कानून किसान हितकारी हो : डा. सत्यनारायण सिंह

23 दिसम्बर किसान दिवस पर विशेष 

लेखक : डा. सत्यनारायण सिंह

(रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी हैं)  

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जिस देश की संसद में 150 से अधिक किसान सांसद बेठते हो, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति व अन्य पिछड़े वर्ग के किसान बैठते हो वहां किसानों के हित में उन्हें स्वीकार योग्य कोई कारगर कृषि नीति नहीं बन सकी यह दुर्भाग्य है। औद्योगिक नीति बनती है, औद्योगिक घरानों की राय ली जाती है। किसानों की समस्याएं कैसे दूर हो? कैसे उनको फसल का सार्थक मूल्य मिले? भंडारण की समस्या कैसे दूर हो? कैसे उनकी हिफाजत हो? इस पर आज तक गम्भीरता से संसद में गौर नहीं किया गया है। अनाज उत्पादन व भंडारण की बात कर लें तो पशुपालन व फल उत्पादन को छोड़ दिया जाता है। कृषि बीमा व ऋण के नाम पर भी कम्पनियां किसानों को ठगती है। गत वर्षों में प्रकृति ने किसानों का साथ दिया, परन्तु 12 सफल मानसूनों के बाद भी खरीद की कीमतें स्थिर रही, उपज के अनुरूप कृषि जिंसों की कीमतों में गिरावट ही हुई है।

पूरे देश भर में कृषि क्षेत्र अपूर्व संकट की चपेट में है। समृद्ध प्रदेशों में पंजाब के एक लघु किसान ने आत्महत्या करते हुए कहा ‘‘मैं वास्तव में कर्ज की फसल काट रहा हूं।’’ चाय उगाने वाले किसानों का कथन है कि ‘‘3 अंकों वाली आमदनी से भला इस महंगाई में किस कदर परिवार चलाऊं।’’ एक किसान के अनुसार उसने संपत्ति के नाम पर गत 16 वर्षो में एक ईंट भी नहीं जोड़ी है। आसाम के नौ गांव जिले में भी 8 किसानों ने जहर खाकर आत्महत्या कर ली। हर प्रदेश का यही हाल है। पंजाब, केरल, गुजरात, आसाम आदि में कर्ज में डूबे किसानों का यही हाल है। उन्हें फसल की लागत भी नहीं मिल रही है। आन्ध्र प्रदेश में कर्ज के बोझ से लदे किसान मजबूरी में खेत बेच रहे हैं। उड़ीसा में धान का कोई खरीददार नहीं। तमीलनाडू में चाय बोने वाले किसान लागत से कम कीमत पर फसल बेच रहे है। केरल व राजस्थान में भी यही स्थिति है।

किसानों ने कर्ज लेकर अच्छे बीज खरीदें। उनकी फसल खेत में खड़ी थी। प्रकृति ने किसानों का साथ नहीं दिया लेकिन बाजार में मांग की अपेक्षा आपूर्ति अधिक होने के कारण इसके खरीद मूल्य में गिरावट आई। किसानों को अपनी फसल का न्यूनतम मूल्य भी नहीं मिला। इसी प्रकार की कहानी आलू, प्याज बोने वाले किसानों की भी है। महाजनों से भारी कर्ज लेकर फसल बोने और उसकी कम कीमतों के कारण किसानों को मरने के सिवाय कुछ नहीं दिखता। कुछ ने खुदकुशी कर ली।

पिछले कुछ वर्षो से स्वतंत्र भारत में किसानों को अस्पष्ट और रहस्यमय संकट का सामना करना पड़ रहा है। कई जगहों पर कर्ज से अथवा बोई फसल में हुए नुकसान के कारण, किसान ने कीटनाशक दवा खा ली। खराब फसल अथवा लागत से कम कीमतों की वजह से कई किसानों ने तो बेटे-बेटियों के साथ कीटनाशक खा कर अथवा अन्य तरीकों से आत्महत्या कर ली। उपज में गिरावट भी आई है। भारत में अनाज के गोदाम कहीं भरे पड़े है, कहीं गोदाम नहीं होने के कारण अनाज व अन्य कृषि उपज सड़ती है अथवा बर्बाद होती है। संकट जब भी आया था जब गेहूं व खाद्यान्न की बढ़ती कीमतों को देखकर किसान तिलहन छोड़कर अनाज उत्पादन करने लगे। परन्तु भारत ने जिस प्रकार की आयात नीति को अपनाया है उससे आशानुकूल कीमतें नहीं मिली।

देश में लगभग 53 फीसदी बच्चे व 30 प्रतिशत वयस्क कुपोषण के शिकार है। चाहे अनाज का अभाव नहीं माना जा रहा हो परन्तु यथास्थान पर पहुंच की समस्या बनी हुई है। सरकारी नियंत्रण ने कृषि जिंसों के कारोबार को भी किसी हद तक रोका है। अस्थिरता का खेल चल रहा है। गैर सरकारी खाद्यान्न भंडार पहले ही समाप्त हो गया है।

