(लेखक जाने माने पर्यावरण कार्यकर्ता हैं व एलपीएस विकास संस्थान के अध्यक्ष हैं।)
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घरेलू शुद्ध मीठे पानी की सामाजिक व्यवस्था पनघट मानवीय समाज, संस्कृति, समाज विज्ञान की देन रही है। भारतीय संस्कृति से समाज में जन्मी सामाजिक व्यवस्थाएं दिन, महीने, वर्ष में उपजी व्यवस्थाओं में से नहीं बल्कि सैकड़ों- हजारों वर्षों में तैयार हुई व्यवस्थाएं हैं, उन सभी में पेयजल व्यवस्था भी एक मुख्य पाईं जाती है। जल के उपयोग, महत्व, संरक्षण, रखरखाव को लेकर एक अद्भुत जानकारी देती " ग्रामीण सामाजिक पेयजल व्यवस्था" रही है। समाज के अपने अनुभवों, अनुसंधानों, जल नीतियों से तैयार जल - व्यवस्था समाज विज्ञान की एक अनुठी व्यवस्थाओं में है जो आज पाश्चात्य संस्कृति के अनुश्रण, वर्तमान विज्ञान के "शुद्ध पेयजल योजनाएं" जैसी आने से परम्परागत समाज विज्ञान नष्ट हो चुका है। जो आज
गांव, ढाणी, शहर, नगर के साथ लम्बी दूरी के आम रास्तों, जंगलों, धार्मिक स्थलों पर अवशेष के रूप में देखने को मिलती है। इस सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता। सामाजिक पेयजल व्यवस्था तीन चार दशक पूर्व अपनाने वाले ग्रामीणों से रुबरु होने पर लगता है कि विश्व की श्रेष्ठतम पौराणिक जल व्यवस्थाओं में से भारत की परम्परागत पेयजल व्यवस्था श्रेष्ठ थी।
एक कुआं, चार ढाणें, चार पणिहारी(महिलाएं) एक साथ मिट्टी के घड़ों, लोहे की बाल्टी(डोल) पर रस्सी बांध कर आवश्यकता के अनुसार अपने घरेलू जल आवश्यकता कुएं से अपने हाथों पानी निकाल पुरी किया करती थीं। नतीजन परिवार को शुद्ध पेयजल प्राप्त होता था और घरों में पानी की बूंदों को संजोकर रखा करते थे। गलियारों में पानी बहाना अपशुकन मानना, परिवार में पानी को अमृत तुल्य मानकर उपयोग करने के पाठ पढ़ाया जाना आम बात थी।
पानी की व्यवस्थाओं को लेकर जैसे - जैसे सुविधाएं, संसाधनों का विकास हुआ,जल व्यवस्था को लेकर बनीं समाज विज्ञान और परमपराएं लुप्त होने लगीं। परिणामतःजल का अपव्यय बढ़ा, परमपराएं टूटने लगीं, गलियारों में कीचड़ के साथ पेयजल का 70 प्रतिशत शुद्ध जल व्यर्थ बहने लगा। परिणाम स्वरूप जल समस्या का जन्म हुआ। दो दशक से उपजी पेयजल समस्या आज भयावह रूप धारण कर मानव के सिर मंडराने लगी है।
पीने के पानी की सामाजिक व्यवस्थाएं सम्पूर्ण भारतवर्ष में "समाज के लिए, समाज द्वारा" के सिद्धांतों पर आधारित व्यवस्थाओं के तहत् की जाती रहीं। भारत में पाई गई जल व्यवस्था विश्व की सबसे श्रेष्ठ पेयजल व्यवस्था होने के बावजूद भारत में राजस्थान की पेयजल व्यवस्था अन्य राज्यों से श्रेष्ठ व सर्वोपरि पाईं गईं है। गांव, गुवाडों, ढाणीयों में समाज अपने नियम कानून से पनघट का निर्माण करते। रखरखाव, साफ सफ़ाई की व्यवस्था के साथ पानी उपयोग के नियमों की पालना हर ग्रामीण के लिए आवश्यक होती थी। समाज जल श्रोतों का निर्माण ,आवश्यकता, उपयोगिता, महत्वाकांक्षा को ध्यान में रखता।
