(लेखक, वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)
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तमिलनाडु में एक दशक से भी पहले, राज्य में तत्कालीन द्रमुक सरकार ने राज्य के धर्मार्थ विभाग के नियंत्रण वाले मंदिरों में गैर ब्राह्मणों को पुजारी नियुक्त करने की नीति की घोषित की थी। पार्टी का कहना था कि मंदिरों में केवल पंडितों का पुजारी बनाये जाने का एकाधिकार समाप्त होना चाहिए, हिन्दू समाज के किसी भी व्यक्ति यह कम सौपा जा सकता है, उसी समय सरकार ने प्रदेश में 6 ऐसी पाठशालाए खोलने का निर्णय किया जिनमें सभी जातियों के छात्रों को मंदिर में पूजा तथा अन्य कर्मकांड का प्रशिक्षण दिया जाना था। इसका मुख्य उद्देश्य गैर पंडितों को मंदिरों में पुजारियों का स्थापित करना था।
लेकिन सरकार के इस निर्णय को अदालत में चुनौती दिए जाने और फिर कुछ ही काल बाद राज्य में अन्नाद्रमुक की सरकार आ जाने के बाद इस निर्णय को पूरी तरह से लागू नहीं किया जा सका। हालाँकि इन 6 पाठशालायों में लगभग दो दर्जन छात्र पुजारी बनाने का प्रशिक्षण पूरा कर चुके थे लेकिन नई सरकार के चलते इन में किसी की भी धर्मार्थ विभाग दवारा पुजारी के रूप में नियुक्त नहीं किया गया।
पिछले दिनों सरकार के सौ दिन पूरे होने पर मनाये गए जश्न के दौरान मुख्यमंत्री एम् के स्टालिन ने अपने गैर ब्राह्मण को पुजारी बनाये जाने के पिछली द्रमुक सरकार के निर्णय फिर से लागू करने का निर्णय किया। इसी अवसर उन 22 गैर ब्राह्मण छात्रों को, जिन्होंने दस वर्ष से अधिक समय पहले अपना प्रशिक्षण पूरा किया था, को सरकार द्वारा नियंत्रित मंदिरों में पुजारी के रूप में नियुक्त किये जाने का पत्र भी दिया।
उन्होंने यह घोषणा की सभी की सभी पुजारी पाठशालाए तुरंत खोली जायेंगी तथा मार्च में इनका पहला स्तर शुरू हो जायेगा। इन पाठशालाएं में दाखिले की प्रक्रिया अब शुरू हो चुकी है। इस समय इन पाठशालाओं के बंद पड़े भवनों को तेजी से संवारा जा रहा है ताकि मार्च में यहाँ पुजारी प्रशिक्षण की कक्षाएं लगना शुरू हो सकें। इन पाठशालायों के लिए जिन लोगों का प्रशिक्षण देने के लिए नियुक्त किया गया था, उन्हें बाद में अन्य विभागों में भेज दिया गया। अब उन्हें वापिस उनके पुराने पदों पर नियुक्त करने का काम भी शुरू हो गया है।
इनमें से आधी पाठशालायों में छात्रों को शैव पद्धति से पूजा करने का प्रशिक्षण दिया जायेगा। अन्य तीन में वैष्णव पद्धति के पूजा की विधि सिखाई जायेगी।
पिछली बार जब इस पाठशालायों को खोलने का निर्णय किया गया था तो ब्राह्मण संगठनो ने जोरदार विरोध किया था। उनका कहना था मंदिर में ब्राह्मण पुजारी रखने की यह हिन्दू परम्परा सदियों पुरानी है। देश में ब्रहामिन समुदाय ही एक ऐसा समुदाय है जिनकी जीविका पुजारी होनेसे चलती है। आदि काल से चली आ रही इस परम्परा जो खत्म करने का कोई औचित्य नहीं है। लेकिन सरकार अपने निर्णय पर अडी रही। 2011के विधान सभा चुनावों में, जिसमे द्रमुक के स्थान पर अन्नाद्रमुक सत्ता में आई, यह विषय में एक बड़ा मुद्दा था। इसी को लेकर ब्रहामिनों ने खुल कर अन्नाद्रमुक का साथ दिया था। अन्नाद्रमुक ने यह वायदा किया था कि अगर वह सत्ता में आती है तो पिछली सरकार के इस निर्णय को फिर से लागू नहीं किया जायेगा। सत्ता में आने के बाद अन्नाद्रमुक ने चुप चाप इन पाठशालायों के लिए धन आवंटित करना बंद कर दिया।
लेकिन इस बार सरकार के निर्णय को लेकर अभी कोई मुखर विरोध सामने आया है। न ही किसी वर्ग ने सरकार के निर्णय को चुनौती देने के मंशा जाहिर की है। अन्नाद्रमुक के नेताओं ने भी कोई टिप्पणी नहीं की है। राज्य में बीजेपी भी इस मुद्दे पर चुप्पी साधे हुए है। यह माना जा रहा है कि आमतौर पर लोगों ने इस निर्णय को मौन स्वीकृति दी है।
दशकों पूर्व राज्य में पेरियार नाम के नेता ने ब्राह्मणों के वर्चस्व के समाप्त करने के लिए डीके (द्रविड़ कषगम) नाम का दल गठित किया था। यह अपने आप में एक बड़ा सामाजिक आन्दोलन था इसे व्यापक समर्थन मिला। बाद में इसी का विभाजन होकर द्रमुक बनी जो द्रविड़ राष्ट्रवाद सभ्यता और संस्कृति को आगे बढ़ना चाहती थी। हालाँकि इसने डीके की कुछ नीतियों को छोड़ दिया लेकिन बहुत को बनाये रखा। उनमे से ब्रहामिन भी एक था। हालाँकि इस मुद्दे इसके नेता डीके की तरह से मुखर नहीं है। यह कहा जा रहा है सरकार के इस निर्णय से दक्षिण के अन्य राज्यों में भी सरकारों के नियंत्रण वाले मंदिरों में गैर ब्रहामिन पुजारी नियुक्त किये जाने की मांग हो सकती है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)