पाठकों की जानकारी, मांग और अध्ययन के लिए हमारे विशेष आग्रह पर श्री गंगा नगर से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार लोकपाल सेठी ने अपनी श्री गंगानगर की यादों को हम तक लिख कर पाठकों हेतु भेजा, जिसको हम क्रमवार आप तक पहुंचाते रहेंगे। पेश है भूली बिसरी यादें श्रीगंगानगर की... उन्हीं की जुबानी
भूली बिसरी यादें श्रीगंगानगर की (1)
लेखक : लोकपाल सेठी
(वरिष्ठ पत्रकार, लेखक एवं राजनीतिक विश्लेषक)
sethilokpal@gmail.com
M: 9008376468
www.daylife.page
उन दिनों मोहल्ले, मोहल्ले दोपहर बाद एक सुरीले गाने जैसे आवाजें आती थी। यह कोई गाना नहीं होता था बल्कि तले हुए नमकीन मसालेदार सफ़ेद चने बेचने वालों की होती थी जो बच्चों के बहुत पसंद थे। चने बेचने वाला रुक रुक कर बोलता। “चना जोर-र-र-र गरम, बाबू मैं लाया बाबू, चना जोर-र-र- गरम“ बेचने वाले के पास, अपने कंधे पर एक कपडे के अंदर लपेटा हुआ लोहे एक पीपा होता था। लिपटे हुए कपडे के साथ एक पाईप झांकता हुआ दिखता था जिसमें से बकायदा थोडा थोडा धुओं निकलता रहता था। बच्चे घरों से जेब में उस समय के चलन में रहे सिक्के पैसा, टका, आना और दो आना लाते थे। उस समय एक पैसे वाला ताम्बे का सिक्का भी चलन में था। ये बच्चे चने वाले को घेर लेते और वह उन्हें पैसो के अनुसार कागज़ की कोण बना उन्हें चने देते था। चने एक दम गर्म तो नहीं होते थे लेकिन हलके से गर्म होते थे। उस समय बच्चों को यह समझ नहीं आता था कि चनों वाले पीपे से धुँआ कैसे निकलता है। बड़े होने पर समझ आया कि चने वाला, कपडे के अंदर और पीपे से बाहर लगे एक लोहे के डब्बे में गोबर के कंडों को सुलगा के रखता था। इससे एक और तो पाईप से धुँआ निकलता था दूसरे पीपे के भीतर चने भी हलके से गर्म रखता था।
सवेरे शाम गलियों में “हाजमेदार चूरण” खाने के आवाजें भी आती थी। इसे बेचने वाले एक बड़े थाल में काले और गीले चूरण के गोले को पहाड़ की तरह बना कर रखते थे। इस पहाड़ पर चांदी का वर्क चढ़ा होता था इस थाल को रखने के लिए वह वह सरकंडो से बने स्टैंड को अपने साथ रखता था। जब बच्चे चूरण के लिए आते तो वह स्टैंड पर थाल रख कर कागज़ के टुकड़े पर थोडा सा चूरण लेकर उस पर थोडा सा एक सफ़ेद सा पाउडर डालता था। थाल के ऊपर एक शीशी भी होती थी जिसमें कुछ तरल पदार्थ होता था। उसमें एक सलाई भी होती थी। वह इस सलाई से थोडा सा तरल पदार्थ ले पाउडर पर लगता था, जिससे आग की लौ निकलती थी। बड़े होने पर समझ आया कि इससे चूरण कोई अधिक पाचक नहीं बनता था लेकिन यह बस चूरण बेचने के लिये बच्चों को आकृष्ट करने का तरीका था। वास्तव में पाउडर पोटाश होता था और तरल पदार्थ गंधक का तेजाब होता था जिससे लौ भड़क थी।
बच्चों के लिए एक और खाने की चीज़ गुड का पतीसा या मेसू होता था। जो एक तरह का केक कहा जाता सकता है। बेचने वाला मांग के अनुसार बड़े केक से एक चौकौर हिस्सा दे देता था। चूरण और मेसू बेचने जब गलियों में घूमघूम कर ये नहीं बेच रहे होते थे तो स्कूलों के पास अड्डा लगा लेते थे। जब बीच में कुछ समय के लिए छुट्टी होती थी बच्चे इनके आस पास झुण्ड लगा लेते थे।
इसी तरह को बच्चों में बहुत लोकप्रिय गीली गज़क होती थी जिसे बदाना कहा जाता था। इस गीली गचक को एक मोटे डंडे के ऊपर सांप की तरह लपेट कर बेचने वाला गली गली घूमता था। बच्चों के आकर्षित करने के लिए वे सुरीली आवाज़ में बोलते थे “बदाना इलायची वाला, बदाना केवड़े वाला”। वह अपने साथ छोटे और पतले काने ( सरकंडे) रखता था इन पर लाल, हरे पन्ने की झंडी लगी होती थी। वह गीली गचक से एक पतली सी पट्टी निकालकर उसे लम्बा करता था। फिर काने सिर पर उस पट्टी को अलग अलग तरह की शकल दे देता था। अक्सर वह चिड़िया की शकल ही बनता था। यह गचक हलकी से सुनहरी रंग के होती थी तथा चमकदार होती थी। इसके बीच लाल धारियां से होती थी इसलिए दिखने में बहुत आकर्षक होती थी। यह हाथ से चिपक जाती थी इसलिए बच्चे उसेसीधे मुहँ में डाल कर खाते थे।
चूंकि सब बच्चे सिनेमा नहीं देखने जाते थे उनके लिए मौह्ल्ले मौहल्ले में डिब्बा वाले सिनेमा दिखाने वाले घुमते रहते थे। इसे बाईस्कोप वाला कहते थे। लकड़ी के गोल आकार के इस बाईस्कोप की भीतर कुछ आकर्षक तस्वीरो का एक रोल होता था। इसे डिब्बे के दोनों ओर लगे लोहे की डंडी को एक से दूसरी तरफ चलाया जाता था। यह सिनेमा देखने के लिये भीतर झाँकने के लिये तरफ चार, पांच कुछ बड़े-बड़े छेद होते थे। तस्वीरों को बड़ा करके दिखाने के लिए इस में कांच का लेन्स लगा होता था। बच्चे छेदों के पास दोनों आंखे लगा कर देखते थे।
चलाने वाला एक तरफ की डंडी को घूमा तस्वीरों के रोल के धीरे-धीरे घूमता था। इसके साथ घंटी बजा-बजा कर रनिंग कमेन्ट्री की तरह तस्वीरों का आँखों देखा हाल सुनाता जाता था। आम तौर यह आँखों देखा हाल बढ़ा-चढ़ा कर ऐसे सुनाता था ताकि बच्चों को दिलचस्प लगे, इनमें के तस्वीर बम्बई की चौपाटी की जरूर होता थी। कमेन्ट्री में “बम्बई की चौपाटी देख” को बार-बार दोहराया जाता था। क्रमश : (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)