खेती की समस्याएं

लेखक : डाॅ. सत्यनारायण सिंह

(लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी है)

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महात्मा गांधी ने कहा था ‘‘भारत की आत्मा गांवों में बसती है’’, प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने खेती की उपादेयता एवं तात्कालिकता को इंगित करते हुए कहा था ‘‘दूसरी हर चीज इंतजार कर सकती है, मगर खेती नहीं।’’ उस समय पंचवर्षीय योजनाओं में बड़े बांध, बड़ी नहरों का निर्माण, ग्रामों में सामुदायिक विकास, जागीरदारी व जमींदारी की समाप्ति, पंचायतराज की स्थापना हुई व कृषि को महत्व दिया। प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री व इन्दिरा गांधी ने हरित व श्वेत क्रांति को जन्म दिया व सफल बनाया परन्तु बुनियादी विकास की आवश्यकता के मद्देनजर राष्ट्रीय बजट में सीधे रूप से कृषि के विकास के प्रावधान कम रहे।

किसानों की संख्या बढ़ती रही, भूमि के टुकडे होते गये, आज तीन चैथाई कृषक लघु व सीमान्त कृषक है। जिन किसानों के परिवार के सदस्यों को गैर कृषि आय नहीं है, वे भारी मुसीबत में है और धीरे-धीरे किसान से भूमिहीन व मजदूर बनने को अभिशप्त है। प्रो. एम.एस.स्वामीनाथन आयोग ने किसानों की समस्याओं और उनके निराकरण पर प्रकाश डाला, अहम सिफारिशें की परन्तु उस पर पूरी तरह अमल नहीं हुआ।

भारत के सकल घरेलू उत्पाद में अब कृषि का हिस्सा मात्र 16.6 प्रतिशत है जबकि संपूर्ण कार्यबल का 52 प्रतिशत कृषि में नियोजित है। इस प्रकार प्रति एकड व प्रति व्यक्ति उत्पादकता बहुत कम है। भारतीय कृषि में ‘‘छद्म रोजगार’’ है, जो काम एक व्यक्ति कर सकता है, उसे कई व्यक्ति करते है। भारत में पालतू पशुओं की संख्या पूरी दुनिया में सर्वाधिक है। आबादी के बढ़ने के साथ-साथ खेतिहर जोतो का विभाजन तेजी से हुआ, फलस्वरूप भारत की तीन चैथाई जोते एक हेक्टर से कम है, औसतन जोत का आकार बीस हजार वर्ग मीटर से कम है जिससे तकनीकी का उपयोग असंभव हो गया है।

भारत के 6 लाख गांवों में 72 प्रतिशत आबादी रहती है। मात्र 52.6 प्रतिशत खेती की सिंचाई सुनिश्चित हो पाती है। आधी खेती पूर्णतः वर्षा पर आधारित है। सिंचित खेती भी बिजली की आपूर्ति, नलकूप की दुरूस्ती, नहरी जल वितरण की विषमता, प्रशासनिक असहयोग आदि पर निर्भर है। भूजल का दोहन अधिक होने से तलस्तर काफी नीचे चला गया है। अशिक्षा व विकल्प न होने के कारण सिंचाई का अकुशल प्रबन्धन, स्प्रिंकलर आदि का प्रयोग नहीं होना, पूरे खेत को पानी से डुबाया जाना, मौसमी वर्षा का असामयिक व सुनिश्चित होना, खाद्यान्न उत्पादन पर असर कर रहा है।

