ईश्वर को न्यायी मानना ज्ञान है

हुआ सो न्याय


लेखक : प्रोफेसर (डॉ.) सोहन राज तातेड़ 

पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्वविद्यालय, राजस्थान   

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जून 1958 के सांयकाल छः बजे के समय सूरत शहर के रेलवे स्टेशन की बेंच पर बैठे श्री अम्बालाल मूलजी भाई पटेल की काया में अक्रम रूप में कई जन्मों से व्यक्त होने के लिए आतुर दादा भगवान पूर्ण रूप से प्रकट हो गये। अम्बालाल मूलजी भाई पटेल स्वयं कहते थे कि मैं दादा भगवान नहीं हूं। हमारे अंतस्थल में स्थित आत्मा दादा भगवान है। दादा भगवान कोई व्यक्ति नहीं बल्कि स्वयं परमात्मा का रूप है। अध्यात्म का ऐसा प्राकट्य हुआ कि क्षण भर में हार्ड मांस का पुतला भगवत् स्वरूप हो गया। उन्होंने अपने जीवन में प्रामाणिकता और नैतिकता को महत्व दिया जैसे ही उन्हें आत्मज्ञान प्राप्त हुआ वह दिव्य आत्मा बन गये और अन्य मुमुक्षु जनों को भी आत्मज्ञान की प्राप्ति करवाते थे। उनके द्वारा उपदिष्ट मार्ग अक्रम मार्ग कहलाता है। 

अक्रम का अर्थ है बिना क्रम के और क्रम का अर्थ है सीढ़ी दर सीढ़ी ऊपर आरोहण करना। अक्रम मार्ग लिफ्ट का मार्ग है और क्रम मार्ग सीढ़ी का मार्ग है। दादा भगवान के द्वारा दिखाया गया मार्ग अक्रम विज्ञान का मार्ग है। उन्होंने जो मार्ग दिखलाया है वह सीधे उच्च स्तर पर पहुंचा देता है। प्रायः सभी विषयों पर उन्होंने अपने विचार व्यक्त किये है। जगत, ईश्वर, आत्मा, जीव आदि दार्शनिक विषयों पर उनका अपना मौलिक चिन्तन है। इस चिंतन को लोगों ने स्वीकार किया और लाखों अनुयायी उनके दिखाये गये मार्ग का अनुकरण करते है। जगत के विषय में उनका कहना है कि यह जो दिखायी दे रहा है उतना ही जगत नहीं है। शास्त्रों में तो कुछ ही अंश है। शेष जगत तो अवर्णनीय है। शब्दों के द्वारा भी जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता है। सामान्य मनुष्य शास्त्रों में जितना पढ़ता है और गुरुओं से जितना सुनता है उतना ही जानता है लेकिन जो आत्मानुभव करते है उन्हें सत्य के स्वरूप का पूर्ण ज्ञान हो जाता है। इसलिए दादा भगवान कहते है कि इसकी विशालता को मैं बतलाता हूं। जो कुदरत का न्याय है उसमें एक क्षण के लिए भी अन्याय नहीं होता। न्यायालयों में न्याय भी हो सकता है और अन्याय भी हो सकता है। यह न्यायाधीश के विवेक पर निर्भर करता है कि वह किस प्रकार से न्याय को देखता है। यदि ईश्वर के न्याय को समझोगे तो आप इस जगत से मुक्त हो पाओगे, परन्तु यदि ईश्वर को जरा सा भी अन्यायी समझा तो वह आपके लिए जगत में उलझने का ही कारण है। 

