लेखक : डा. सत्यनारायण सिंह
(लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी हैं)
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गुजरात खेडा सत्याग्रह के समय बल्लभ भाई पटेल महात्मा गांधी के सम्पर्क में आये। अंग्रेजों द्वारा अपने को भारतीयों से उंचा समझने की नीति ने विद्रोह उत्पन्न किया। गांधी जी बल्लभ भाई पटेल के व्यक्तित्व से आकर्षित हुए, वे महात्मा गांधी के साथ जुड़ गये। उनका निर्णय केवल खेडा सत्याग्रह तक ही सीमित नहीं रहा अपितु आजीवन उनके अनुयायी बन गये। बल्लभ भाई पटेल ने गांधी जी के प्रति संपूर्ण समर्पण किया और घोषणा की ‘‘मैंने अपने उपर ताला लगाकार उसकी चाबी बापू (महात्मा गांधी) का सौंप दी है।’’ गांधी जी ने कहा बल्लभ भाई मुझे नहीं मिले होते तो जो कार्य हुआ है व अभियान सफल हुए है, वह कदापि नहीं होता।
गांधी जी और बल्लभ भाई पटेल के बीच गहरे भावनात्मक संबंध बने जो वफादारी और कुर्बानी की भावना पर आधारित थे। यह संबंध राजनैतिक, सत्ता, पद से बहुत आगे तक चले। 1930 में ऐतिहासिक डांडी यात्रा के दौरान वे महात्मा गांधी के साथ जेल में रहे, सरकार विरोधी आन्दोलन में 16 माह यरवदा जेल में रहे, जन सुरक्षा कानून के तहत साबरमती जेल में 40 दिन रहे।
गांधी जी के प्रति उनकी अटूट श्रृद्धा बढ़ती गई। बारदोली सत्याग्रह व भंयंकर फ्लेग में उनके द्वारा की गई जनसेवा से गांधी जी अत्यन्त प्रभावित हुए। बल्लभ भाई ने 1918 में गांधी जी की योजनानुसार सत्याग्रह का संचालन किया, 1919 में रोलट एक्ट का विरोध किया, प्रदर्शन किया और कांग्रेस का लक्ष्य साम्राज्य से स्वराज को, केवल स्वराज में बदल दिया। असहयोग आन्दोलन में उनकी भागीदारी ने उनको गांधी जी का आजीवन सेवक व विश्वासपात्र बना दिया। गांधी जी के साथ बल्लभ भाई वर्षो जेल में रहे। उन्होंने विदेशी कपड़ो का बहिष्कार की ऐतिहासिक होली के बाद खादी पहनना शुरू किया। गांधी जी की परिकल्पना को पूरा किया। बारदोली सत्याग्रह ने पूरे भारत में एक असर छोड़ा और उनका व्यक्तित्व आदर्श बन गया।
यह भी सच है कि दोनों के बीच रणनीति संबंधी मुद्दों पर कई बार मतभेद उत्पन्न हुए। 1930 में नमक सत्याग्रह के बजाय बारदोली सत्याग्रह शुरू करना, पं. नेहरू को कांग्रेस अध्यक्ष बनाना, नागरिक अवज्ञा आन्दोलन को वापस लिया जाना, गवरनमेंट आॅफ इंडिया एक्ट लागू किया जाना, परिषद में प्रवेश, गांधी जी द्वारा राजनैतिक विरोध स्वरूप उपवास करना, मुस्लिम लीग और जिन्ना के साथ संबंध, केविनेट मिशन और भारत विभाजन प्रक्रिया। मतभेदों के बावजूद दोनों के बीच दोनों में मूल्यों और मापदण्डों के बारे में आधारभूत मतेक्य था। पटेल गांधाी के बीच बुनियादी बफादारी और व्यक्तिगत स्नेह का बंधन अक्षुण्ण बना रहा। गांधी और बल्लभ भाई के बीच गहरे और भावनात्मक संबंध बने जो कुर्बानी और वफादारी पर आधारित थे।
1948 में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में दिया गया उनको भाषण उनके भावनात्मक और जटिल संबंधों को स्पष्ट करता है। उन्होंने कहा था ‘‘मैं गांधी जी का आज्ञाकारी सिपाही होने से अधिक का दावा नहीं करता। मैं उनका एक अंध अनुयायी हूं। हमारी मान्यतायें आपसी में मेल खाती है, हम सहज रूप से सहमत हो जाते है। भारत की स्वतंत्रता के समय हमारे बीच मतभेद हो गये थे, हमारे लिए तत्काल स्वतंत्रता प्राप्त करना जरूरी था, विभाजन के लिए सहमत होना आवश्यक था। यद्यपि मैं बहुत अधिक हृदय मंथन और दुःख के साथ इस निष्कर्ष पर पहुंचा था। मैंने महसूस किया था कि हम विभाजन स्वीकार नहीं करेंगे क्योंकि भारत बहुत से टुकड़ों में बंट जायेगा और पूरी तरह नष्ट हो जायेगा। गांधी जी इस निष्कर्ष से सहमत नहीं थे लेकिन गांधी जी को उन्होंने कहा था ‘‘यदि मेरा मन मेरी मान्यताओं को सही होने की गवाही देता है तो मैं आगे बढ़ सकता हूं। हमारे नेता पं. नेहरू मेरे साथ थे। मुझे निर्णय के पश्चात कोई पछतावा नहीं है।