भारत में वर्षापात भिन्न-भिन्न होता है। 68-70 प्रतिशत क्षेत्र दुर्बल क्षेत्र यानि सूखा सुभेद्य है। इसमें 33 प्रतिशत क्षेत्र सूखाग्रस्त है यानि 750 मिमि से कम वर्षा होती है। 19.6 प्रतिशत क्षेत्र शुष्क, 37 प्रतिशत अर्ध शुष्क, 21 प्रतिशत उपबन्द क्षेत्र है। सूखा या बाढ़ से अनेक बाद अनेक क्षेत्र में खेती नहीं हो पाती। प्राकृतिक संसाधनों की प्रचुरता के बावजूद अधिकतर किसान गरीब है। छोटे-छोटे जमीन के टुकड़ों पर हाडतोड मेहनत के बावजूद बहुत कम आय होती है। फसल को ओने पोने दामों पर बेचना पड़ता है, उत्पादो की सही कीमत नहीं मिलती। लागत की चीजे मंहगी होती जा रही है। शोधित बीज, सिंचाई, कीटनाशक, मशीन, उर्वरक, मजदूरी के लिए कर्ज लेना पड़ता है। बैंकों, सहकारी समितियों से कर्ज लेने की प्रक्रिया जटिल व लम्बी है। साहूकारों से ऋण लेना पड़ता है, कई राज्यों में 55 प्रतिशत से अधिक किसान ऋण में डूबे है।

राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के अनुसार प्रति किसान औसत आय 2115 रूपया थी, कई राज्यों में तो 1633 रूपया व 1062 रूपया है। गांवों में बिजली, पानी, सड़क आदि नहीं है। बीमा मुश्किल से 14-15 प्रतिशत किसानों का होता है। कई फसलों की बरबादी 30 प्रतिशत हो जाती है। न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित करने में ऐसी पद्धति नहीं है अपनाई जाती जो उत्पादन लागत व मजदूरी के सूचकांक से सीधे जुड़ी हो, किसानों का समुचित प्रतिनिधित्व नहीं होता। रासायनिक उर्वरकों, बीजों, रासायनिक कीटनाशक और अधिक सिंचाई के कारण मिट्टी की गुणवत्ता खराब हुई है। कृषि वैज्ञानिकों व जनसेवकों द्वारा नई उपयोगी बातें खेत तक नहीं पंहुच पाती। बहुराष्ट्रीय कंपनियां भी शोषण करती है।

किसानों की स्वायत्ता खत्म हो रही है, 40 प्रतिशत किसान खेती छोड़ना चाहते है। समुचित जलनीति के अभाव में तालाबों, नहरों का जीर्णोद्वार नहीं किया जा रहा है। कृषि विद्यालयों का किसान से कोई सीधा सम्पर्क नहीं है, समेकित परिवार बीमा नीति सभी ग्रामीण, गरीबों के लिए बनाई जाये। ग्रामीण बीमा विकास कोष स्थापित किये जाये। ग्रामीण किसानों को ऋणग्रस्तता से छूट मिले, स्वयं सहायता समूह गठित हो, कम ब्याज पर ऋण मिले। कृषि तकनीकों को खेत तक पंहुचाया जाय। सामुदायिक खाद्य सुरक्षा व्यवस्था, जीन, बीज, अनाज, जल बैंक की निरन्तरता हो। 

सामुदायिक खाद्य बैंक का गठन हो। छोटी जोतो की उत्पादकता एवं लाभ को बढ़ाया जाये। कृषि से संबंधित अन्य कार्य पशुपालन, मुर्गीपालन, मछलीपालन, मधुमक्खी पालन को प्रोत्साहन दिया जाय। दुग्ध उत्पादन को बढ़ावा दिया जाय। खेतों में कार्यरत महिलाओं के सशक्तिकरण हेतु संयुक्त पट्टा निर्गत किया जाय। बीजों का प्रमाणन सिर्फ राज्य सरकार द्वारा हो, बीजों के दामों के बारे में स्पष्ट प्रावधान हो, बाजार की शक्तियों के अनुसार नहीं हो, नकली एवं घटिया बीजों के उत्पादन व वितरण पर प्रभावी रोक लगे। किसानों को मिल रहे अनुदान जारी रहे, सार्वजनिक निजी निवेश में वृद्धि हो। इन सबके लिए प्रबल इच्छाशक्ति व संवेदना की विशेष जरूरत है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)