अकेले चलते रहो

लेखक : प्रोफेसर (डॉ.) सोहन राज तातेड़ 

पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्वविद्यालय, राजस्थान

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गुरुदेव रविन्द्रनाथ टैगोर की पुस्तक जिस पर उन्हें नोबल पुरस्कार मिला। उसमें यह कविता है- एकला चलो रे। एकला चरो रे का अर्थ है अकेले चलते रहो। दूसरों की परवाह न करिये। यह एक ऐसी कृति की गाथा है जो दशकों से हर भारतीय की जुबान पर है। 

कविवर रविन्द्रनाथ टैगोर द्वारा रचित यह गीत बंगला भाषा में है। भाषा की अनभिज्ञता के कारण पूरा गीत लोगों की समझ में नहीं आता। इस गीत का भाव जिसने समझ लिया है उसे यह पता है कि यह गीत कितना प्रासंगिक है। यह कटु सत्य है कि यदि आप कोई भी अच्छा काम करना चाहते है, परन्तु बिना किसी के सहयोग से यदि उस कार्य को आप कर रहे है तो सफलता अवश्य मिलेगी। अपने बलबुते पर वह काम करिये जो आपको अच्छा लगे। एक ऐसा गीत जो प्राणों में उत्साह भर दे, एक ऐसा गीत जिसे सुनकर आप आत्मविश्वास से भर जाये, ऐसा कदम से कदम मिलाकर साथ में चलने के लिए तैयार हो जायेंगे। चरैवेति-चरैवेति का यह सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त के आधार पर चलने वाले की कभी हार नहीं होती। वह प्रयत्न करता रहता है और आगे बढ़ता रहता है। गीता उपदेश देती है कार्य करते रहिये फल की इच्छा न करिये। सफलता और असफलता जीवन में आते रहते है और जाते रहते है। सफलता से अधिक खुशी नहीं मनानी चाहिए और असफलता से निराश नहीं होना चाहिए। नाविक जब धारा में नांव लेकर जाता है तो धारा अनुकूल रहने पर नांव अपनेआप थोड़े से परिश्रम में आगे बढ़ जाती है किन्तु यदि धारा विपरीत है तो नाविक को बहुत परिश्रम करना पड़ता है। 

विपरीत धारा ही नाविक का परीक्षण है। भारत सदियों से विदेशी शक्तियों का गुलाम रहा है इस गुलामी में भारतीयों पर बहुत जुल्म ढाये गए। किन्तु जब जनता में जागृति उत्पन्न हुई और जनता ने अपना मार्ग स्वतंत्रता का चुना तो अंग्रेजों को भारत छोड़कर भागना पड़ा। यह है अकेले चलने का परिणाम। मानव को अपना मार्ग स्वयं निश्चित करना पड़ता है। अगर मंजिल दिखायी दे रही है तो स्वयं आगे बढ़कर वहां तक पहुंचना पड़ता है। एकला चलो का अर्थ है आत्मनिर्भरता और स्वालम्बन। आत्मविश्वास के साथ अपनी सम्पूर्ण शक्तियों का संचय कर स्वतंत्र रूप से अपने लक्ष्य की और अग्रसर होना ही पूर्ण स्वावलम्बन है। किसी कवि ने ठीक ही कहा है कि- खुद ही को कर बुलंद इतना कि हर तबदील से पहले, खुदा बंदे से खुद पुछे बता तेरी रजा क्या है? स्वयं को इतना महान बना लेना चाहिए कि परिस्थितियां स्वयं नतमस्तक हो जाये तथा ईश्वर स्वयं उपस्थित होकर पुछे की तुम क्या चाहते हो? तुम्हारी आकांक्षा क्या है। यह सत्य है कि स्वावलम्बी पुरुष परिस्थितियों के अनुसार स्वयं को नहीं ढ़ालते अपितु वे परिस्थितियों को अपने अनुकूल बदल लेते है। स्वावलम्बन और आत्मविश्वास के सहारे मनुष्य सफलता प्राप्त करता है। प्रत्येक परिस्थिति में अपनी राह चुनकर वह आगे बढ़ जाता है। 

प्रकृति का प्रत्येक कण स्वावलम्बन का संदेश देता है। नदियां अपनी दिशाएं स्वयं तय करती है। भीषण गर्मी, भयंकर शीत ऋतु में भी वनस्पतियां जीवित रहकर फलती-फूलती है लेकिन इन सबमें उग्रता दिखाई नहीं देती। आत्मनिर्भरता का अभिप्राय यह कदापि नहीं है कि संसार भर में महान् लोगों के आदर्शों का अनुकरण न करो। आत्मनिर्भरता की राह हमें पंगु नहीं बनाती। जीवन में विनम्र रहते हुए महापुरुषों से प्रेरित होते हुए अपने लक्ष्यों के लिए कार्यरत रहना चाहिए। सूर्य अकेेले ही सम्पूर्ण विश्व को प्रकाशित कर देता है। सूर्य की किरणे संसार के अंधकार को हर लेती है। यह सब प्राकृतिक तत्व हमें यह प्रेरणा देते है कि अपने मार्ग पर आगे बढ़ते रहिये। अपनी राह चुनने वाले राजा राममोहन राय, पंडित मदनमोहन मालवीय, विवेकानन्द, महात्मा गांधी जैसे महापुरुषों ने अकेला चलकर के नवीन किर्तिमान स्थापित किया है। तुलसीदास, मीराबाई, भारतेन्दु हरिशचन्द्र जैसे साहित्यकारों ने काल की सीमा को पार कर अमृत प्राप्त किया। उन्होंने विचारों को एक नया आयाम प्रदान किया। उन्होंने किसी का अनुगमन करने की अपेक्षा स्वयं उचित स्थिर और मूल्यवान राह चुनी। जो दूसरों के लिए प्रेरणास्रोत थी। मनुष्य यदि अपनी शारीरिक और मानसिक क्षमताओं को जान पाये तो उन पर विश्वास कर अपने जीवन की एक दिशा तय कर ले। 

सफलता उसका स्वागत करने के लिए तत्पर रहेगी। इसके विपरीत जो सदैव दूसरे पर निर्भर रहते है उनके लिए मंजिल पाना बड़ा मुश्किल है। ऐसे लोग पृथ्वी पर भारस्वरूप होते है और मनुष्य के रूप में पशु होकर विचरण करते है। जापान, चीन जैसे देशों की वर्तमान औद्योगिक व तकनीकी उन्नति, आर्थिक निर्भरता उनके स्वयं की योजनाओं का सुपरिणाम है। भारतीय वर्तमान स्थितियों में परमाणु शक्ति का संचय कर भारत ने अपने आत्मनिर्भरता का परिचय दिया है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में एकला चलो का सूत्र सफलता की मंजिल को दिखलाता है। खेल के क्षेत्र में यदि हम देखे तो दुनिया के छोटे-छोटे देश अपनी क्षमता और अभ्यास के माध्यम से ओलंपिक खेलों में अनेक स्वर्ण पदक प्राप्त करते है। खेलोें से प्रत्येक खिलाड़ी स्वस्थ व ह्रस्ट-पुष्ट बना रहता है। शरीर के अंग-अंग में चुस्ती व स्फुर्ति बनी रहती है। योग के माध्यम से शरीर को स्वस्थ रखा जा सकता है। संसार के जितने भी महापुरुष हुये है उन्होंने एकला चलो की राह अपनाकर जीवन के लक्ष्य को प्राप्त किया है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)