पटेल राजनीति में भी गांधी जी के यथार्थवाद का प्रतिनिधित्व करते थे। अहिंसा की भूमिका के संबंध में भी उनमें मतभेद थे। अहिंसा एक आदर्श है, उसे शासनकला में किस प्रकार सम्मिलित किया जाये। गांधी जी सम्पूर्ण समर्पण या अहिंसा की बात बताते थे परन्तु यह समर्पण किस प्रकार प्रतिपादित किया जाये, स्पष्ट नहीं था। पटेल शासन व्यवस्था में शामिल हुए तो स्पष्ट कहा था कि ‘‘राष्ट्रीय सुरक्षा, रणनीति की योजनाओं में अहिंसा का क्या स्थान होना चाहिए? सशक्त केन्द्र और अर्थ व्यवस्था में बिना हिंसा कोई अर्थ नहीं है।’’ शासन व्यवस्था विशेषकर रक्षा और सुरक्षा के संबंध में गांधी जी के विचारों से सहमत नहीं थे। पटेल गांधी जी की नीति के बारे में असहमत नहीं थे, कार्यनीति ओर व्यवहार के बारे में थे।
उन्होंने कहा था कि ‘‘मैं अपने आपको हिन्दुस्तान की सेवा में एक सैनिक मानता हूं और मैं सैनिक ही रहूंगा।’’ अपने सख्त और दृढ़ बाह्य स्वरूप के बावजूद सरदार पटेल एक लोहे के संदूक की तरह थे जिसके अंदर संवेदनशीलता, मृदुता, समर्पण रूपी हीरे जवाहरात थे। उनके स्वयं के शब्दों में ‘‘मैने गांधी जी से कहा था आपका रास्ता अच्छा है लेकिन वहां तक मैं नहीं जा पाता हूं। मुझे राज चलाना है, बंदूक रखनी है, तोप रखनी है, आर्मी रखनी है। गांधी जी कहते है कि हमें यह नहीं करना तो मैं वह नहीं कर सकता क्योंकि मैं 30 करोड़ का ट्रस्टी हूं। मैं हुकूमत लेकर बैठा हूं। मेरी जिम्मेदारी हे कि मैं सबकी रक्षा करूं। देश पर हमला होगा तो मैं बर्दाश्त नहीं करूंगा क्योंकि यह मेरी जिम्मेदारी है।
पटेल एक कड़े यथार्थवादी थे और इसी कारण उनको ‘‘सरदार’’ की पदवी दी गई थी। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को लेकर भी गांधी जी और उनमें मतभेद थे। पटेल पर सामंतो, संप्रदायवादियों, साम्राज्यवादियों से निपटने का दबाब था। एकीकरण की प्रक्रिया में राज्यों को सम्मिलित करना था। बंटवारा तथा कांग्रेस के प्रान्तीय नेता गांधी जी और उनके बीच टकराव पैदा करने में लगे थे। राजनैतिक रूप से बड़े मतभेद, टकराव, गांधीवाद, आदर्शवाद तथा नेहरू और मौलाना, राजनैतिक मान्यताओं के साथ उनमें टकराव था। उन्होंने गांधी जी को 16 जनवरी 1948 को पत्र लखा था कि ‘‘आपको समय-समय पर मेरा बचाव करना पड़ा है। अधिक आयु के कारण मेरे लिए यह एक असहनीय स्थिति है।’’
इन सबके बावजूद गांधी और पटेल में वफादारी का बंधन इतना मजबूत था कि शब्दिक विरोध के बावजूद गांधी जी का पटेल के प्रति सहज स्वाभाविक विश्वास था तथा जिनके प्रति वे स्नेह व प्रेम रखते थे उनके प्रति उनका उभयपूर्ण संबंध था। गांधी जी और पटेल के बीच हुए पत्र व्यवहार में अलग-अलग मत व्यक्त किये गये है परन्तु इन दोनों के संबंधों में कोई दरार नहीं आई, उनके संबंध कभी नहीं बिगड़े। शासन और देश के लिए आधारभूत ढांचे पर एक रहे वहीं नीतियां बनाने के मुद्दों पर अवश्य मतभेद रहे।