गांव में निवास करने वाले सभी लोग एक पनघट पर अपने -अपने घाटों (डाणों) से पानी लेते रहे और कुआं एक होते हुए भी व्यवस्थाएं अलग रखीं गई जिससे पनघट की शुद्धता, स्वच्छता, सुंदरता बनी रहे। इसके तहत राहगीरों को समस्याओं का सामना नहीं करना पड़े ,इसे लेकर गांव- शहर से दो से पांच किलोमीटर की दूरी पर प्रबुद्ध नागरिक जन, साहूकारों, राज परिवारों, भामाशाहों के सहयोग से जल केंद्र (प्याऊ) का निर्माण होता, जो हर मानव, पशु धन, पक्षियों, जंगली जानवरों के पीने के पानी की आवश्यकता की पूर्ति करता। गांव के लोग प्रत्येक दिन अपने बनाएं कानूनों की पालना करते हुए दूर- दराज में बने जल केन्द्र पर पानी पिलाने का कार्य करते। इस अनूठी व्यवस्था में "सभी का सहयोग, सभी को फायदा" वाली कहावत सिद्ध होती थी। अकेले राजस्थान में अनुमानित 10 हजार जल स्रोत बनें जो आम जन के साथ सभी जीवों के पेयजल की व्यवस्था बनाए रखने में सफल हुए।
बढ़ते मानवीय दबाव, पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव, आधुनिक विज्ञान के प्रभावशाली होने, सामाज विज्ञान के काम नहीं लेने से राजस्थान सहित भारत वर्ष में पाईं गईं पेयजल व्यवस्था जो सैकड़ों वर्षों में विकसित हुई थी, पिछले दो तीन दशकों में नष्ट हो गई। सामाजिक व्यवस्थाओं के लुप्त होने से पेयजल व्यवस्था चरमराने लगी, जल संकट उभरकर सामने आया, सरकारी व्यवस्था के चलते आम आदमी उस व्यवस्था को भूल गया, जिसे "समाज ने अपनाया, लागू किया" था। वर्तमान पेयजल मिशन योजना, "घर -घर नल ,घर- घर जल" जैसी परियोजनाओं के विकसित होने से पीने योग्य पानी का दुरुपयोग बढ़ा और कीचड़ के साथ पानी व्यर्थ बहने लगा।
पनघट से दूरी बनी, आवश्यकता से अधिक बिना श्रम किये घर पहुंचे पानी की महिमा घटने लगी। पनघट नष्ट होने लगे। साथ ही समाज विज्ञान से उत्पन्न जल व्यवस्था के नष्ट होने के चलते चारों ओर पीने के पानी की किल्लत दिखाई देने लगी, घरेलू झगड़े बड़े, आपसी मनमुटाव प्रारंभ हुए। स्थिति यहां तक पहुंच गई कि आम आदमी की जल पूर्ति होना बंद हो गई। शुद्ध जल के नाम प्लास्टिक बोतलों में पानी की बिक्री होने लगी, घरों में आरो का उपयोग बढा़। प्लास्टिक प्रदूषण, जल का अपव्यय होना अधिक हो गया । वन्य जीव, जंतुओं, पशु - पक्षियों के पीने के पानी की किल्लत बढी़, वहीं मानव शरीर पर दुष्प्रभाव भी बढे़ । शुद्ध पेयजल को लेकर वर्तमान में गृह युद्ध प्रारम्भ हो गये।
आज हमें वर्तमान परिस्थितियों को समझते हुए वर्तमान समस्याओं का अध्ययन कर समाधान निकालना चाहिए। यदि अब भी समय रहते हम नहीं समझें और समाधान नहीं निकला, समाज विज्ञान, समाज व्यवस्थाओं का पुनः प्रचार प्रसार नहीं हुआ तो पीने योग्य पानी को लेकर विश्व स्तर पर भी युद्ध होने की सम्भावनाओं से नकारा नहीं जा सकता।
राजस्थान के अलवर में जल जंगल के साथ सामाजिक सरोकार को लेकर कार्य कर रही एल पी एस समाज संस्थान ने अपने सामाजिक अध्ययन, वर्तमान पेयजल व्यवस्था, जल के दुरुपयोग को समझते हुए विचार व्यक्त किया कि हमें उन सभी परिस्थितियों से बचते हुए कार्य करते रहना है जो मानव सहित सम्पूर्ण सजीव जगत पर दुष्प्रभाव डालती हो, संकट पैदा करतीं हो, का बहिष्कार कर पुनः भारतीय सभ्यता, संस्कृति से उपजी पनघट व्यवस्था जैसी अन्य किसी व्यवस्था को अपनाना बहुत जरूरी है, जिसमें समाज विज्ञान को शामिल करते हुए लागू करने की आवश्यकता है ताकि आगामी भविष्य में पेयजल आपूर्ति को सुचारू रूप से बनाए रखा जा सके। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)