लेखक : डाॅ. सत्यनारायण सिंह
(लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी हैं)
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भारत के आक्सफेम इंडिया की नवीन रिपोर्ट के अनुसार कोरोना काल में 98 अमीरों के खजाने में 55.2 करोड़ गरीबों जितना धन जमा हुआ है। कोरोना काल में उनकी 24.7 प्रतिशत सम्पत्ति बढ़ी है। 100 अमीरों की कुल सम्पत्ति वर्ष 2021 में 775 अरब डालर हुई जो मार्च 2020 में 313 अरब डालर थी। महिलाओं की कमाई में 2020 में 59.11 लाख करोड़ कम हुई। 2020 में 4.6 करोड़ से अधिक भारतीय बेहद गरीबी की स्थिति में पंहुच गये जो संयुक्त राष्ट्र के अनुसार विश्वस्तर पर नये गरीबों का आधा है। कामकाजी महिलायें 2019 के मुकाबले 1.3 करोड़ कम हुई। पिछले 4 वर्षो में कारपोरेट कर में गिरावट आई, अप्रत्यक्ष कर बढ़ा। सम्पत्ति कर समाप्त होने के पश्चात पिछले वर्ष कारपोरेट कर 30 प्रतिशत घटकर 22 प्रतिशत कर दिया जिससे 1.5 लाख करोड़ रूपये का नुकसान हुआ। 2020-21 में ईंधन पर 33 प्रतिशत कर बढ़ा जो कोरोना काल से पहले की अवधि से 79 प्रतिशत ज्यादा है।
महामारी के दौरान न केवल देश में अरबपतियों की संख्या बढ़ी बल्कि इनके खजाने में भी भारी बढ़ोतरी हुई। दूसरी ओर आर्थिक कमजोरी प्रतिदिन कम से कम 21 हजार या हर चार सेकंड में एक व्यक्ति की मृत्यु के लिए जिम्मेदार है। देश के 84 प्रतिशत परिवारों की आय कम हुई। अरबपति 102 से बढ़कर 142 हो गये।
ऐसे समय जब महामारी हम सबको रौंद रही है, भारतीय अर्थव्यवस्था का स्वरूप बदल रहा है। अनेक बड़ी-बड़ी कंपनियां व छोटे उद्योग बंद हो रहे है अथवा बेचे जा रहे है अथवा सरकारी बैंकों के सहारे से जिंदा रह रहे है। रोजगार घट रहे है, कर्मचारियों की छंटनी की जा रही है। उत्पादन घट रहा है, कुल मिलाकर मंदी व मंहगाई बढ़ रही है।
सरकारी कंपनियां बेची जा रही है अथवा उसमें निजी भागीदारी बढ़ रही है। आम आदमी की क्रय शक्ति सुधरने के संकेत नहीं मिल रहे। देश की तीन चैथाई जनता का वार्षिक खर्च करीब 1800 रूपये से लेकर 7300 रूपये के बीच है। निजीकरण व मानोटाइजेशन की नीति अपना ली गई है। पिछले 75 साल में अर्थव्यवस्था व कंपनियों की हालत कभी भी आज जितनी दयनीय नहीं हुई।
खुदरा बाजार में दैनिक उपभोग की चीजों के दाम उंचे बने हुए है। खासकर खानपान के सामान अभी भी करोड़ों लोगों की पंहुच से बाहर बने हुए है। दालों, खाद्य तेलों, दूध, फलों आदि के दाम अधिकांश लोगों की पंहुच से बाहर है। देश में व्यापक कुपोषण की दृष्टि से शुभ संकेत नहीं है।
खेती की वृद्धि दर में कमी आई है। निर्यात में गिरावट व कलकारखानों में उत्पादित माल के उत्पादन में कमी चल रही है। मंदी की मार से बचने के लिए ब्याज दर घटाकर कंपनियों का मुनाफा तो बढ़ा दिया किन्तु उससे मांग नहीं बढ़ पाई। दस-बीस लाख कीमत वाले मकानों के लिए सस्ते कर्ज देशव्यापी मकान की कमी को पूरा नहीं कर सकता।
1950 और 1960 के दशकों के दौरान मिलीजुली अर्थव्यवस्था के माडल और नियोजित विकास दर की रणनीति से वर्तमान औद्योगिक आधार के लिए मजबूत नींव पड़ी। अब आयातों का विकल्प ढूंढने की नीति का परिणाम यह रहा कि उत्पादकता में गिरावट आई और अर्थव्यवस्था की लागत बढ़ गई। उदारीकरण की प्रक्रिया के बाद घरेलु विकास क्रम संवेदनशील रहा। आर्थिक मुद्दे शहरो के पक्ष में है, 20 करोड़ से ज्यादा मध्यम वर्ग की समस्याओं पर ध्यान नहीं हैं। वैश्वीकरण की प्रवृत्ति के चलते केन्द्र सरकार ने आर्थिक क्षेत्रों में बहुकोणिय जरूरतों पर ध्यान नहीं दिया। शिक्षा, कानून व्यवस्था, स्वास्थ्य, बिजली जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों पर केन्द्रीय सरकार का ध्यान नहीं रहा।
केन्द्र व राज्यों के बीच संतुलन बिगड रहा है। अर्थव्यवस्था के सम्मुख नियोजन और सार्वजनिक नीति संबंधी अनेक चुनौतियां उपस्थित हो गई है। खेती से होने वाली सकल घरेलु उत्पाद की विकास दर आबादी के विकास दर से थोड़ा ही ज्यादा है। तेजी से गरीबी मिटाने के लिए कृषि क्षेत्र की विकास दर में वृद्धि करना जरूरी है। मानव विकास सूचकांक में आर्थिक व सामाजिक दोनों को महत्व देकर व्यापक बनाने की आवश्यकता है।
प्रो. अमत्र्य सेन ने विकास को स्वतंत्रता के रूप में परिभाषित किया हैं परन्तु इन आधारों पर भारत की स्थिति संतोषजनक नहीं है, विश्व में 168वीं स्थान है। भारत में औसत आयु मात्र 65 वर्ष है जबकि विकसित देशों में 80 से 90 वर्ष। इसी प्रकार साक्षरता 65 प्रतिशत है जबकि विकसित देशों में 90 प्रतिशत से अधिक। सामाजिक विकास सूचकांक में इक्कीस संकेतक शामिल है जिसमे सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक, स्वास्थ्य, जनसांख्यकीय संकेतांक शामिल है। भारत की स्थिति असंतोषजनक है। देश में विकास के नये प्रतिमान, लोकोन्मुखी, रोजगारपरक, जनसहभागी, समतामूलक एवं पर्यावरण हितैषी विकास के नये प्रतिमान उठाना आवश्यक है। जरूरत है जनता में आत्मनिर्भरता बढ़ाने की की और सशक्तिकरण करने की। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)