केरल के राज्यपाल, लोकायुक्त और सरकार...!
लेखक : लोकपाल सेठी

(लेखक, वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं) 

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केरल में राजकीय विश्वविद्यालयों उप कुलपतियों की नियुक्तियों को लेकर सरकार और राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान में बढ़ती कटुता का मामला अभी  ठंडा ही नहीं पड़ा था कि अब राज्य के लोकायुक्त के अधिकार कम किये जाने को लेकर राज्यपाल और सरकार एक दूसरे के सामने आ गए हैं। राज्य सरकार ने मंत्रिमंडल द्वारा तैयार किये एक अध्यादेश को राज्यपाल के पास मंजूरी के लिए भेजा हैं। अब देखना यह है कि क्या राज्यपाल इस पर अपनी मोहर लगाते है या उसे वापिस सरकार के पास भेजते है। यह भी हो सकता है कानूनी विशेषज्ञों की राय लेने के नाम पर इस अध्यादेश को अपने पास लम्बी अवधि के लिए रख लें। 

2013 में केंद्र सरकार ने भ्रष्टाचार के मामलों की जाँच करने के लिए संसद से केंद्र में लोकपाल और राज्यों में लोकायुक्त किये जाने का एक कानून संसद से पारित करवाया था। उस समय कुछ राज्यों ने प्रदेश में लोकायुक्त नियुक्त किये जाने को लेकर आपत्ति दर्ज करवाई थी। उनका कहना था कि संविधान की मूल भावना के अनुसार यह एक प्रकार से राज्य सरकारों के अधिकारों का हनन है। हालांकि कानून में यह साफ किया गया था कि लोकायुक्त नियुक्त किये जाने का अधिकार राज्य सरकारों के पास ही रहेगा। 

इनकी नियुक्ति और  इनके काम करने के नियम आदि भी राज्य सरकारे ही बनायेंगी। इसक विरोध को  लेकर कई राज्य सरकारों ने अपने यहाँ लोकायुक्त नियुक्त ही नहीं किये। बाद में सर्वोच्च न्यायालयों के एक निर्णय की पालना के लिए राज्य सकारों ने लोक्युक्तों की नियुक्तियां करनी पडीं। अलग-अलग राज्यों में लोकायुक्तों के अलग-अलग प्रकार के नियम कानून है। कुछ राज्यों में लोकायुक्त कानून सख्त हैं जबकि अन्य राज्यों में उनके पास ज्यादा आदिकार नहीं हैं। कुछ राज्यों में लोकायुक्तों के पास अत्याधिक अधिकार हैं तो कुछ राज्यों में लोकायुक्त को सीमित अधिकार हैं। 

केरल में लोकायुक्त कानून काफी सख्त है। अगर लोकायुक्त भ्रष्टचार के अरोपों में कोई सरकारी अधिकार दोषी पता और उसे पद से हटाये जाने के लिए कहा जाता है राज्य सरकार को लोकायुक्त के इस आदेश को हर हालत में लागू करना पड़ेगा। यानि अरोपी सरकार के पास लोकायुक्त के फैसले को चुनौती नहीं दे सकता। इसी प्रावधान के चलते अपने पिछले कार्यकाल में मुख्यमंत्री विजयन पिनराई को अपने उच्च शिक्षा मंत्री के टी जलील को मंत्रिमंडल से हटाना पड़ा था। जलील पर कई प्रकार की अनियमितताओं के आरोप लोकायुक्त के पास भेजे गए थे तथा लोकायुक्त ने आरोपों को सही पाया था और उन्हें मंत्रिमंडल से बर्खास्त किये का आदेश दिया था। जलील के मामले को लेकर सर्वोच्च न्यायलय में अपील की गयी लेकिन सर्वोच्च न्यायलय ने  लोकायुक्त के फैसले को सही माना। 

इस समय लोकायुक्त  के पास कम से कम आधा  दर्ज़न ऐसे मामले सुनवाई के लिए आये हुए है जिनके बारे में यह माना जा रहा है कि आरोप ने केवल गंभीर हैं बल्कि सही भी है। इनमें से एक मामला खुद मुख्यमंत्री पिनराई के खिलाफ हैं। दूसरा मामला उच्च शिक्षा मंत्री आर बिंदु के खिलाफ। बताया जाता है कि  दोनों ही मामलों में सरकार का पक्ष कमज़ोर है। 

राजनीतिक हलकों में यह कहा जा रहा है कि इसी को लेकर राज्य सरकार एक अध्यादेश तैयार कर राज्यपाल को भेजा है जिसमें राज्यपाल को अधिकारों में  बड़ी  कटौती की गयी है। सरकार का कहना है सामान्य रूप से किसी भी दोषी को अदालत के निर्णय को सरकार के समक्ष यां उच्च न्यायलय में चुनौती दी सकती जबकि लोकायुक्त कानून में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है। अध्यादेश के अनुसार लोकायुक्त का फैसला राज्य सरकार के लिए बाध्य नहीं हो सकता। सरकार चाहे तो वह उसे स्वीकार अथवा अस्वीकार कर सकती है। 

चूँकि विश्व विद्यालयों में उप कुलपतियों के लेकर राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान में काफी तनातनी चल रही है और लोकायुक्त उस पर नज़र रहे हुए है और जाँच भी कर रहा है इसलिए बिंदु के मंत्रिमंडल में बने रहने पर संशय की स्थिति बनी हुई हैं। बिंदु, जो कि कालेज में पढ़ाती थी। उन्होंने पद से त्यागपत्र दे कर विधान सभा का चुनाव लड़ा था। चुनावों के दौरान उन्होंने अपने आपको प्रोफेसर प्रचारित किया था जबकि वे पूर्ण रूप से प्रोफेसर नहीं थी। इसको लेकर उनके चुनाव को चुनौती दी गयी है। अपने को सही साबित करने के लिए उन्होंने पिछली तारीखों में अपने आपको  पूर्ण प्रोफेसर के रूप में पद्दोन्नत करवा लिया ताकि वे अदालत में अपने पक्ष को सही साबित कर सकें  और उबका चुनाव अयोग्य होने से बच सके। इसी को लेकर लोकायुक्त को शिकायत  दर्ज करवाई गयी जिस पर अभी जाँच चल रही है। इसी को लेकर केरल की वाम सरकार  लोकायुक्त के अधिकारों में कटौती करना चाहती है। देखना यह है की क्या राज्यपाल अध्यादेश पर हस्ताक्षर करते है नहीं। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)