व्यंग्यकार लेखक : रमेश जोशी
सीकर (राजस्थान)
9460155700
प्रधान सम्पादक, 'विश्वा', अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति, यू.एस.ए.
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आज तोताराम ने बड़ा अजीब प्रश्न किया- मास्टर, फूंक और थूक में क्या फर्क है ?
हमने कहा- तोताराम, फर्क तो मन का होता है। कोई मन को भाता है तो उसका गुस्सा भी प्यारा लगता है और जिसके लिए मन में खोट होता है उसे किसी का कुछ भी अच्छा तो दूर, बुरा लगता है। नीयत ठीक है तो सब ठीक है नहीं तो कुछ भी ठीक नहीं है।
बोला- तू तो दार्शनिक बात करने लगा। हम तो साधारण दुनिया में रहते हैं और छोटी-छोटी बातों पर हंसते-रोते, दुखी-सुखी होते हैं।
हमने पूछा- क्या हुआ ?
बोला- लोग लता मंगेशकर के अंतिम संस्कार के समय शाहरुख खान के फूंक मारने को थूकना कहकर बवाल मचा रहे हैं।
हमने कहा- तोताराम, ये ऐसे बदमाश लोग हैं जो इस देश को ख़त्म करके मानेंगे। इन्हें काम तो कुछ है नहीं। दो-दो रुपए और फ्री रिचार्ज में खुराफाती, बनावटी खबरों का कीचड़ फैला रहे हैं जिसमें वैमनस्य की जलकुम्भी फैलती जा रही है जिसने प्रेम और भाईचारे के कमलों और कमलिनियों को ढँक लिया है।
बोला- फिर भी फूंक और थूक का क्या चक्कर है ?
हमने कहा- फूंक और थूक दोनों ही मनुष्य की छोटी-छोटी, कभी निरर्थक और कभी सार्थक चेष्टाएँ हैं। जब कभी जलन होती है या कहीं चोट लग जाती है तो फूंक मारकर दिल को दिलासा देते हैं। कभी कभी थकान को उड़ाने के लिए एक लम्बी सांस लेते हैं, वह भी एक प्रकार की फूंक ही है। बचपन में जब आज की तरह देशभक्तों द्वारा बात बात में हिन्दू-मुसलमान नहीं हुआ करता था तब बुखार होने पर दादी दवा के साथ मस्जिद में जाकर मुल्ला जी से झाड़ा भी लगवाती थी। तब वे अंत में फूंक मारते थे। इस फूंक का मतलब था बुरी हवा, आत्माओं को फूंक से उड़ा देना। शाहरुख़ खान ने लता जी के लिए दुआ करके वही फूंक मारी थी। लेकिन जिनको देश में अपने चुनावी लाभ के लिए ऐसी अफवाहें फ़ैलाने का ही काम मिला हुआ है वे इसमें और क्या देख सकते हैं ?
क्या जब माँ को अपना बच्चा बहुत अच्छा लगता है तो वह उस पर थुथकारती नहीं कि कहीं नज़र न लग जाए।
बोला- तो फूंक और थूक में विवाद कैसा ?
हमने कहा- सारा विवाद नीयत का है। दुनिया की सभी नागर सभ्यताओं में किसी न किसी रूप में कम-ज्यादा परदे का विधान रहा है। अब उसी को लेकर कर्नाटक में हिजाब को धार्मिक रंग दिया जा रहा है. यह भी राष्ट्रीयता की आतंकवादी फूंक नहीं तो और क्या है ?
एक फूंक कृष्ण की। बांसुरी फूंककर सारी सृष्टि को माया-मोह से मुक्त कर देते हैं, तो कभी पाप को मिटाने के लिए इसी फूंक से 'गीता' का शंख फूँकते हैं। गाँधी अहिंसा का शंख फूँकते हैं और शैतानी अंग्रेज शासन को भगा देते हैं।
फूंक धर्मान्धता और कुटिल राजनीति का एक हथियार भी है। बस, फूँको और लाखों मूर्ख लोग पत्थर फेंकने, गालियाँ निकालने लग जाते हैं। किसी की जलन कम नहीं होती बल्कि घृणा और हिंसा की आग भड़क उठती है।
बोला- इनकी फूंक गाँधी वाली नहीं, चूहे वाली है।
हमने पूछा- कैसे ?
बोला- रेगिस्तानी इलाकों में एक चूहा होता जो रात को, किसी का हाथ खाट से नीचे लटका रह जाए तो कुतर देता है। कुतरते समय बीच-बीच में फूंक मारता रहता है जिससे व्यक्ति को पता नहीं चलता. जब पता चलता है तब तक अंगुली गायब। यह भी राष्ट्रीयता की आड़ में विघटन की फूंक ही होती है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)