्तियाॅं भी दी गई हैं।

पंचायती राज कम से कम प्रारम्भिक दिनों में ग्रामीण क्षेत्रों में नवीन नेतृत्व का विकास करने में उपयोगी हुआ। स्थानीय नेतृत्व के साथ प्रतिबद्ध अधिकारियों ने विकास प्रक्रियाओं में प्रभावशाली ढंग से भाग लिया और पंचायतराज स्थापना का उद्देश्य बहुत हद तक सफल होता दिखाई दिया, परन्तु कालान्तर में पंचायतीराज को बहुधा निहित स्वार्थो ने हथिया लिया।  पंचायती राज संस्थाओं के चुनाव ने जातिवाद व भ्रष्टाचार को प्रश्रय देना प्रारम्भ कर दिया। इन संस्थाओं  को ग्रामीण विकास सम्बन्धी लोकनीतियों के निर्माण एवं उनके क्रियान्वितिकरण के सम्पूर्ण अधिकार व प्रषासनिक एवं वित्तीय अधिकार प्रदत्त किए गये थे परन्तु नव नेतृत्व के द्वारा संचालन के उद्देष्य से बनायी गई नयी व्यवस्था ब धनिक जमीदारों अथवा समृद्ध बिचोलियों के द्वारा नियंत्रित होकर स्थानीय दबाव व गुटों के हाथ का खिलौना बन गई।

अपने भविष्य को सुरक्षित रखने के लिए विधायक एवं सांसद भी पूर्ण दिलचस्पी के साथ पंचायतराज संस्थाओं के चुनावों में कूदने लगे। भाई-भतीजावाद व परिवारवाद पूरी तरह छा गया। जन सामान्य इस व्यवस्था के प्रति उदासीन हो गया और कहीं कहीं निन्दाषील अथवा स्पष्ट रूप से विरोधी हो गया। पंचायतराज संस्थाओं में राजनैतिक नेतृत्व के लिए प्रगतिशील एवं कुशल तत्वों को आकर्षित करने तथा उनके प्रशिक्षण के लिए भी कोई नियोजित प्रयास नही रहे। प्रतिनिधियों के लिए शिक्षा की शर्ताें ने भी अनुभवी  सेवाभावी ग्रामीणजनों को और अधिक पीछे ढ़केल दिया व झेॅूठे सर्टिफिकेट बनाकर चुनाव लडा जाने लगा हैा। वे दिन चले गये जब योग्यतम व्यक्तियों ने उत्सर्ग ओर आदर्शों से प्रेरित होकर प्रेरणादायक नेतृत्व प्रारम्भ किया था। सामाजिक एवं महिला आरक्षण से स्थिति और भी बदतर हो गयी । अब जिला स्तर पर राजनीति में आने वाला नया नेतृत्व समृद्ध वंशगत परिवारों से है, जिनके पास चुनावों में खर्च करने के लिए अकूत धनराशि व कालाधन है। इस वृतिका और दुस्सहासी वर्ग के लिए राजनीति का अर्थ केवल सत्ता है।

ग्राम पंचायत, पंचायत समिति या जिला परिषद् के सरपंच व प्रधान जिला प्रमुख पद पर भू-स्वामी, उद्योगपति, धनपति, सामन्ती लोग मात्र जातिगत आधार पर  टिकिट प्राप्त कर धनबल बाहुबल, जातिबल से चुने जाने लगे। पंचायत एक्ट में वर्तमान सरकार द्वारा किये गये संशोधनों से  तो आम साधारण ग्रामीण व सेवाभावी व्यक्ति व महिलायें चुनाव में खडे ही नहीं हो सकते। स्वस्थ्य राजनीति अब रही ही नहीं । जयप्रकाश नारायण व अन्य पंचायतराज को सषक्त करने वाले राष्ट्रीय नेताओ ने इन, संस्थाओं को राजनीति से पृथक रखने की पैरवी की थी, परन्तु व्यवहार में, नीचे स्तर पर राजनीतिक गतिविधि के प्रभाव से इन्हें अलग नहीं रखा जा सका। सभी राजनीतिक दलों को ग्रामीण क्षेत्रों में सक्षम व योग्य युवा तत्वों को पहचान कर, अधिकाधिक उत्तरदायित्वों के लिए सुनियोजित ढंग से तैयार करने की पैरवी करनी चाहिऐ थी जिससे नेतृत्व का उत्तरदायित्व ग्रहण करने के लिए प्रषिक्षित जनप्रतिनिधि तैयार होकर आ सकें।

धनबल, जातिबल, बाहुबल, वंषवाद  के प्रभाव में रचनात्मक कार्यों का आकर्षण  धीरे धीरे कम होता जा रहा है। आज पंचायत समिति सदस्यों की एक एक सदस्य की 20 से 30 लाख की बोली लगती है। जिला परिषद् सदस्य की 50 से 60 लाख या करोड़ की बोली लगती है। खरीद फरोख्त , खुली बाडाबन्दी व दल बदल हो रहा है। राजनीतिक दल का टिकट मायने नहीं रखता। प्रधान प्रमुख के उम्मीदवारों को अपने दल के निर्वाचित सदस्यों  को भी पैसा देना पडता है। करोडों रूपया ब्लेकमनी खर्च किये बगैर कोई प्रधान व प्रमुख का चुनाव लड़ने की अब सोच भी नहीं सकता। पंचायत समिति व जिला परिषद् सदस्यों की खुले आम बिक्री होती है।  हरेक राजैतिक दल, हरेक जनप्रतिनिधि, हरेक मतदाता व नागरिक सब कुछ अपनी नजरों से देख रहे हैं। इतनी राशि खर्च कर जब कोई प्रधान या जिला प्रमुख बनेगा तो पंचायत राज संस्थाऐं, विकास योजनाऐं, जन विश्वास सभी समाप्त हो जायेंगे।  उनमें भ्रष्टाचार, कमीशनखेारी ही पनपेगी।

