लेखक : प्रोफेसर (डॉ.) सोहन राज तातेड़
पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्वविद्यालय, राजस्थान
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शिक्षा मानव के व्यक्तित्व का रूपान्तरण कर देती है। प्राचीनकाल से ही शिक्षा मानव जीवन का अभिन्न अंग रही है। शिक्षा से मानव व्यक्तित्व का निर्माण होता है। ज्ञान के साथ-साथ सदाचार की भी शिक्षा, शिक्षा के माध्यम से ही प्राप्त होती है। शिक्षा का सर्वव्यापीकरण बीसवीं शताब्दी में ही सम्भव हुआ। आज शिक्षा मानव की मूलभूत आवश्यकता बन गई है। प्राचीनकाल में शिक्षा उच्च वर्ग तक ही सीमित थी। किन्तु आज हर वर्ग के लोग शिक्षा से जुड़ रहे है। प्रत्येक व्यक्ति में सीखने और अपने आपको शिक्षित करने की आवश्यकता महसूस हो रही है। शिक्षा ही मानव को आवश्यक ज्ञान द्वारा जीवन की चुनौतियां का सामना करने के लिये सुसज्जित करती है। आधुनिक समाज का स्तम्भ शिक्षा की ही नींव पर खड़ा है।
अनौपचारिक एवं सस्ती शिक्षा आज अतिविशिष्ट हो गयी है। अधिकांश देशों में शिक्षा का राष्ट्रीयकरण हो गया है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी की शिक्षा देते समय विषय वस्तु के संगत स्वीकृत सिद्धांतों एवं प्रक्रियाओं को स्वीकार किया जाना चाहिए। लेकिन भारत जैसा विकासशील देश आर्थिक दबाव के कारण शिक्षा पर अधिक व्यय वहन नहीं कर सकता है। हमारा शिक्षा पर व्यय हमारे सकल घरेलू उत्पाद का मात्र 2.8 प्रतिशत है, जबकि विकसित देशों में सामान्यतः 6 प्रतिशत या उससे भी अधिक रहता है। परिणाम स्वरूप शिक्षा का प्रचार-प्रसार यहां अधिक नहीं हो पाया हैं। यहां के लोग शिक्षा से वंचित रह गये है।
इसी कारण भारत में शिक्षा का निजीकरण हो गया है। आज देश में शिक्षा के स्तर को उठाने के लिये सरकार के सतत प्रयासों के फलस्वरूप भारत की दो तिहाई आबादी शिक्षित तो हो गई है, लेकिन अभी भी भारत को इक्कीसवी शताब्दी में विश्व के सबसे अधिक अशिक्षित देशों में गिना जाता है। सरकार तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या को लेकर शिक्षा कार्यक्रमों को आगे बढ़ा पाने में अपने को असहाय पाती है। इसमें सबसे बड़ी समस्या धनाभाव है। अतः शिक्षा, खासकर उच्च शिक्षा, के क्षेत्र में निजी क्षेत्र के भागीदारी की आवश्यकता है। पश्चिमी देशों में अधिकांश देशों में शिक्षा निजीकरण को बढ़ावा मिला है। हम लोग इसका अनुकरण अब कर रहे है।
वर्तमान शिक्षा नीति केवल यही सुनिश्चित करती है कि छात्र नियमित रूप से कक्षा में जाते है या नहीं। कक्षाओं में नियमित उपस्थिति के लिए सरकार ने अनेक कदम उठाये है। जैसे मध्याह्न भोजन व्यवस्था और विद्यालयों में सातवी कक्षा तक के छात्रों को अनुत्तीर्ण न करना। इससे विद्यालय छोड़ने वालों की दर में कमी आयी है। लेकिन इसके कारण शिक्षा की गुणवता में भी कमी आई है। विशिष्ट श्रेणी के पब्लिक स्कूलों में दी जाने वाली शिक्षा की गुणवता खासकर ईसाई मिशनरियों के द्वारा चलाये जा रहे स्कूलों से प्रमाणित हो गई है। सरकार की दोषपूर्ण शिक्षा नीति के कारण सरकारी विद्यालयों में बुनियादी सुविधाओं का भी अभाव है।