ईश्वर को न्यायी मानना नाम ज्ञान है। जैसा है वैसा जानना उसका नाम ज्ञान है और जैसा है वैसा न जानना उसका नाम अज्ञान है। किसी आदमी ने किसी दूसरे आदमी का मकान जला दिया तो कोई उस समय ये पूछे कि भगवान यह क्या है? यह न्याय है या अन्याय। यदि कहे कि न्याय है तो वह कुढ़ता रहे कि नालायक है और उसे अन्याय का फल मिलेगा। वह न्याय को ही अन्याय कहता है। जगत न्याय स्वरूप ही है। इसमें एक क्षण के लिए भी अन्याय नहीं होता। संसार में न्याय ढूंढ़ने से ही तो पूरी दुनिया में लड़ाई हुई है। आपने किसी को एक गाली दी तो उसके बदले में वह आपको दो-तीन गालियां दे देगा, क्योंकि उसका मन आप पर गुस्सा होता है। तब लोग क्या कहते हैं? तूं क्यों तीन गालियां दी, इसने तो एक ही गाली दी थी। अब इसमें क्या न्याय है। उसका हमें तीन ही देने का हिसाब होगा। तब न्याय बराबर होगा। यह नियम बड़ा साधारण है कि जैसा बुना होगा वह बुनायी वैसे ही वापस खुलेगी। अन्याय पूर्वक बुना हुआ होगा तो अन्याय से खुलेगा और न्यायपूर्वक बुना होगा तो न्याय से खुलेगा। अन्यायपूर्वक यदि बुना है और न्यायपूर्वक उधेड़ने चला है तो वह कैसे संभव है। 

यह तय करना मानव जाति के लिए हमेशा से ही एक समस्या रहा है कि न्याय का ठीक-ठीक अर्थ क्या होना चाहिए और लगभग सदैव उसकी व्याख्या समय के संदर्भ में की गयी है। मोटे तौर पर उसका अर्थ यह रहा है कि अच्छा क्या है इसी के अनुसार इससे संबंधित मान्यता में फेर-बदल होता रहा है। दो व्यक्तियों के बीच के कानूनी विवादों में दण्ड की व्यवस्था योग्यता के अनुसार ही होनी चाहिए। न्यायपालिका को समानता के मध्यवर्ती बिन्दु पर पहुंचने का प्रयत्न करना चाहिए। ईश्वर के न्याय को यदि इस तरह समझोगे कि हुआ सो न्याय तो आप इस संसार से मुक्त हो जाओगे। लोग जीवन में न्याय और मुक्ति को एक साथ ढूंढ़ते है। यह पूर्ण विरोधाभास की स्थिति है। यह दोनों एक साथ मिल ही नहीं सकते। प्रश्नों का अंत आने पर ही मुक्ति की शुरूआत होती है। अक्रम विज्ञान में सभी प्रश्नों का अंत आ जाता है, इसलिए यह बहुत ही सरल मार्ग है। 

दादा भगवान की यह अनमोल खोज है कि कुदरत कभी अन्यायी नहीं होता। जगत न्याय स्वरूप है। जो हुआ सो न्याय ही है। ईश्वर कोई व्यक्ति नहीं है कि उस पर किसी का जोर चल सके। न्याय से बाहर तो कुछ होता ही नहीं। यदि कोई किसी का मर्डर कर दे तो क्या वह भी न्याय ही  कहलायेगा? दादा भगवान के अनुसार न्याय से बाहर तो कुछ होता ही नहीं। भगवान की भाषा में न्याय ही कहलाता है। सरकार की भाषा मंे यह न्याय नहीं है। आधुनिक न्याय की भाषा में खून करने वाले को ही गुनहगार कहा जाता है। किन्तु भगवान की भाषा में इसे क्या कहा जाये? जिसका खून हुआ है वही गुनहगार है। यदि कोई पूछे, क्या यह खून करने वाले का गुनाह नहीं है? तब कहे, खून करने वाला जब पकड़ा जायेगा, तब वह गुनहगार माना जायेगा, अभी तो वह पकड़ा गया नहीं है। किन्तु जब वह पकड़ा जायेगा तो ईश्वर मूल और ब्याज के सहित उसे दण्ड दे देगा। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)