यही स्थिति बिजली बिलों की है। बिल बकाया नहीं चुका पाने के कारण तिल-तिल कर मरने के बजाय फांसी लगाकर आत्महत्या करने लगे है। बैंकों का कर्ज चुकाने के लिए टेªक्टर बेचने लगे है। हर फसल के साथ बस कर्ज ही हाथ आता है। प्रति हैक्टर आय घट गई है। कृषि आयोग की सिफारिशें लागू नहीं की गई। उन्हें रद्दी की टोकरी में फैंक दिया जाता है। नतीजा यह हुआ कि लागत से अधिक कीमत नहीं मिली। डीजल, बिजली, खाद की कीमतें बढ़ती जा रही है। निजी बिजली खरीद पर पाबंदियां है। बिजली, पानी, खाद, बीज, कृषि उपकरण सभी पर सरकार का शिकंजा ढीला नहीं हुआ है। एक सामूहिक राष्ट्रीय बाजार का विकास नहीं हुआ है। एक खराब मानसून इस समस्या को और अधिक बढ़ा सकता है।

मध्यप्रदेश, उड़ीसा, गुजरात, राजस्थान आदि सूखे के समय-समय पर जूझते रहे है। प्राकृतिक आपदाएं सरकार के बस में भले ही नहीं हो परन्तु इस प्रकार की निरंकुश शक्तियों पर तो उसका अंकुश होना चाहिए। बड़े पूंजीपतियों से पैसा वसूल करने को बैंक इतना मजबूर नहीं होते जबकि एक किसान से, जिस प्रकार से पूर्व में साहूकार वसूलता था, बैंकों की सख्तियां हर प्रकार से बनी हुई है। यह राजनैतिक मामला नहीं है, यह सरकार की सोच है।

सरकार कहती है कि सरकार ने किसानों के लिए बहुत कुछ किया है, बहुत कुछ कर रही है और बहुत कुछ करेगी। सुलभ तरीकें से किसान को सरकार से ऋण उपलब्ध नहीं होता, अनाज का भण्डारण नहीं होता। किसान के माल की बिक्री सुचारू रूप से नहीं होती। इसलिए आलू, प्याज, टमाटर, कपास, लहसुन आदि के समर्थन मूल्य के लिए किसान को सरकार के सामने हमेशा गिडगिडाना पड़ रहा है। सरकार बयान देती है कि किसान पूरा कर्ज नहीं चुका पाता। बेहतर फसल उगाने के लिए महाजनों से किसान कर्ज लेते है परन्तु उसे कैसे लौटाया जाये यह उनके लिए मुश्किल बन जाता है। चाहे किसान की फसल ठीक हो, उसे पारम्परिक एवं रूढ़ीवादी जिम्मेदारी निभाने, लड़के-लड़की की शादी करने आदि के लिए ओने पोने भाव पर फसल को बेचना पड़ता है।

औद्योगिक घरानों, बड़े-बड़े घरानों द्वारा लिए गये ऋण की वसूली नहीं होती। उनके दरवाजे नहीं तोड़े जाते। किसान कर्ज की भरपाई करता है परन्तु जब मजबूर हो जाता है तो नहीं कर पाता। किसान को लिए जा रहे कर्ज के लिए घूस देनी पड़ती है इससे वह और महंगा हो जाता है। खेतिहर छोटे किसान लाखों रूपये कर्ज में डूबे रहते है। सिंचाई साधनो की भी चर्चा होती है परन्तु छोटी, लघु एवं मध्यम सिंचाई योजनाओं पर जोर नहीं दिया जाता।

आज 130 करोड़ जनता को अनाज, फल, सब्जी उपलब्ध कराने वाला किसान बेबस व हताश है, मरने को विवश है। यह कैसा लोकतंत्र है? जहां हर शासन में राजनैतिक टकराव रहा है। किसानों की समस्याओं पर राजनैतिक गोटियां सेंक कर अपना उल्लू सीधा कर रहे है। किसानों की समस्या समान रहती है, ध्यान नहीं दिया जाता, केवल घोषणाएं होती है। देश की 60 फीसदी आबादी गांवों में रहती है। असुरक्षित रहने वाले लोग तो मरेंगे ही। लोगों का जीवन कैसे सुखी रहेगा, किस प्रकार फसल का उचित मूल्य मिलें, इस ओर भी किसी का ध्यान नहीं गया है।

यह कहा जाने लगा है कि ‘‘खेती करे सो मरे’’। किसान अपनी उपज को उचित मूल्य पर नहीं बेच पाता। रोजमर्रा की चीजों पर खर्चा होता रहता है। ग्रामीण विकास योजना की घोषणाएं होती है। उदार लोक लुभावन कार्यक्रमों की घोषणाएं होती है। प्रधानमंत्री के नाम पर योजनाएं बनती है परन्तु अभी तक किसानों को ऐसा कोई नेता नहीं मिला जो उनकी खुशहाली के लिए कोई उचित नीति बना सके। जींस, उर्वरक व कृषि उपकरणों की बढ़ती कीमतों से फसल लागत में बढ़ोतरी हुई है। देशभर के किसान संकट में है। उनका ऋण माफ करने में भी राजनीति होती रहती है। 12 सफल मानसूनों के बाद भी यही स्थिति है तो एक मानसून की गड़बड़ से क्या स्थिति होगी? किसी को भरोसा नहीं है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)