लेखक : लोकपाल सेठी
(लेखक, वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)
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दक्षिण के बीजेपी शासित इस प्रदेश में कन्नड़ भाषी संगठनों और इससे जुड़े सामाजिक और सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं ने राज्य में कन्नड़ भाषा के उपयोग को बढ़ाये जाने के मुद्दे को लेकर मुहीम सी छेड रखी है। उनका कहना है कि बीजेपी सरकार राज्य में संस्कृत को बढ़ावा दे रही है तथा इसी के चलते राज्य की प्रमुख भाषा कन्नड़ की अनदेखी सी हो रही है।
सारा विवाद उस समय शुरू हुआ जब राज्य सरकार ने संस्कृत विश्वविद्यालय के विकास के लिए 320 करोड़ रूपये आवंटित किये। राज्य में संस्कृत विश्व्विद्लाया की स्थापना एक दशक से भी पूर्व हुयी थी जब बीजेपी पहली सत्ता में आई थी। उसके बाद आई सिद्धारमिया के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने इस विश्व विद्यालय को अधिक धन राशि आवंटित नहीं की। इसके चलते यह विश्वविद्यालय अधिक प्रगति नहीं कर सका। बीजेपी के उस शासनकाल में भी कन्नड़ भाषी संगठनों ने इस विश्वविद्यालय की स्थापना का विरोध किया था। उनकी मांग थी की सरकार को संस्कृत की बजाये कन्नड़ भाषा के अध्यन तथा शोध आदि को प्रोत्साहन देना चाहिए।
राज्य में कई वर्ष पूर्व हम्पी में कन्नड़ विश्वविद्यालय की स्थापना की गयी थी। लेकिन एक से अधिक कारणों से यह अधिक पनप नहीं पाया। यहाँ पढने के लिए आने वाले छात्रों की संख्या सीमित ही रही। हालत ये है कि पिछले तीन साल में एक भी छात्र ने यहाँ दाखिला नहीं लिया है। सरकार की ओर से मिलने वाला अनुदान भी घटता चला गया। ताजा जानकारी के अनुसार यहाँ के प्राध्यापको तथा कर्मचारियों को पिछले कई माह से वेतन नहीं मिल रहा। सरकार के कहना है कि विश्ववद्यालय को चलाने के लिए स्वयं भी कुछ संसाधन जुटने चाहिए। वहां के कर्मचारी संगठन का कहना है कि पिछले कुछ साल से इस विश्विद्यालय की हालत पंगु सी हो गयी है। सरकार में बैठे लोग चाहते है कि यह विश्वविद्यालय की स्वतः ही मौत हो जाये। कन्नड़ भाषी संगठनों की यह पुरानी मांग है कि राज्य में स्कूलों में सभी स्तरों पर कन्नड़ भाषा को पढना अनिवार्य कर दिया चाहिए। लेकिन पिछली सभी सरकारों ने इसे कभी भी पूरी तरह से लागू नहीं किया।
राज्य में जनता दल (स) ही एक ऐसा राजनीतिक दल है जो कन्नड़ भाषा की पढ़ाई के लिए मुखर रहा है। कन्नड़ भाषी संगठनों में भी इसी के लोग अधिक है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में जैसे जैसे जनता दल (स) कमज़ोर पड़ता चला गया वैसे वैसे कन्नड़ भाषा की अनिवार्यता का मामला भी ढीला पड़ गया। कुछ समय पूर्व कई संगठनों ने कर्नाटक हाई कोर्ट में एक जनहित याचिका दाखिल करके मांग की थी कि राज्य में संस्कृत भाषा अनिवार्य कर दी जाये। इस याचिक का उद्देश्य कन्नड़ भाषी संगठनों की मुहिम का विरोध करना था। जनहित याचिका में कई वे संगठन भी शामिल हैं जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े हुए है। बात यहाँ तक पहुच गयी कि कन्नड़ भाषा की फिल्मों पर प्रतिबन्ध लगाये जाने की मांग हुई। उनका आरोप था इन दोनों फिल्मों में संस्कृत भाषा पर विपरीत तथा अशोभनीय शब्द कहे गए है। इसे ब्रहामिनो की भाषा कहा गया है उनका कहना है कि संस्कृत सभी भारतीय भाषायों की जननी है इसलिए किसी भी क्षेत्रीय भाषा को अलग से महत्व नहीं दिया जाना चाहिए। उधर कन्नड़ भाषी संगठन इस बात के जोर देते आ रहे है कि कन्नड़ भाषा में दिनों दिन बढ़ते संस्कृत शब्दों को रोका जाये तथा इस भाषा का मूल रूप फिर से स्थापित किया जाना चाहिए।
राज्य में अधिकांश निजी स्कूलों में छात्र अंग्रेजी को अपनी पहली भाषा के रूप में चुनते है। छात्रों को अपनी एक दूसरी भाषा को चुनना होता है। कन्नड़ भाषी संगठनों का कहना कि एक समय था जब अधिकतर छात्र कन्नड़ को अपनी दूसरी भाषा के रूप में चुनते थे। लेकिन पिछले कुछ समय से अधिकतर छात्र संस्कृत को अपनी दूसरी भाषा चुनने को प्राथमिकता देते है। इसके चलते स्कूलों में कन्नड़ भाषा का चलन धीरे-धीरे ख़त्म सा हो रहा है। यह सब इसलिए हो रहा है क्योंकि वर्तमान सहित पिछली अन्य सरकारों ने कन्नड़ भाषा के विकास और विस्तार के लिए उतना ध्यान नहीं दिया जितना कि दिया जाना चाहिए था। राज्य के एक वर्ग में कन्नड़ गौरव अथवा कन्नड़ राष्ट्रवाद जोर पकड़ता जा रहा है। इसके पीछे कन्नड़ भाषा के लेखक तथा ऐसे ही संगठन इसे एक बड़ा मुद्दा बनाने में लगे है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)