प्रारम्भिक वर्षों में जनप्रतिभाओं द्वारा विकास की प्रक्रिया के लिए उत्साह उत्पन्न करने का प्रयास किया गया था।  अब उत्साह लुप्त हो रहा है और उसकी  जगह निंदाषीलता और भौतिकवाद की भावना ने घर कर लिया है। इसका विषेष प्रभाव ग्रामीण क्षेत्रों के युवा वर्ग पर पड रहा है। उन्हें अब योग्यता व परिश्रम के बजाय प्रभाव व सम्बन्ध अधिक महत्वपूर्ण प्रतीत होते हैं। ऐन-केन-प्रकारेण धन प्राप्त कर लेना, दूसरों के जीवन पर अधिकार प्राप्त करने का सर्वाधिक सुरक्षित सुनिश्चित तरीका माने जाने लगा है। अंधी दोड से उकता कर युवक वास्तविकताओं से भाग कर गैर परम्परागत वृतियों को खोजने लगे हैं व झॅूठें मानदण्डों के बीच फंस रहे है।

इस स्थिति से उबरने का निश्चित उपाय यह है कि ग्रामीण क्षेत्रों में पहले शिक्षा के माध्यम सेे नये जीवनमानों की स्थापना हो, जिनमें धन की अपेक्षा, अच्छाई और अच्छे आचरण का महत्व हो, सामाजिक अनुषासन की भावना बढ़े, सभी राजनीतिक दल व चुनाव आयोग आगे आयें। सभी प्रकार के भ्रष्टाचार व पक्षपात अथवा भाई भतीजावाद कीे सार्वजनिक भत्र्सना होनी चाहिये।

नेतृत्व का अर्थ सामान्य को प्रभावित करना मात्र नहीं है । नई चेतना, नई दृष्टि से उत्तरदायित्व को वहन करने व स्वेच्छा से कठिन विकल्पों को वहन करने की तैयारी होनी चाहिए। वर्तमान हालात में प्रषासन की कार्य कुषलता और इसके स्तर में गिरावट आई है,  सभी बडे छोट प्रशासनिक कार्यकलाप इसी से प्रभावित होते रहे हैं। आज राजनीति और प्रशासन की परस्पर निर्भरता पारस्परिक सम्बन्धों की समस्या बन गई है। राजनीति की दखलंदाजी के कारण प्रशासन की स्वायत्तता नही रही। राजनैतिक हस्तक्षेप ने प्रशासन की स्वायत्ता के स्वरूप को समाप्त कर दिया। भ्रष्टाचार चरम सीमा तक बढ गया है।

विकास हेतु चुने गये निकायों को प्रषासनिक एवं वित्तीय शक्तियाॅ सौपकर जिला प्रषासन को उसके अधीन बना दिया गया है। अधिकारियों व सरकारी कार्यकर्ताओं के राजनैतिक नेताओं के निकट संबंधों ने पूर्वाग्रहों को जन्म दिया, प्रशासन के निष्पक्ष, ईमानदार ढांचे को विकृत कर दिया। एक पक्षीय संबंध बन गये। जिन निकायों के गैरसरकारी नेताओं के राज्य स्तर के मंत्रियों और नेताओं के साथ घनिष्ठ संबंध हो गये वहीं ग्राम स्तर से जिला परिषद स्तर के अधिकारियों की स्थिति नाजुक हो गयी व वे अब राजनीतिक दबाव को रोकने में असमर्थ हो गये है अब विकास अधिकारी एवं मुख्य कार्यकारी अधिकारी गलत कार्य करने वाले पंचायतों के कर्मचारियों व पंच सरपंचों के विरूद्ध कोई अनुशासनात्मक कार्यवाही नहीं कर सकते । यहाॅ तक कि ग्राम पंचायत के सचिव, ग्राम सेवक, अध्यापकों के स्थानान्तरण तक नहीं कर सकते।

अधिकाधिक मत बटोरने के लिए पंचायतीराज संस्थाऐ राजनीति में महत्वपूर्ण होती जा रही है। राजनेता राज्य स्तर के भावी निर्वाचन में पंचायतीराज संस्थाओं से अधिक मत बटोरने में सहायता प्राप्त करने हेतु, ग्रामीण क्षेत्रों में, अपना प्रभाव क्षेत्र स्थापित करने के इच्छुक हो गये हैं। राजनीतिक हस्तक्षेप प्रषासनिक तंत्र में बढता जा रहा है।  प्रषासनिक स्वायत्ता, निष्पक्षता समाप्त हो रही है। पंचायतीराज संस्थाओं में बढ रहे राजनैतिक हस्तक्षेप, स्वायतत्ता का उल्लंघन, प्रशासनिकों द्वारा मूल व वैद्य कार्य व कर्तव्यों की अवहेलना केा रोकने के लिए अप्रत्यक्ष चुनाव पद्धति व चुनाव नियमों में बदलाव आवश्यक हो गया है, जिससे इन संस्थाओं की कार्यक्षमता पर और अधिक दुष्प्रभाव नहीं पडे। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)