निजी विद्यालय बुनियादी सुविधाओं का उचित प्रबंधन करते है। सरकारी विद्यालयों में शिक्षा के बदले जो शुल्क लिया जाता है वह बहुत ही कम है। लेकिन निजी विद्यालयों में लिया जाने वाला शुल्क इतना अधिक है कि सामान्य व्यक्ति उन विद्यालयों में अपने बच्चों को शिक्षा नहीं दे सकता। अधिक शुल्क लेने के कारण ऐसे विद्यालय प्रायः हर प्रकार की व्यवस्था अपने विद्यालय में कर लेते है। लेकिन सरकारी स्कूलों में ऐसी बात नहीं है। सरकारी विद्यालयों में शिक्षकों को मोटी रकम वेतन के रूप में प्राप्त होती है किन्तु निजी विद्यालयों में शिक्षकों का शोषण होता है और उन्हें अल्प वेतन पर काम कराया जाता है।
निजी विद्यालय प्राप्त धनराशि का अधिकांश भाग विद्यालय की चमक-धमक पर खर्च करते है। जबकि सरकारी विद्यालयों में इसके ठीक विपरित है। सरकारी विद्यालयों की बिल्डिंग और रखरखाव पर सरकार बिल्कुल खर्च नहीं करती। समय-समय पर लगने वाले वेतन आयोगों के अनुसार शिक्षकों को वेतन वितरण करने में ही अधिकांश धनराशि समाप्त हो जाती है जिससे बुनियादी सुविधाओं का उचित प्रबंधन नहीं हो पाता। सरकारी विद्यालयों में ग्रामीण क्षेत्रों में अधिकतम विद्यालयों में भवन और पाठ्यक्रम के अतिरिक्त सुविधाओं का अभाव होता है।
शिक्षा के निजीकरण से अक्षमता, भ्रष्टाचार, शिक्षक, उपकरण, प्रयोगशालाये और पुस्तकालयों जैसे मानवीय संसाधनों के अपर्याप्त उपयोगों को दूर किया जा सकता है। शिक्षा के निजीकरण के अनेक नकारात्मक पहलू भी है। यह भविष्य में मुनाफे और निहित आर्थिक लाभों को लाती है। निजी स्कूलों में शुल्क अधिक लिया जाता है। यहां पर सभी वर्गों के बच्चे पढ़ नहीं सकते, क्योंकि शुल्क अदा करने में सभी समर्थ नहीं है। निजी विद्यालय समर्थ और असमर्थ लोगों के बीच एक खाई उत्पन्न कर देते है। शिक्षा के निजीकरण ने समाज के उच्च वर्गों के स्वार्थ के लिए अमीरों और गरीबों के बीच विषमता को बढ़ाने का काम किया है।
निजी क्षेत्र प्राथमिक, उच्च प्राथमिक शिक्षा मेंं संलग्न है। उनमें से अधिकांश संस्थानों में सरकारी निधि से जो धन प्राप्त होता है उसको अक्सर दूसरे नाप पर खर्च करके स्थिति को बदतर बना दिया जाता है। यहां के संस्थानों में शिक्षकों को पूरा वेतन नहीं दिया जाता और ऐसे संस्थानों के शिक्षकों के ऊपर विद्यालय से निकाले जाने का भय सदा बना रहता है। यह कूप्रथा अब निजी इंजीनियरिंग और चिकित्सा संस्थानों में भी फैल गयी है। शिक्षा के निजीकरण के गुण व दोष दोनों है। यदि यह नियंत्रित नहीं किया जाता तो इसके दोष सम्पूर्ण शिक्षा प्रणाली को पंगु बना सकते है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)