जीव सेवा अहंकार को समाप्त कर देती है

लेखक : प्रोफेसर (डॉ.) सोहन राज तातेड़ 

पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्वविद्यालय, राजस्थान

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सेवा धर्म जीवन का श्रंगार है। जरुरतमंदों की सेवा करना हम सभी का पुनीत कर्त्तव्य है। कोई व्यक्ति अभावग्रस्त है, बीमार है उसकी सेवा करना राष्ट्र धर्म है। ईश्वर प्रसन्न तब होता है जब उसके बनाए गए जीव की हर तरह से सहायता की जाती है। हम जो सुख भोग रहे हैं वह हमारे पूर्वकृत कर्मों का परिणाम है। सेवाधर्म बहुत ही गहन है। सेवा एक शाश्वतिक धर्म है। सेवा भेद को समाप्त कर देती है। ऊँच-नीच, बड़ा-छोटा का भेद सेवाभाव में नहीं रहता। सेवा एक आंतरिक गुण है। सेवा अहंकार को भी समाप्त कर देती है। शिष्य के प्रति गुरु का भाव और गुरु के प्रति शिष्य का भाव कैसे होना चाहिए, यह सेवा के द्वारा ही प्रकट होता है। 

शिष्य को चाहिए कि वह गुरु की तरफ पैर करके न बैठे। ऊँचे स्वर में गुरु से बात न करे। गुरु के इंगित को समझकर उसके आदेश को मानने के लिए सदैव तत्पर रहे। गुरु के समक्ष सदैव विनम्रता का भाव प्रकट करे। नम्र वाणी में व्यवहार करे। जिससे गुरु की कृपा शिष्य पर बनी रहे। प्राचीनकाल में भारत में गुरुकुल परम्परा थी। शिष्य गुरु के आश्रम में जाकर शिक्षा ग्रहण करते थेे। शिष्य सेवा करते थे। गुरु उनको विद्यादान देते थे। जिससे शिष्य के भविष्य का निर्माण होता था। गुरु स्वयं आचारवान होते थे और शिष्य को आचार-विचार की उत्तम शिक्षा देते थे, जिससे शिष्य के चरित्र का निर्माण होता था। शिष्य अपनी सेवा के द्वारा गुरु ऋण से मुक्त होता था। देवपूजन करके देवऋण से मुक्त होता था। 

देवऋण का तात्पर्य है कि इस संसार में जीव को लाने वाला ईश्वर की कृपा ही है। देवताओं के प्रति भक्ति, यज्ञ-यागादि का विधान, देवपूजन, अर्चन, स्तुतिपाठ आदि के द्वारा देवताओं को प्रसन्न किया जाता था। जीव को इस संसार में लाने वाला माता-पिता है। माता के गर्भ में बच्चा नौ महीने तक पलता है। तद्परान्त वह इस संसार में पदार्पण करता है। न जाने कितने कष्टों को सहकर माता-पिता पुत्र का पालन करते हैं। पुत्र कभी भी माता-पिता से उऋण नहीं हो सकता। माता-पिता के प्रति अपने कर्तव्य का पालन करते हुए उनकी सेवा करना, उनके आदेेश को मानना, उनके अनुशासन में रहना यह पुत्र का परमकर्त्तव्य है। सेवा के द्वारा पुत्र पितृऋण से मुक्त हो सकता है। माता-पिता की सेवा सबसे बड़ा तीर्थ कहलाता है। श्रवणकुमार का प्रसंग इस संबंध में विचारणीय है। श्रवणकुमार अपने अंधे माता-पिता को अपने कंधों पर उठाकर तीर्थ यात्रा के लिये ले गये थे। 