गांधी जी अहिंसा को एक आदर्श मूल्य समझते थे। उनका दृष्टिकोण आदर्शवादी और समय से आगे का था। पटेल के लिए अहिंसा लोगों और राष्ट्र हित नीतियां व संस्था निर्माण कार्यकलापों की कसौटी थी परन्तु वे रक्षा व राष्ट्र सुरक्षा के मुद्दों पर अधिक व्यवहारिक थे। उनका विश्वास था कि जब तक विश्व समुचित रूप से अहिंसा को अपना नहीं लेता तब तक किसी राष्ट्र के रक्षा संबंधी मामलों में इसे पूरी तरह लागू करना संभव नहीं है। हमारी आवश्यकतायें सीमित है परन्तु हमारे सामने समुचित संस्थाओं और सम्पूर्ण देश को साथ ले जाने का प्रश्न है। गांधी जी की सोच थी कि राष्ट्र को किस प्रकार संगठित किया जाना है, किन नियामक सिद्धांत के आधार पर संस्थाओं का निर्माण किया जाना है, स्पष्ट नहीं थी। वे सशक्तशाली अहिंसा की बात कहतेे थे।’’
पटेल शासनकला प्रबंधन में सम्मिलित थे। उनको एक सशक्त राष्ट्र, एक आधुनिक सेना, एक सशक्त अर्थव्यवस्था बनाना था। गांधी जी का कथन था कि हमारी अहिंसा का कोई सानी नहीं है, वह अपराजेय है। हिंसा के संबंध में यह दर्शन तत्व ज्ञान नहीं है। पटेल ने यद्यपि कहा था कि यदि गांधी जी अपना अनुसरण करने का आदेश देंगे तो मेरा उन पर इतना अधिक विश्वास है कि मैं बंद आंखों से भागने लगता हूं, परन्तु वे कहते थे कि जिस मार्ग को अच्छी तरह समझ नहीं सकता उसे अच्छा किस प्रकार कह दिया जाये। हम हिंसा के बिना रहकर देश की सुरक्षा का बोझ उठाने में असमर्थ है। विश्व एवं देश में हिंसा का वातावरण है, यदि थोडी अवधि के लिए किसी क्षेत्र के लिए इसे छोड़ दिया जाये तो उसे हिंसा छोड़ना नहीं कहना चाहिए। गांधी जी भी यह नहीं चाहते थे कि हम उनका अंधानुकरण करें। सरदार पटेल गांधी जी से सहमत नहीं थे कि विदेशी कार्यक्रमों में भारत अहिंसक तरीके से विजय पा सकते है परन्तु नीतियों की बात का अनुसरण करना चाहिए जो उन्होंने आन्दोलन करने के लिए किया था।
पटेल नागरिक आन्दोलन को वापस लेने से भी इफ्तफाक नहीं रखते थे। पटेल कांग्रेस की अधिकारिक नीतियों का अनुकरण करते थे। बंटवारे व पूना पैक्ट पर भी वे गांधी से असहमत थे परन्तु पटेल ने स्वीकार किया था कि सत्याग्रह कभी भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन की सुसंगत नीति रहा है। गांधी जी पटेल के रियासतों, प्युपिल्स एसोसिएसन व प्रजामंडल में भाग लेने पर भी सहमत नहीं थे। परन्तु केबिनेट मिशन के बारे में गांधी जी ने कहा था कि ‘‘अंतिम निर्णय आपका ही होना चाहिए क्योंकि आप भारत के सरदार है।’’ चुनावों के दौरान वित्त पोषण के संबंध में भी गांधी जी और पटेल के बीच वैचारिक भिन्नता थी। गांधी जी चुनाव लड़ने के लिए धन का उपयोग करना पसंद नहीं करते थे। स्वराज के जिस रास्ते पर सरकार व सरदार ले जा रहे थे उससे गांधी जी दुःखी और निराश थे। विभाजन, सम्प्रदायिक दंगों आदि से गांधी और पटेल के बीच दूरियां बढ़ गई। पटेल की संकल्पना सशक्त केन्द्र व सशक्त सेना गांधी जी संकल्पना से मेल नहीं खाती थी।
किशोर मशरूवाला ने गांधी व पटेल के रिश्ते का एक भाई की तरह एंव गांधी व नेहरू का रिश्ता पिता-पुत्र की तरह बताया है। द्वितीय विश्व युद्ध की शुरूआत मेंयानि 1944 में गांधी, सरदार पटेल, नेहरू, सुभाष चन्द्र बोस, राजाजी की विचारधारा बंट गई थी। अहिंसा को धर्म मानने वाले गांधी जी हिंसक युद्ध का समर्थन नहीं करते थे। सामूहिक अवज्ञा पर राजाजी और बल्लभ भाई अंग्रेजों द्वारा युद्ध के बाद नया संविधान बनाने की प्रक्रिया की घोषणा पर सम्मिलित होना चाहते थे परन्तु गांधी जी के विपरीत नहीं जाना चाहते थे।
पूर्व राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल के अनुसार सरदार बल्लभ भाई पटेल सही मायने में सरदार थे। एक अलौकिक व्यक्तित्व, अन्तर्राष्ट्रीय नेतृत्व और वैचारिक प्रभुत्व के धनी थे। स्वतंत्रता आन्दोलन में उनका योगदान मौलिक था। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत में जनतंत्र स्थापित करने का कार्य एक महान पराक्रम था। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)