किंतु जब पानी लाने के लिए सरोवर में गये तो वहां पर बाण से आहत होकर प्राण त्याग दिये। ऐसे उदाहरण हमारी भारतीय संस्कृति में सेवा के हैं, जहां माता-पिता की सेवा करते हुए पुत्र ने प्राण त्याग दिये। इसके अतिरिक्त समाज ऋण भी है। समाज से हम बहुत कुछ प्राप्त करते हैं। इसके बदले में हम समाज को क्या देते है यह विचारणीय है। समाज में रहकर हम पलते हैं, बड़े होते हैं, शिक्षा प्राप्त करते हैं और जीविकोपार्जन के साधन प्राप्त कर अपनी पहचान बनाते हैं। इसलिए समाज या देश ऋण को उतारना भी हमारा कर्त्तव्य है। हम देश के एक अच्छे नागरिक बनें। अपने चारित्र के द्वारा दूसरों को प्रेरणा दें, मनुष्य को मनुष्य बनायें, जिससे राष्ट्र का विकास होे सके। धन सम्पन्न व्यक्तियों के लिए सबसे बड़ी सेवा जरूरतमंदों को धन उपलब्ध कराना, शिक्षक का कर्त्तव्य जरूरतमंदों को निस्वार्थ भाव से शिक्षा देना है। इस कर्त्तव्य पालन से हम अपने सामाजिक ऋण से मुक्त हो सकते हैं। 

तन से सेवा, धन से सेवा, मन से सेवा देकर हम संतुष्ट हो सकते हैं। समाज में लूले-लंगड़े, अपाहिज, बहुत से जरूरतमंद लोग रहते हैं, जो अपना कार्य स्वयं नहीं कर सकतेे। सड़क पर जाते हुए अंधे आदमी को हाथ पकड़कर सड़क के किनारे लाकर मार्ग दिखलाना एक अच्छे नागरिक का कर्त्तव्य है। भूखे व्यक्ति को भोजन देना, प्यासे व्यक्ति को पानी देना, आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़े व्यक्ति को सहायता देना बहुत बड़ी सेवा है। ऐसे व्यक्तियों की सेवा नारायण सेवा कही जाती है। नर सेवा नारायण सेवा है। यही सबसे बड़ा तीर्थ है। इसी को परार्थ की चेतना कहते हैं। अपने परिवार का भरण-पोषण, लालन-पालन सभी लोग करते हैं, किन्तु जब किसी दूसरे जरूरतमंद लोगों की सेवा की जाय तो वही सच्ची सेवा है। चिकित्सा, शिक्षा, रोटी, कपड़ा, मकान मनुष्य की बुनियादी आवश्यकता है। जो व्यक्ति जितना समर्थ हो उतना यदि समाज को दे तो समाज का बहुत बड़ा कल्याण हो सकता है। सेवाभावना में अहंकार नहीं होना चाहिए, क्योंकि अहंकार मनुष्य को पतन के गर्त में गिरा देता है। 

शहरों में जगह-जगह मन्दिरों, सार्वजनिक स्थानों, मेला क्षेत्रों आदि स्थानों पर लंगर की व्यवस्था रहती है, जहॉ पर लोग खाना खाकर अपनी भूख शान्त करते है। संसार में बहुत से परोपकारी जीव हैं जो शीत से रक्षा करने के लिए लोगों में कम्बल, स्वीटर और ऊनी वस्त्रों का वितरण कर सेवा में सहभागी होते हैं। दीन-दुखियों की सहायता करना, उनका सम्मान करना हमारा कर्त्तव है। हमारे देश में बहुत सी संस्थाएं गरीबों, असहायों निर्बलों, आर्थिक एवं सामाजिक रुप से पिछडों को आर्थिक सहायता देकर उन्हें सम्मान प्रदान कर रही हैं। ग्रीष्म ऋतु में पशुओं, पक्षियों को जल पिलाना भी एक प्रकार की सेवा है। जगह-जगह पानी से भरे हुए पात्र को छाये में रख देना चाहिए, जिससे प्यासे पशु, पक्षी पानी पी सकें। इसी प्रकार जंगलों और वनों में भी पशुओ के खान-पान की व्यवस्था होनी चाहिए। जिससे उनकी प्राण रक्षा हो सके। इस प्रकार सेवाधर्म बहुत ही पवित्र कार्य है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)